अपने हिस्से से कहीं ज्यादा संसाधनों का दोहन कर रहे हैं अमेरिका, चीन और यूरोप, सीमा में है भारत

पिछले 50 वर्षों में हमने तय सीमा से करीब 1.1 लाख करोड़ टन संसाधनों का ज्यादा दोहन किया है, जिसके करीब 27 फीसदी हिस्से के लिए केवल अकेला अमेरिका जिम्मेवार है

By Lalit Maurya

On: Wednesday 13 April 2022
 

क्या आप जानते हैं कि अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और यूरोप के कई देश अपने हिस्से से कहीं ज्यादा तेजी से जैविक और अजैविक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। हालांकि भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया और बांग्लादेश सहित 58 देश ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शाश्वत सीमा को पार नहीं किया है। यह जानकारी हाल ही में जर्नल लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में प्रकाशित अध्ययन में सामने आई है।

हमें बचपन से यह पढ़ाया जाता रहा है कि इस धरती पर मौजूद संसाधन सीमित हैं ऐसे में यदि हम उनका विवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो जल्द ही खत्म हो जाएंगे। पर शायद यह बात देशों के नीति-निर्माताओं को नहीं पता, जो पिछले कई दशकों में भी संसांधनों का उचित प्रबंधन करने में असमर्थ रहे हैं। 

यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो पिछली आधी सदी (1970 से 2017) में दुनिया के 160 देश करीब 2.5 लाख करोड़ टन संसाधनों का उपयोग कर चुके हैं, जिसमें जैविक और अजैविक दोनों तरह के संसाधन शामिल हैं। देखा जाए तो हमारी संसाधनों के उपयोग की जो शाश्वत सीमा थी वो केवल 2.06 लाख करोड़ टन ही थी।

आंकड़ों की मानें तो इन 50 वर्षों में हमने करीब 1.1 लाख करोड़ टन संसाधनों का तय सीमा से ज्यादा दोहन किया है, जोकि उपयोग किए गए कुल संसाधनों का करीब 44.4 फीसदी है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि वो कौन से देश हैं जो इन संसाधनों का दोहन अपनी तय सीमा से ज्यादा कर रहे हैं।

रिपोर्ट के अनुसार यदि संसाधनों के अनुचित उपयोग की बात की जाए तो उसके 74 फीसदी हिस्से के लिए केवल कुछ गिने-चुने अमीर साधन संपन्न देश जिम्मेवार हैं। वहीं इसके करीब 60 फीसदी हिस्से के लिए केवल पांच देश अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और फ्रांस जिम्मेवार हैं। इसके 27 फीसदी के लिए केवल अकेला अमेरिका जिम्मेवार है, जबकि चीन की हिस्सेदारी करीब 15.3 फीसदी है। वहीं 8.8 फीसदी के लिए जापान, 5 फीसदी के लिए जर्मनी और 3.5 फीसदी के लिए फ्रांस जिम्मेवार है।

यदि यूरोपियन यूनियन के 28 उच्च आय वाले देशों को देखें तो वो संसाधनों के कुल अनुचित उपयोग के करीब 25 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार हैं।

वहीं दूसरी तरफ ग्लोबल साउथ (यानी लैटिन अमेरिका एवं कैरिबियन, अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के निम्न और मध्यम-आय वाले देश इसके केवल 8 फीसदी के लिए जिम्मेवार हैं। देखा जाए तो इस अनुचित दोहन में जहां अमीर देश अजैविक सामग्री का उपयोग जरुरत से ज्यादा कर रहे हैं वहीं कमजोर देशों में बायोमास संसाधनों का दोहन जरुरत से ज्यादा हो रहा है।

किसी एक की नहीं, सबकी साझा धरोहर है प्रकृति

रिपोर्ट के मुताबिक इस बढ़ते पारिस्थितिक असंतुलन के लिए कहीं हद तक कुछ गिने चुने अमीर देश जिम्मेवार हैं, जिन्हें अपने संसाधनों के बढ़ते उपयोग को निष्पक्ष और शाश्वत स्तर तक कम करने की जरुरत है, क्योंकि उनकी इस करनी का बोझ उन कमजोर देशों पर पड़ रहा है जो पहले ही बीमारी, गरीबी, भुखमरी जैसी अनगिनत समस्याओं से जूझ रहे हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने संयुक्त राष्ट्र के इंटरनेशनल रिसोर्स पैनल द्वारा जारी आंकड़ों का विश्लेषण किया है। जिसमें इन 160 देशों द्वारा 1970 से 2017 के बीच अपने देश में जिन संसाधनों का दोहन किया है उसके साथ-साथ जीवाश्म ईंधन, लकड़ी, मेटल्स, मिनरल्स और बायोमास जैसे संसाधनों के वैश्विक व्यापार के प्रवाह सम्बन्धी आंकड़ों को विश्लेषण इसमें किया है।

