उत्तराखंड में मनरेगा-3: पानी रोकने में कितनी मिली सफलता?

मनरेगा के तहत उत्तराखंड में हर साल जल संरक्षण के लिए बड़े स्तर पर खंती, चाल-खाल का निर्माण किया जा रहा है, लेकिन इसका फायदा क्या हो रहा है, इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है

By Raju Sajwan

On: Friday 28 August 2020
 
उत्तराखंड के पौड़ी जिले के गांव सकनीबड़ी में मनरेगा के तहत बनी चाल। फोटो: श्रीकांत चौधरी

कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ और काम धंधे बंद हो गए तो सबसे पहले मनरेगा के काम शुरू हुए। मकसद था, शहरों से लौटे प्रवासियों और ग्रामीणों को फौरी राहत पहुंचाना। उत्तराखंड में भी मनरेगा के तहत अप्रैल के आखिरी सप्ताह में काम शुरू हो गए थे। लेकिन क्या मनरेगा उत्तराखंड के प्रवासियों को अपने गांव में ही रोक सकता है? क्या मनरेगा उत्तराखंड के ग्रामीणों के काम आ रहा है? क्या मनरेगा से उत्तराखंड में हालात बदल सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश डाउन टू अर्थ ने की है। इसे कड़ी-दर-कड़ी प्रकाशित किया जाएगा। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, उत्तराखंड में मनरेगा-1: प्रवासियों के लिए कितना फायदेमंद? । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, उत्तराखंड में मनरेगा-2: लॉकडाउन में ढाई गुणा बढ़ी काम की मांग। पढ़ें अगली कड़ी - 

 

आंकड़े बताते हैं कि 2020-21 में अप्रैल से लेकर 15 अगस्त तक राज्य में जल से संबंधित 6,698 कार्य चल रहे हैं। इनमें मिट्टी एवं जल से संरक्षण से संबंधित कार्य 4,851 कार्य चल रहे हैं, जबकि 196 कार्य भूजल रिचार्ज और 1,618 सिंचाई से संबंधित कार्य चल रहे हैं। जबकि राज्य में 17 तालाबों का निर्माण किया जा रहा है। 2019-20 में जल से संबंधित 20,350 कार्य किए गए थे। इनमें से सबसे अधिक मिट्टी एवं जल संरक्षण से संबंधित कार्य थे। इसके अलावा भूजल रिचार्ज से संबंधित कार्य 343 और सिंचाई से संबंधित 5116 कार्य किए गए। जबकि साल भर में राज्य में 192 तालाबों का निर्माण किया गया।

पौड़ी जिले में मनरेगा लोकपाल रह चुके राजेंद्र कुकसाल बताते हैं कि पहाड़ में पानी को रोकना बहुत जरूरी है। यही वजह है कि मनरेगा के तहत जल संरक्षण व संवर्धन पर विशेष ध्यान दिया गया। यहां जंगलों व बंजर इलाकों में अलग-अलग साइज के गड्ढे बनाए जाते हैं। इन्हें खंती कहा जाता है। इसका मकसद जंगलों में बरसात के पानी को रोकना है, ताकि भूजल स्तर में सुधार हो। इसके अलावा गांवों के आसपास चाल-खालें बनाई जाती हैं। जो साइज में बड़े टैंक जैसे होते हैं। यहां बारिश का पानी इकट्ठा होता है, जिसे बाद में सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मनरेगा के तहत इन पर काम तो किया जा रहा है, बावजूद इसके उचित निगरानी न होने के कारण ये कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। 

दरअसल राज्य में कोई व्यापक अध्ययन भी नहीं है कि राज्य में भूजल की स्थिति क्या है। इस तरह का अधिकृत अध्ययन भी उपलब्ध नहीं है कि बारिश का कितना पानी ज़मीन में समा रहा है। भूजल कितना रिचार्ज हो रहा है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों की वजह से हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जलधाराएं सूखने के कगार पर हैं। इन्हीं जल धाराओं से गंगा-यमुना जैसी नदियां बनती हैं। रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड राज्य में पिछले 150 सालों में ऐसी जल धाराओं की संख्या 360 से घटकर 60 तक आ गई है।

यहां यह दिलचस्प है कि नदियों के प्रदेश उत्तराखंड में पेयजल संकट भी काफी है। कई पहाड़ी इलाकों में पीने का पानी लेने के लिए लोगों को कोसों दूर जाना पड़ता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के मुताबिक उत्तराखंड में 2.27 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) पानी सालाना भूजल रिचार्ज के लिए उपलब्ध है। राज्य में 500 प्राकृतिक जलस्रोत और लगभग इतने ही चेकडैम्स हैं, जिन्हें रिचार्ज किया जा सकता है।

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