ग्राउंड रिपोर्ट: पश्चिम बंगाल में केंद्र व राज्य के बीच तनातनी का खामियाजा भुगत रहे मनरेगा मजदूर

पश्चिम बंगाल देश का पहला राज्य है जहां केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का आरोप लगाकर मनरेगा को धन जारी करने पर रोक लगा दी है

By Himanshu Nitnaware

On: Wednesday 03 May 2023
 
पश्चिम बंगाल में मनरेगा के गढ़ पुरुलिया और बांकुड़ा जिले के गांव में रहने वाले ज्यादातर मजदूरों के सामने पलायन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है (फोटो: हिमांशु / सीएसई)

पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के बेलमा गांव की 45 वर्षीय जयगुन बीबी की ईद इस बार हमेशा की तरह अच्छी नहीं मनी। वह अपना दर्द बयां करती हैं, “हमारे गांव में जून 2022 से ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 के तहत मिलने वाला काम बंद है। इस वजह से घर में अब एक पाई भी नहीं बची है। आय का इकलौता जरिया बंद है।”

केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों के श्रमिकों को रोजगार की “गारंटी” मुहैया कराने के लिए 2005 में मनरेगा लागू किया गया था। इसमें करोड़ों लोगों को 100 दिन के रोजगार का वादा किया गया।

21 दिसंबर 2021 को केंद्र सरकार ने योजना के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का हवाला देते हुए बहुत कठोर कदम उठाया। केंद्र सरकार ने 2005 के इस अधिनियम की धारा 27 को लागू कर ऐसे प्रावधानों का सहारा लिया, जो उसे कुछ परिस्थितियों में “योजना के लिए धन जारी करने से रोकने का आदेश” देने की अनुमति देती है। इसके बाद ही जून 2022 से पूरे राज्य में अचानक काम रुक गए।

डाउन टू अर्थ ने पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुड़ा जिलों में स्थित गांवों का दौरा किया, ताकि इस अधिनियम के तहत केंद्र सरकार के फंड जारी न करने और काम बंद करने के बाद श्रमिकों के हालात को समझा जा सके। केंद्र के इस कठोर कदम की वजह से यहां के लोगों के तीन बुनियादी अधिकार- रोटी, कपड़ा और मकान खतरे में पड़ गए हैं। जयगुन बताती हैं कि आमतौर पर हम खजूर, फल और अन्य व्यंजनों से रोजा खोलते हैं। लेकिन, इस साल उन्हें रोजा खोलने के लिए बस पंता भात और पानी ही मिल सका।

कोलकाता के पश्चिम में लगभग 300 किलोमीटर दूर स्थित पुरुलिया राज्य में मनरेगा का गढ़ है। यहां इस बार ईद के आसपास ही ग्रामीण अपनी वार्षिक चरक पूजा की तैयारी कर रहे थे, जिसमें भगवान शिव की पूजा होती है। 64 वर्षीय कालूपद महतो कहते हैं कि इस साल ईद और यह उत्सव आसपास हो रहे हैं।

महतो के अनुसार, “त्योहार 12 से 16 अप्रैल के बीच मनाया जाता है। इस दौरान गांव में एक मेला लगता है, जो एक प्रमुख आकर्षण है। यह हमारे लिए दीवाली या दुर्गा पूजा से भी बड़ा त्योहार है, क्योंकि दूसरे गांवों के रिश्तेदार हमारे यहां दावत, उपहारों के आदान-प्रदान और समय बिताने आते हैं। लेकिन इस साल सब गड़बड़ हो गया है।”

ममता बनर्जी-शासित पश्चिम बंगाल में लगभग एक साल से इन गांवों के परिवार नियमित मजदूरी के बिना रह रहे हैं। वे प्रावधानों के अनुसार ही काम की मांग कर रहे हैं और मांग के 15 दिनों के भीतर ही उन्हें काम मिल जाना चाहिए। यदि निर्धारित समय में काम नहीं दिया जाता है तो केंद्रीय अधिनियम बेरोजगारी भत्ता देकर उनकी रक्षा करता है।

पुरुलिया के जिला पंचायत एवं ग्रामीण विकास अधिकारी प्रोदिप्तो बिस्वास का कहना है कि कुल 30 लाख की आबादी में से 11 लाख इस अधिनियम के तहत पंजीकृत श्रमिक हैं। वह बताते हैं, “जिले में 4 लाख सक्रिय मजदूर हैं और सभी बेरोजगार हैं। अब तक कुल बकाया मजदूरी 121 करोड़ रुपए हो गई है।”

