पवन ऊर्जा की मदद से बढ़ते तापमान में की जा सकती है 0.8 डिग्री सेल्सियस तक की कमी

जलवायु परिवर्तन से निपटने में पवन ऊर्जा भी अहम भूमिका निभा सकती है, अनुमान है कि इसकी मदद से वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि में 0.8 डिग्री सेल्सियस तक की कमी की जा सकती है

By Lalit Maurya

On: Sunday 26 September 2021
 

इसमें कोई शक नहीं की पृथ्वी पर बढ़ता तापमान आज ग्रह की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। यही वजह है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक इसका हल ढूंढने में लगे हुए हैं। इस विषय पर हाल ही में कॉर्नेल विश्वविद्यालय द्वारा किए एक नए शोध से पता चला है कि यदि पवन ऊर्जा के क्षेत्र में अभी से ध्यान दिया जाए तो सदी के अंत तक उसकी मदद से धरती के औसत तापमान में 0.3 से 0.8 डिग्री सेल्सियस तक की कमी आ सकती है।

गौरतलब है कि अगस्त की शुरुआत में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा जारी छठी आकलन रिपोर्ट में भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता जताई है। रिपोर्ट के अनुसार जिस तेजी से जलवायु में बदलाव आ रहा है उसके चलते 2040 तक तापमान में हो रही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर सकती है। ऐसे में इससे बचने के लिए बड़े बदलावों की जरुरत है।  

इस शोध से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता रेबेका बार्थेलमी ने बताया कि यदि जितना जल्द करवाई करेंगे उतना हमें इससे फायदा मिलेगा। इस शोध से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के रौद्र रूप से बचने में पवन ऊर्जा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसके लिए हमें पवन ऊर्जा के क्षेत्र में तेजी लाने की जरुरत है। यह इससे बचने का एक सस्ता और प्रभावी तरीका भी है। यही नहीं जितना ज्यादा हम इसमें देरी करेंगें, आगे चलकर हमें उतनी अधिक कठोर कार्रवाई करने की आवश्यकता होगी।

इस शोध से जुड़ी अन्य शोधकर्ता सारा सी प्रायर ने बताया कि मौजूदा उपलब्ध पवन ऊर्जा संसाधन, वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की मांग से कहीं ज्यादा है उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों में इसकी लागत में भी तेजी से गिरावट आई है। ऐसे में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने के लिए इसका विस्तार जरुरी है।  

2018 में 1,273 टेरावाट-घंटे था पवन ऊर्जा का उत्पादन

जर्नल क्लाइमेट में छपे इस शोध के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पवन ऊर्जा उद्योग तेजी से बढ़ रहा है। 2005 के बाद से एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इसकी कुल स्थापित क्षमता में 14 फीसदी प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हो रही है। यही वजह है कि 2005 में जहां वैश्विक स्तर पर पवन ऊर्जा का उत्पादन 104 टेरावाट-घंटे था, वो 2018 में बढ़कर 1,273 टेरावाट-घंटे हो गया है।  

वहीं यदि 2019 से जुड़े आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर बिजली की मांग करीब 26,600 टेरावाट-घंटे थी, जिसका लगभग 6.5 फीसदी हिस्सा पवन ऊर्जा द्वारा पैदा किया गया था। वहीं छह देश ऐसे हैं जो अपनी मांग के 20 फीसदी से अधिक हिस्से को पवन ऊर्जा की मदद से पूरा कर रहे हैं। वहीं यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी और स्पेन 20 फीसदी के पास पहुंचने के करीब हैं, जबकि यदि चीन को देखें तो वो अपनी बिजली सम्बन्धी जरूरतों के करीब 5 फीसदी हिस्से को पवन ऊर्जा की मदद से पूरा कर रहा है।   

यूएस एनर्जी इंफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार अमेरिका अपनी कुल ऊर्जा का करीब 8.4 फीसदी हिस्सा पवन ऊर्जा से प्राप्त कर रहा है। वहीं 2020 तक छह राज्य (टेक्सास, आयोवा, ओक्लाहोमा, कैलिफोर्निया, कंसास और इलिनोइस) में पवन ऊर्जा क्षमता आधे से ज्यादा है।

वहीं यदि भारत की बात करें तो नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा 31 मार्च 2021 तक के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार देश की कुल स्थापित पवन ऊर्जा उत्पादन क्षमता 39.3 गीगावाट है, जोकि विश्व में चौथे स्थान पर है। 2020-21 के दौरान इसकी मदद से करीब 6,015 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन किया गया था। 

बार्थेलमी के अनुसार अब तक दुनिया के करीब 90 देशों में विंड टर्बाइन लगाए जा चुके हैं, जो दुनिया की करीब 7 फीसदी बिजली पैदा कर रहे हैं। यही नहीं पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता में तेजी से विस्तार हो रहा है। उनके अनुसार जैसे-जैसे तकनीकी विकास हो रहा है उसके चलते सौर और पवन ऊर्जा की उत्पादन लागत जीवाश्म ईंधन से कहीं ज्यादा कम हो चुकी है। ऐसे में ऊर्जा स्रोतों में बदलाव न करने का अब कोई तर्क नहीं है, बस इसके लिए केवल मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है। 

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