कमल के पत्तों पर भोजन परोसने की परंपरा बनाम प्लास्टिक

शादियों में भोजन कराने के लिए कमल के पत्तों का इस्तेमाल होता था। पूड़ियां और सूखी सब्जी कमल के पत्तों पर परोसी जाती थी और तरीदार सब्जी दोनों में 

By Bhagirath Srivas

On: Saturday 13 April 2019
 
सोरित / सीएसई

उस दिन पूरे टोले में खुशी का माहौल था। टेप रिकॉर्डर में तेज आवाज में गोविंदा की फिल्मों के गाने बज रहे थे- “मेरी मर्जी, मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्जी”। इस गाने ने टोले के बच्चों की शैतानियों को मानों पंख दे दिए थे।

“दिन भर उछलकूद ही करता रहेगा तो पढ़ाई कब रहेगा। परीक्षा सिर पर आ गई है”। घनश्याम की अम्मा ने हुंकार भरी। अम्मा की हुंकार के बाद घनश्याम ने भी उससे बड़ी हुंकार के साथ जवाब दिया-“मेरी मरजी। मैं पढ़ाई करूं या ना करूं, मेरी मरजी।”

अब घनश्याम की अम्मा का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह डंडा लेकर घनश्याम के पीछे दौड़ पड़ी। घनश्याम ने बुलेट ट्रेन जैसी रफ्तार भरी और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो गया। अम्मा बड़बड़ाती हुई घर लौट आई और गाय के लिए सानी बनाने लगी।

उस रोज खरका गांव में मंगल प्रसाद की बेटी मालती की शादी थी। मालती का घर घनश्याम के घर से चार पांच घर छोड़कर ही था। शादी के मौके पर धूम धड़ाका चरम पर था। घर की देहरी पर टेप रिकॉर्डर रखा था और पास में फिल्मी गानों की ढेरों कैसेट्स बिखरी पड़ी थीं। सनम बेवफा और ऐलान-ए-जंग फिल्म के डायलॉग्स की कैसेट गानों की कैसेट्स के बीच में फंसी थीं और अपनी बारी का इंतजार कर रही थीं। दीवारों पर रंग रोगन का काम हो चुका था। दो लड़के बांस की डंडी का ब्रश बनाकर उसे रंग में डुबा डुबाकर दीवार पर रामायण की चौपाई “राम सरिस वर दुल्हन सीता, समधि दशरथ जनक पुनीता” को अंतिम रूप दे रहे थे। दीवार पर मोर और फूलों की खूबसूरत कलाकारी की गई थी। चबूतरे को गोबर से लीप दिया गया था।

बुंदेलखंड के गांवों में शादी के दौरान इस तरह की कलाकारी काफी प्रचलित है। घर में मेहमानों की आवाजाही बढ़ गई थी। पड़ोस के घर में रसोई बना दी गई थी, जहां मुहल्ले के 6-7 युवक मुंह में बीड़ी दबाए लड्डुओं को गोल-गोल आकार दे रहे थे। लड्डुओं को गोल करने की प्रक्रिया से निकली चिकनाई की परत उनके हाथों में जमी थी। कढ़ाही में पूड़ियां नाच रही थीं। एक दूसरी कढ़ाही में भांटा (बैंगन) की तरकारी बन रही थी। रसोई में बच्चों का आना सख्त मना था। रसोई वाले घर के दरवाजे पर हाथ में पतली बेशर्म की डंडी लेकर चौकीदार बिठा दिया गया था, ताकि कोई बच्चा मिठाई पर आक्रमण न कर सके। रसोई की सारा काम बल्दू कक्का की देखरेख में हो रहा था। बल्दू कक्का गांव के प्रसिद्ध रसोइए या कहें हलवाई थे। जब भी गांव में शादी या तेरहवीं जैसे कार्यक्रम होते, बल्दू कक्का की मांग बढ़ जाती थी। इस काम के लिए वह पैसे नहीं लेते थे। लोग अपनी मर्जी से शादी के बाद उनके घर अपनी क्षमता के अनुसार, अनाज पहुंचा दिया करते थे।

“चुन्नू भैया से कह दो कि ताला (तालाब) से पत्ते ले आएं” मंगल प्रसाद ने आवाज लगाई। पत्ते से उनका मतलब कमल के पत्तों से था। शादियों में भोजन कराने के लिए कमल के पत्तों का इस्तेमाल होता था। पूड़ियां और सूखी सब्जी कमल के पत्तों पर परोसी जाती थी और तरीदार सब्जी दोनों में। ये दोने भी पेड़ों के पत्ते तोड़कर खुद ही बना लिए जाते थे। कमल के पत्तों का फायदा यह था कि इनके लिए पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे। गांव के दो चार लड़कों को बोलकर इनका इंतजाम हो जाता था। वे छोटी सी नाव में जाकर ढेरों पत्ते एक से दो घंटे में तोड़ लाया करते थे।

“कहां पत्तों के चक्कर में पड़े हो, राम खिलावन की दुकान से प्लास्टिक की प्लेट और दोने मंगवा लो” शादी में आए उनके साले प्यारे लाल ने उनकी बात को काटते हुए कहा।

“नहीं प्यारे। बरातियों की तरफ से मांग की गई थी कि भोजन कमल के पत्तों और दोनों में ही कराया जाए। लड़के का मामा प्लास्टिक के इस्तेमाल के सख्त खिलाफ हैं। 15 दिन पहले जब वह यहां आए थे तो उन्होंने यह खास मांग रखी थी। उनका कहना था कि प्लास्टिक सेहत और पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इसे खाकर पशु मर जाते हैं और यह नष्ट भी नहीं होती। जबकि पत्ते प्राकृतिक होते हैं और आसानी से नष्ट भी हो जाते हैं। लड़के के मामा ने बताया था कि शहरों में प्लास्टिक खाकर बहुत सी गायें मर जाती हैं। नालियां और सीवर प्लास्टिक के कारण जाम हो जाते हैं। यही प्लास्टिक नदियों के रास्ते समुद्र में पहुंचकर समुद्री जीवों पर बुरा असर डालता है। इसी को देखते हुए दिल्ली और कुछ राज्यों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया है” मंगल प्रसाद ने प्यारे लाल को विस्तार के प्लास्टिक के खतरे बताते हुए कहा।

“बात तो ठीक कहते हैं लड़के के मामाजी” बात प्यारे लाल को भी समझ आ गई थी। वैसे प्यारेलाल को भी पंगत में बैठकर कमल के पत्तों पर भोजन करना अच्छा लगता था। जब पानी की बूंदें उस पर पड़ती हैं तो मोतियों की शक्ल अख्तियार कर लेती थीं और यहां वहां लुढ़क जाती थीं। प्यारे लाल को बूंदों का इस तरह नाचना काफी अच्छा लगता था। जीजा की बातें सुनकर प्यारे लाल भी अब अच्छी तरह समझ चुका था कि प्लास्टिक सेहत के लिए कितनी हानिकारक है। उसने उसी दिन प्लास्टिक की थालियों में भोजन न करने की कसम खा ली।

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