यह एक अप्रत्याशित समस्या है और पुरुलिया और पड़ोस के बांकुड़ा जिले के साथ ही साथ पूरे राज्य में फैल गई है। श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम कर रहे पश्चिम बंगा खेत मजदूर समिति (पीबीकेएमएस) के जिला समन्वयक प्रेमचंद कहते हैं कि मनरेगा लाखों श्रमिकों के लिए आय का प्राथमिक स्रोत है। वह कहते हैं, “इस क्षेत्र में पर्याप्त बारिश नहीं होती है और एक एकड़ से भी कम भूमि वाले छोटे किसान मुश्किल से एक ही फसल उगा पाते हैं। उनमें से अधिकतर के पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। गारंटीशुदा काम पाने के लिए मनरेगा इकलौता साधन है।”

प्रेमचंद कहते हैं कि यहां ऐसा कोई उद्योग या व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं है, जो स्थानीय लोगों को रोजगार दे सके। मनरेगा ने उन्हें यह भरोसा दिया है कि अगर वे काम मांगेंगे तो रोजगार जरूर मिलेगा। लेकिन, काम करने के उनके अधिकार को छीनकर उन्हें गरीबी की ओर धकेलने के साथ ही उनका दमन और शोषण किया जा रहा है। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों में पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

बांकुड़ा जिले के बाबूपारा गांव के मोंटू बावन का कहना है कि इस अधिनियम के तहत वह हमेशा रोजगार मांगते रहे हैं, भले ही इसका मतलब साल में बस 30 दिन काम करना ही क्यों न हो। वह बताते हैं, “मेरी पत्नी ने भी 30-35 दिनों तक काम किया था, जिसकी वजह से हम टिक पाए। लेकिन जब से काम बंद हो गया है, तब से गांव के लोग खेतिहर मजदूर या दिहाड़ी मजदूर के रूप में रोजगार की तलाश रहे हैं।”

हालांकि, रोजगार के तौर पर ये काम जीवनयापन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। ऐसे कामों से दिनभर में 150-200 रुपए की ही कमाई हो पाती है, जबकि काम में 12 से ज्यादा घंटे तक जूझना पड़ता है। बिश्वास कहते है, “यहां के लोगों की लगभग 70 प्रतिशत आय मनरेगा पर निर्भर है। क्षेत्र के दौरे के दौरान बड़े पैमाने पर पलायन का पता चला है। जब अधिकारी आधार कार्ड को बैंक खातों से जोड़ने के लिए घरों में जाते हैं, तो उनमें से अधिकतर वहां नहीं मिलते और कहा जाता है कि काम की तलाश में वे दूसरे राज्यों में चले गए हैं।”

उनका कहना है कि 4 लाख लोगों का बेरोजगार होना एक बड़ा संकट है। इससे कानून व्यवस्था बनाए रखने में बड़ी अड़चन पैदा हो सकती है। वह आगे बताते हैं, “एक साल से छह लाख पौधों के बागीचे का रख रखाव नहीं हो सका है, क्योंकि मनरेगा के माध्यम से काम शुरू नहीं किया गया। हम जल संरक्षण के लगभग 5,000 काम करते रहे हैं, लेकिन अब वो भी बंद हैं।”

पूरे राज्य में 1.32 करोड़ मनरेगा श्रमिकों के लिए हालात एक जैसे हैं। केंद्र पर पश्चिम बंगाल के 7,500 करोड़ रुपए बकाया हैं, जिसमें से 2,762 करोड़ रुपए मजदूरी के हैं। राज्य में हालात को और खराब करते हुए वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए कोई फंड आवंटित नहीं किया गया है, जिसका मतलब है कि इस साल भी मनरेगा से लोगों को कोई काम नहीं मिल सकता।

प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) के अनुसार, पश्चिम बंगाल में काम ठप होने के बाद से अप्रैल 2023-24 में 3.03 करोड़ लोगों ने काम मांगा है। पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 में इसी अवधि में 3.28 करोड़ लोगों ने काम मांगा। 2021-22 में काम की डिमांड 3.78 करोड़ थी, जबकि 2020-21 में यह आंकड़ा 2 करोड़ था। 2019-20 में 3.03 करोड़ लोगों ने काम मांगा था।

