जलवायु संकट: 23 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं दुनिया के एक फीसदी लोग

यदि तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखना है तो उसके लिए अब से 2050 तक प्रति व्यक्ति वार्षिक उत्सर्जन को 1.9 टन पर सीमित करना होगा

By Lalit Maurya

On: Wednesday 05 October 2022
 

इसमें कोई शक नहीं की धरती पर मौजूद हर इंसान जलवायु में आते बदलावों के लिए जिम्मेवार है। लेकिन सभी इंसान समान रूप इस बदलती जलवायु के लिए जिम्मेवार नहीं हैं। वैश्विक स्तर पर लोगों द्वारा उत्सर्जित हो रही ग्रीनहाउस गैसों के बीच का यह अंतर काफी बड़ा है।

इस पर किए गए एक नए अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से वैश्विक स्तर पर हुए कुल उत्सर्जन के 23 फीसदी हिस्से के लिए दुनिया के एक फीसदी साधन संपन्न लोग जिम्मेवार हैं। वहीं दुनिया की सबसे पिछड़ी 50 फीसदी आबादी की बात करें तो वो इस उत्सर्जन के केवल 16 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार हैं।

पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा गर्माता जा रहा है। इस मुद्दे पर जोरों से चर्चाएं हो रही हैं, लेकिन इसके बावजूद उस पिछड़े और कमजोर तबके की व्यथा अभी भी जस की तस है। देखा जाए तो यह पिछड़ा और कमजोर वर्ग इस उत्सर्जन के बहुत छोटे हिस्से के लिए जिम्मेवार है, लेकिन वो इससे सबसे ज्यादा पीड़ित है। ऐसे में जलवायु को लेकर न्याय और समानता का मुद्दा अहम है।

देखा जाए तो दुनिया की शीर्ष एक फीसदी आबादी द्वारा किए जा रहे इस उत्सर्जन के एक बड़े हिस्से के लिए खपत के बजाय उनके द्वारा किया जा रहा निवेश जिम्मेवार है। वहीं यदि वर्ष 2019 में हुए कुल उत्सर्जन को देखें तो दुनिया की शीर्ष 10 फीसदी आबादी ने करीब 48 फीसदी उत्सर्जन किया था। वहीं दुनिया की निचली 50 फीसदी आबादी वैश्विक उत्सर्जन के केवल 12 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार थी।

जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक 1990 के बाद से दुनिया की शीर्ष एक फीसदी आबादी के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी तरफ अमीर देशों में निम्न और मध्यम आय वर्ग द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन में गिरावट दर्ज की गई है।

1990 की स्थिति के विपरीत, व्यक्तिगत उत्सर्जन में वैश्विक असमानता का 63 फीसदी अब देशों के बजाय देशों के भीतर कम और उच्च उत्सर्जक के बीच अंतर के कारण है। मतलब की यह जो खाई है वो अब सिर्फ देशों के बीच ही सीमित नहीं है देशों के भीतर भी यह गहराती जा रही है। देश के भीतर भी एक ऐसा वर्ग है जो बहुत ज्यादा उत्सर्जन कर रहा है जबकि दूसरी तरफ उसका खामियाजा वो वर्ग झेल रहा है जो इसके लिए जिम्मेवार नहीं है।  

जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानताएं दोनों ही हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से हैं, और वो आपस में एक दूसरे से जुड़ी हैं। जहां जलवायु परिवर्तन को रोकने में विफलता से देशों के भीतर और देशों के बीच असमानता बढ़ सकती है। वहीं दूसरी तरफ देशों के भीतर मौजूद आर्थिक असमानताएं जलवायु नीतियों के कार्यान्वयन को धीमा कर देती हैं।

सिर्फ देशों के बीच ही नहीं भीतर भी गहरा रही है असमानता की खाई

रिसर्च से पता चला है कि 2019 में, जहां उप-सहारा अफ्रीका में रहने वाले लोगों ने औसतन 1.6 टन सीओ2 के बराबर उत्सर्जन किया था। वहीं उत्तरी अमेरिका में, प्रति व्यक्ति उत्सर्जन औसत से 10 गुना ज्यादा था, जबकि महाद्वीप के शीर्ष 10 फीसदी लोग करीब 70 टन उत्सर्जन कर रहे हैं।

यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो सबसे पिछड़ी 50 फीसदी आबादी औसतन प्रति वर्ष 1.4 टन सीओ2 के बराबर उत्सर्जन कर रही है, जिसकी वैश्विक उत्सर्जन में हिस्सेदारी करीब 11.5 फीसदी है। वहीं मध्य वर्ग यानी 40 फीसदी आबादी प्रति व्यक्ति हर वर्ष 6.1 टन उत्सर्जन कर रही है, जो कुल उत्सर्जन के 40.5 फीसदी हिस्से के लिए  जिम्मेवार है।

वहीं सबसे अमीर दुनिया की 10 फीसदी आबादी प्रति व्यक्ति हर वर्ष औसतन 28.7 टन उत्सर्जन कर रही है जोकि कुल वैश्विक उत्सर्जन का करीब 48 फीसदी है। वहीं यदि सबसे अमीर एक फीसदी आबादी की बात करें तो वो प्रति व्यक्ति औसतन हर वर्ष 101 टन सीओ2 के बराबर उत्सर्जन कर रहा है, जो कुल वैश्विक उत्सर्जन का करीब 16.9 फीसदी के लिए जिम्मेवार है। ऐसे में देखा जाए तो वैश्विक असमानता की यह खाई बहुत गहरी है जिसे भरना जरुरी है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो 2019 में एक औसत व्यक्ति द्वारा किया जा रहा उत्सर्जन करीब 6 टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर पहुंच गया है। हालांकि यदि तापमान में होती वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखना है तो उसके लिए अब से 2050 तक प्रति व्यक्ति वार्षिक उत्सर्जन को 1.9 टन कार्बन डाइऑक्साइड पर सीमित करना होगा। लेकिन यह जितना दिखता है उतना आसान नहीं है।

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