अफगानिस्तान में महिला शिक्षाविदों का भविष्य अंधकारमय

अधिकांश विश्वविद्यालय में शोधकार्य रूके हुए हैं, सरकार का कहना है कि धन नहीं है। बड़ी संख्या में महिला शिक्षाविदों का पलायन जारी है। 

By Anil Ashwani Sharma

On: Tuesday 07 June 2022
 

तालिबान के शासन के लगभग एक साल बाद अफगानिस्तान में शिक्षाविदों के लिए जीवन असहनीय होता जा रहा है। यह महिला विद्वानों और छात्रों के लिए तो और भी बदतर हो गया है। अफगानिस्तान में महिला शिक्षाविदों व छात्रों का कहना है कि पिछले एक साल में भेदभाव बहुत अधिक बढ़ गया है। कहा जाता है कि किसी भी समाज के विकास के लिए महिला की शिक्षा सर्वोत्म होती हैं। क्योंकि कहावत है कि एक महिला के शिक्षित होने से पूरा परिवार शिक्षित होता है और पुरुष के शिक्षित होने से अकेले वही शिक्षित होता है। ऐसे में तालिबानी शासन में महिला शिक्षाविदों की हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। पहले तो उनके पहनावे पर हमला हुआ, फिर वे किसी पुरुष को पढ़ा नहीं सकतीं और उनके साथ कक्षा शेयर नहीं कर सकती हैं। उनके वेतन में भी एक तिहाई कटौती की गई है। यही नहीं कटा हुआ वेतन भी समय पर नहीं मिलता। अक्सर दो से तीन माह में एक बार वेतन मिल  पा रहा है। उनके शाोधकार्य के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है।  

पिछले अगस्त में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से देश मानवीय संकट में फंस गया है। बहुत से अफगानों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है। साथ ही अब भी तालिबान और प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच संघर्ष जारी है और संक्रामक रोगों का प्रकोप व्यापक है। इन चुनौतियों के बीच देश के विश्वविद्यालयों के पास शोधकार्य के लिए धन नहीं है और धीरे-धीरे उनके वेतन भी कम होते जा रहे हैं। ऐसे में देश में शैक्षणिक स्वतंत्रता का ह्वास तेजी हो रहा है।

महिला शिक्षाविदों व शिक्षिकाओं के लिए तालिबान के अधीन जीवन का अर्थ है कि अधिकांश को उनके बनाए नियम से ही कपड़े पहनने चाहिए। और महिला छात्र, पुरुषों के साथ कक्षाओं में शामिल नहीं हो सकती हैं। काबुल विश्वविद्यालय की एक छात्रा और चिकित्सा शोधकर्ता ने अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर को नाम न छापने का अनुरोध करते हुए बताया कि तालिबान ने महिलाओं की स्थिति को बद से बदतर बना रहा है। अफगानिस्तान के अंदर और बाहर एक दर्जन से अधिक महिला शिक्षाविदेां बात की गई। बातचीत में शामिल अधिकांश ने नाम न छापने की मांग की। उनका कहना है कि अधिकारियों की आलोचना करने से उन्हें, उनके परिवार और उनके करियर को बड़ा संकट का सामाना करना पड़ सकता है।

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों में काम करने वाली अधिकांश महिला शिक्षाविद देश छोड़ चुकी हैं और जो पीछे रह गई हैं। वे भी किसी न किसी कई बाहर निकलने का रास्ता तलाश रही हैं। ऐसी बच गई शिक्षाविदों का कहना है कि पिछली सरकार में भले ही हमें भेदभाव और भ्रष्टाचार सहित बहुत सारी समस्याएं थीं, कम से कम हमें उम्मीद तो थी कि सब कुछ बेहतर हो जाएगा।

कई महीनों के बंद रहने के बाद देश में विश्वविद्यालय फरवरी और मार्च में फिर से खुल गए लेकिन कई शर्तों को थोप दिया गया। तालिबान ने विश्वविद्यालयों के प्रबंधन को संभालने के लिए अपने कट्टरपंथी प्रतिनिधियों को नियुक्त किया। शोधकर्ताओं का कहना है कि बीते 5 मई को देश के उच्च शिक्षा मंत्री ने इन प्रतिनिधियों को नए नियमों पर सवाल उठाने वाले विश्वविद्यालय किसी भी महिला शिक्षाविद या शिक्षिकाओं पर रिपोर्ट करने का आदेश जारी किया। नेचर से बातचीत के दौरान पूर्व अफगान के एक प्रांतीय सरकारी सलाहकार (जो अब पोलैंड में स्थित है ) रामिन मंसूरी कहते हैं कि वास्तव में काबुल विश्वविद्यालय में अकादमिक स्वतंत्रता बहुत कुछ पिंजरे में बंद होने जैसा ही है।