मनरेगा के तहत 2019-20 में 54.57 लाख परिवारों को रोजगार मिला, जो 2020-21 में महामारी वर्ष के दौरान बढ़कर 79.64 लाख हो गया। हालांकि, 2022-23 के लिए यह घटकर 16.29 लाख रह गया। इसका मतलब है कि काम की मांग हमेशा उतनी ही रहती है, लेकिन मुहैया कराए गए रोजगार की संख्या कम हो जाती है।

राजनीति की शिकार

जानकारों का दावा है कि फंड रोके जाने के पीछे की वजह बदले की भावना वाली राजनीति है। पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति, पश्चिम बंगाल से जुड़ी अनुराधा तलवार कहती हैं कि 2021 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राज्य चुनाव हारने के तुरंत बाद मनरेगा फंड पर कुल्हाड़ी चली। बीजेपी नेताओं ने बहस का राजनीतिकरण कर दिया कि राज्य सरकार बकाया पैसे का भुगतान नहीं कर रही है। बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए। सत्तारूढ़ ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेताओं का कहना है कि फंडिंग केंद्र की तरफ से बंद की गई है, जो सच है।”

तलवार बताती हैं कि कुछ ही महीनों बाद पंचायत चुनाव होने हैं। बीजेपी नेताओं को डर है कि मनरेगा के लिए आने वाले फंड का इस्तेमाल इन चुनावों के लिए किया जाएगा। उन्होंने कहा, “इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य में कभी भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। लेकिन, अधिनियम में ही जवाबदेही तय करने के प्रावधान किए गए हैं। भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारियों को न तो निलंबित किया गया और न ही कोई दूसरी कार्रवाई की गई। सजा मिल रही है तो सिर्फ गरीब मजदूरों को। मजदूरों को भुगतान और दोषियों पर कार्रवाई, दोनों एकसाथ की जा सकती है।”

राष्ट्रीय संकट

मजदूरों को दंडित करने का यह सिलसिला पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं है। कोलकाता से करीब 1,600 किमी दूर, देश की राजधानी दिल्ली में मनरेगा मजदूरों ने फरवरी की शुरुआत में 100 दिनों के आंदोलन की शुरुआत की। मनरेगा में 27.5 करोड़ से ज्यादा मजदूर रजिस्टर्ड हैं जिनमें से 10.25 करोड़ श्रमिक 2023-24 के लिए रोजगार मांग रहे हैं। परेशानियों से जूझ रहे इन करोड़ों श्रमिकों की आवाज उठाने के लिए ही यह आंदोलन शुरू किया गया है।

जंतर-मंतर पर अलग-अलग राज्यों से आए मजदूर प्रदर्शन कर रहे हैं और योजना को लागू करने में केंद्र सरकार की तरफ से हाल ही में किए गए सुधारों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। विशेषज्ञों मानते हैं कि यह एक्ट उद्देश्यों को पूरा कर पा रहा है। साल दर साल सुधार के नाम पर इसमें किए गए बदलावों ने सिर्फ काम के अधिकार का ही उल्लंघन किया है।

मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के संस्थापक सदस्य निखिल डे कहते हैं कि मनरेगा के लिए उठाए गए कदम दरअसल एक तरह से त्रिशुल से किए गए वार की तरह हैं। योजना को खत्म करने के लिए तीन स्तरों पर यह हमला किया जा रहा है। डे ध्यान दिलाते हैं कि केंद्र की तरफ से लगातार फंड घटाया जा रहा है। इसके साथ ही आधार बेस्ड पेमेंट सिस्टम (एबीपीएस) और नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम (एनएमएमएस) जैसे 2 और बदलावों ने मिलकर योजना पर तिहरा हमला बोला है।

वह बताते हैं, “रोज ही मजदूरों के अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। उनके भुगतान में देरी की जा रही है, मजदूरी रोकी जा रही है और प्रतिपूरक मजदूरी नहीं दी जा रही है। यह सब अधिनियम की भावना के खिलाफ है।” डे कहते हैं कि वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए पेश किए गए बजट में सरकार ने मनरेगा के लिए महज 60 हजार करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। लेकिन, इस योजना के तहत काम कर रहे मजदूरों की संख्या पर ध्यान दें, तो पता चलता है कि इतने पैसों से प्रत्येक मजदूर को औसतन 15 दिन ही काम मिल सकेगा, जो मनरेगा के इतिहास में सबसे कम है।