यदि देशों की आबादी के आधार पर संसाधनों के दुरूपयोग को देखें तो गुयाना में यह प्रति व्यक्ति करीब 84.57 टन था, जबकि लक्समबर्ग में 77.76, कुवैत में 57.89 टन, सिंगापुर में 43.5, संयुक्त अरब अमीरात में 39.3, ऑस्ट्रेलिया में 29.2, अमेरिका में 23.5, जापान में 16.4, और चीन में करीब 7.4 टन प्रति व्यक्ति था। 

रिपोर्ट के मुताबिक देखा जाए तो प्रतिव्यक्ति होता संसाधनों का जरुरत से ज्यादा दोहन अमीर देशों में उनके निम्न-आय वाले समकक्षों की तुलना में काफी ज्यादा है।  उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया का प्रति व्यक्ति संसाधनों का तय सीमा से ज्यादा हो रहा दोहन चीन की तुलना में करीब चार गुना ज्यादा है, जबकि ब्राजील की तुलना में यह करीब सात गुना अधिक है।

यदि सिर्फ भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो भारत ने इन 50 वर्षों में संसाधनों का जितना दोहन किया है वो तय सीमा के भीतर ही है। देखा जाए तो भारत के लिए संसाधनों की शाश्वत सीमा 34,983 करोड़ टन आंकी गई है, जबकि उसने अब तक इस अवधि में केवल 14,585.6 करोड़ टन संसाधनों का ही उपयोग और दोहन किया है, जोकि उसकी तय सीमा के आधे से भी कम है।

इससे पहले भी यूनिवर्सिटी ऑफ लीडस के शोधकर्ताओं द्वारा खुलासा किया गया था कि पिछले 30 वर्षों में कोई देश ऐसा नहीं है जिसने प्रकृति को संकट में डाले बिना अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया हो। एक तरफ अमेरिका, यूके और कनाडा जैसे साधन संपन्न देश हैं जहां बसने वाले लोगों को सभी बुनियादी सुविधाएं तो प्राप्त है पर उन्होंने अपने और प्रकृति के बीच सामंजस्य की जो सीमा है, उसे पार कर लिया है।

जबकि दूसरी तरफ भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालावी जैसे देश हैं, जिन्होंने इस सीमा की मर्यादा को तो बनाए रखा है पर वो अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतों जैसे स्वास्थ्य, स्वच्छता, शिक्षा, समानता, ऊर्जा, रोजगार, गरीबी और जीवन संतुष्टि को हासिल करने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं।

मानव जाति को बचाने के लिए बंद करना होगा यह खेल

यदि संपन्न देशों की बात करें तो इन देशों के पास पर्याप्त सुख-सुविधाएं और उन्हें पूरा करने के साधन मौजूद हैं, इसके बावजूद उन्होंने अपने हिस्से से कहीं ज्यादा संसाधनों का दोहन किया है। जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक संपन्न देशों को अपने संसाधनों के बढ़ते उपयोग में तेजी से कटौती करने की जरुरत है। औसतन संसाधनों के उपयोग को शाश्वत सीमा में लाने के लिए संसाधनों के औसत उपयोग में कम से कम 70 फीसदी की कटौती करने की जरुरत है। इसके लिए ठोस नीतियों की जरुरत होगी।    

हमें यह समझना होगा कि यह धरती और उसपर मौजूद संसाधन किसी एक के नहीं बल्कि सभी की साझा धरोहर हैं। जिसपर न केवल हमारा बल्कि हमारे आनेवाली नस्लों का भी हक है। साधन संपन्न देशों को चाहिए की वो संसाधनों की अपनी बढ़ती खपत में कमी करें, जबकि कमजोर देशों को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं ज्यादा प्रयास करने होंगे।

देखा जाए तो न केवल विकसित देशों बल्कि विकासशील देशों में भी हमारी मौजूदा आर्थिक प्रणाली लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जगह कुछ रसूकदार लोगों और कॉर्पोरेट के हितों को साधने के लिए कहीं ज्यादा संसाधनों का दोहन कर रही है। जिसमें तत्काल बदलाव करने की जरुरत है।      

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