दूसरी तरफ, केंद्र सरकार ने मजदूरों की हाजिरी लगाने के लिए जनवरी, 2023 से नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम (एनएमएमएस) अनिवार्य कर दिया है। इसके तहत श्रमिकों को दिन में दो बार ऐप के जरिए हाजिरी लगानी पड़ती है जिसके लिए उन्हें रोज काम शुरू करने से पहले और काम खत्म करने के बाद अपना फोटो अपलोड करना जरूरी है। जब ऐप काम नहीं करता है, तो मजदूरी करने के बावजूद उनकी दिहाड़ी मारी जाती है।

इस नए सिस्टम को लागू करने के पीछे तर्क दिया गया था कि इससे मजदूरी के भुगतान की व्यवस्था सुधरेगी, उसमें मौजूद कमियां दूर होंगी और भ्रष्टाचार व गड़बड़ियों पर लगाम लगेगी। लेकिन, सभी राज्यों में यह सिस्टम फेल साबित हो चुका है। ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी अच्छी नहीं है, बुनियादी संसाधनों की कमी है। ऐप पर रजिस्ट्रेशन और तकनीकी गड़बड़ियों से जुड़ी दिक्कतें परेशानी को और बढ़ा रही हैं।

जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रही हैं कर्नाटक के बेलगाम जिले की बालेकुंद्री गांव में रहने वाली श्रमिक मीनाक्षी पाटिल कहती हैं कि वह मनरेगा के तहत सड़क निर्माण के लिए खुदाई का काम करती थीं। लेकिन, ऐप की दिक्कतों के कारण उन्हें काम करने के बाद भी मेहनताना नहीं मिल पा रहा है। वह कहती हैं, “मैंने 15 दिन काम किया, लेकिन ऐप में सिर्फ 5 दिन की हाजिरी ही लग सकी। सर्वर और तकनीकी दिक्कतों की वजह से बाकी दिन ऐप ने ठीक से काम नहीं किया। मैं दिनभर मेहनत मजदूरी करती हूं, लेकिन हाजिरी न लग पाने की वजह से मुझे मेरी ही पूरी मजदूरी नहीं मिल पाएगी।”

आधार से जुड़ा नया पेमेंट सिस्टम श्रमिकों की मजदूरी पर तीसरा हमला है। 31 जनवरी 2023 से आधार आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) अनिवार्य कर दी गई है। यह श्रमिकों के लिए पहले लागू “डायरेक्ट बैंक अकाउंट ट्रांसफर” वाली व्यवस्था से अलग है, जिसमें मजदूरी सीधे श्रमिकों के खाते में डाल दी जाती थी। नए पेमेंट सिस्टम में आधार कार्ड को फाइनेंसियल एड्रेस के तौर पर मान्यता दी गई है।

इसके तहत आधार कार्ड से जुड़े बैंक अकाउंट में ही श्रमिकों का पेमेंट ट्रांसफर किया जाता है। डे बताते हैं कि एबीपीएस के तहत जरूरी है कि श्रमिकों को मनरेगा के तहत मिलने वाला काम बैंक अकाउंट और आधार कार्ड से जोड़ा जाए। इसके अलावा, इसमें बैंक अकाउंट को भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) के मैपर से भी जोड़ना होता है। इन कामों को पूरा करने के लिए केवाईसी और ई-केवाईसी के सख्त नियमों का पालन करना पड़ता है जिसके कारण यह पूरी प्रक्रिया बहुत बोझिल हो जाती है।

एमआईएस से पता चलता है कि मनरेगा के 50 फीसदी मजदूर एबीपीएस के लिए अपात्र हैं, इसलिए उन्हें नए पेमेंट सिस्टम से जोड़ा ही नहीं जा सकता। राजस्थान संगठन मजदूर मोर्चा की ब्लॉक वर्कर माया चौहान कहती हैं, “एक्टिविस्ट नई तकनीक के इस्तेमाल के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन, हमें ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता जिससे साबित हो सके कि ऐसे कदमों से भ्रष्टाचार कम हो रहा है या फिर सिस्टम और आसान व बेहतर हो रहा है।”

चौहान कहती हैं कि ऐसे तमाम मामले हैं, जहां मजदूरों ने अपनी हाजिरी लगाने के लिए अपने घर, रसोई, वाहनों और यहां तक कि अपने पशुओं की तस्वीरें ऐप पर अपलोड कर दी हैं। वह कहती हैं, “इससे साबित होता है कि टेक्नॉलजी से भ्रष्टाचार को रोकने में मदद नहीं मिल रही है।”

जंतर मंतर पहुंचे नरेगा संघर्ष मोर्चा का अनुमान है कि ऐप के कारण देशभर के मजूदरों को उनकी मजदूरी का 50 फीसदी हिस्सा नहीं मिल पा रहा है। वे मनरेगा का बजट बढ़ाने की मांग भी कर रहे हैं, ताकि हर मजदूर को 100 दिनों के रोजगार का वादा पूरा हो सके। फरवरी में बजट की घोषणा से पहले नरेगा संघर्ष मोर्चा समेत सभी संगठनों ने 2.72 लाख करोड़ रुपए के आवंटन की मांग की थी।

दूसरी मांगों के साथ ही मजदूरों ने सोशल ऑडिट कराने और भ्रष्टाचार विरोधी सहभागी तरीकों को फिर से शुरू करने के लिए भी आवाज उठाई, ताकि भ्रष्टाचार और ठेकेदार राज को खत्म किया जा सके। डे कहते हैं, “मनरेगा में अधिकतम 200 रुपए की मजदूरी ही मिलती है, जो अभी भी न्यूनतम मजदूरी से कम है। लेकिन, मजदूरों को काम की सख्त जरूरी है, इसलिए वे इतने कम पैसे पर भी मजदूरी करने को तैयार हैं। इससे साफ होता है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था तनावग्रस्त है।”

आम लोगों के हक की लड़ाई लड़ने वाले वकील प्रशांत भूषण ने 4 अप्रैल 2023 को दिल्ली में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। उल्टा मजदूरों को ही परेशान किया जा रहा है। खुद सरकार ही नियमों का उल्लंघन कर रही है।” भूषण कहते हैं कि इस बात में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सुधार के नाम पर सरकार ऐसे कदम उठा रही है, जो मनरेगा को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वह कहते हैं, “फरवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में घोषणा की थी कि यह योजना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विफलताओं का एक जीवित स्मारक होगी। पीएम की मंशा तभी जाहिर हो गई थी। अब वह योजना को धीमी मौत मार रहे हैं।”

बीते कुछ वर्षों से योजना के तहत काम करने वाले मजूदरों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है। एमआईएस के मुताबिक, 2020-21 में 11.19 करोड़ लोगों ने योजना का लाभ उठाया। 2021-22 में यह संख्या घटकर 10.62 करोड़ पर आ गई। 2022-23 में इस संख्या में तेजी से गिरावट आई और सिर्फ 8.76 करोड़ मजदूर ही बचे।

समिति पर नजर

केंद्र सरकार ने नवंबर 2022 में एक पैनल का गठन किया, ताकि मजदूरी को प्रभावित करने वाले कारणों का पता लगाया जा सके और मनरेगा में सुधार लाया जा सके। पूर्व ग्रामीण विकास विभाग के सचिव अमरजीत सिन्हा की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति बनाई गई जिसका उद्देश्य सभी राज्यों में मनरेगा पर हो रहे खर्च और उसके संचालन से जुड़े मुद्दों का विश्लेषण करना था।

समिति के उद्देश्यों के बारे में कहा गया कि 15 साल के कार्यान्वयन के रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए समिति इस बात की जांच करेगी कि मनरेगा में क्या किसी तरह के बदलाव की जरूरत है। डाउन टू अर्थ ने जब इस बारे में अमरजीत सिन्हा से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, “रिपोर्ट अपने अंतिम चरण में है और जल्द ही प्रकाशित की जाएगी। इसलिए पैनल पर ज्यादा टिप्पणी नहीं की जा सकती है।”

डे बताते हैं कि हाल ही में सचिव शैलेश कुमार सिंह के साथ बैठक हुई है, लेकिन, बैठक में कोई आश्वासन नहीं मिला है। उन्होंने बताया, “सचिव शैलेंद्र सिंह एबीपीएस की डेडलाइन जून 2023 आगे बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। लेकिन, ज्यादा समय के लिए इससे मदद नहीं मिल सकेगी।”

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