शोधकर्ताओं को अपना अधिकांश समय अध्यापन में लगाना पड़ता है क्योंकि विश्व विद्यालय के पास शोध कार्य के लिए पैसा नहीं है। कई शोधकर्ता यह भी कहते हैं कि उनके वेतन में एक तिहाई से अधिक की कटौती की गई है और हमेशा समय पर भुगतान नहीं किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से आना वाला अनुसंधान फंड भी कम हो गया है। ऐसे हालात में शिक्षाविदों का तेजी से पलायन हो रहा है। और इसका नतीजा यह हो रहा है कि जो विश्व विद्यालय में बच गए हैं उनक ऊपर एक अतिरिक्त बोझ डाल दिया गया है।

इटली के ट्राइस्टे में अब्दुस सलाम इंटरनेशनल सेंटर फॉर थियोरेटिकल में भौतिक विज्ञानी बक्ताश अमिनी कहती हैं कि मेरे सहयोगी पहले से कहीं अधिक पढ़ा रहे हैं। तालिबान के सत्ता पर अधिकार जमा लेने तक अमिनी स्वयं काबुल विश्वविद्यालय में व्याख्याता थीं। उनका कहना है कि यूनिवर्सिटी के फिजिक्स फैकल्टी के 17 में से करीब 7 लेक्चरर देश छोड़कर जा चुके हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार तालिबान के कार्यभार संभालने से पहले की तुलना में वर्तमान शैक्षणिक संस्थानों में बीस से चालीस प्रतिशत कम कर्मचारी हैं।

पिछले दिनों उच्च शिक्षा मंत्री को यह कहते हुए पाया गया कि आज के अफगानिस्तान में पीएचडी और मास्टर डिग्री का महत्व नहीं है। अमीनी कहती हैं कि जब मैंने यह सुना तो मैं बहुत निराश हो गई।

भेदभाव के कारण शैक्षणिक सप्ताह को विभाजित किया गया है ताकि पुरुष और महिला छात्रों को तीन-तीन दिनों के लिए अलग-अलग पढ़ाया जा सके। ऐसे में पहले से ही महिला शिक्षिकों की कमी से जूझ रहे विश्व विद्यालय के लिए लड़के-लड़की के लिए अलग-अलग से पढ़ाना और दुश्वार हो जाएगा। शिक्षाविदों का कहना है कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता और कम हो जाएगी। यही नहीं नई शासन व्यवस्था ने कुछ विषयों को महिला छात्रों के लिए बंद ही कर दिया गया है। पिछली सरकार में भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता था लेकिन तालिबान के आने से यह भेदभाव और अधिक बढ़ गया है। देश के कई अल्पसंख्यक जातीय समूहों से संबंधित महिलाओं का कहना है कि उन्हें सताया गया और उन्हें बिना किसी वैध कारण के निकाल दिया गया। ऐसे ही एक यहां जाने वाली शिक्षाविद कहती हैं कि अनुसंधान अब प्राथमिकता में नहीं है।

हजारों महिला शिक्षाविद पड़ोसी ईरान और पाकिस्तान चले गए हैं और उन संगठनों में आवेदन किया है जो शिक्षाविदों को अन्य देशों में पद खोजने में मदद करते हैं। लेकिन इनमें से तीन एजेंसियों स्कॉलर्स एट रिस्क (एसएआर), इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन के स्कॉलर रेस्क्यू फंड और काउंसिल फॉर एट-रिस्क एकेडमिक्स (कारा) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार आवेदन करने वाले दस प्रतिशत से भी कम लोग सफल हो पाए हैं। न्यूयॉर्क शहर में एसएआर के एक निदेशक रोज एंडरसन कहते हैं कि कई अफगान शिक्षाविदों के लिए वीजा की प्रतीक्षा करना जैसे जिंदकी की सबसे बड़ी जंग जीतने जैसी चुनौती बन गई है।

इस संबंध में न्यूयॉर्क शहर में स्कॉलर रेस्क्यू फंड के निदेशक जेम्स किंग कहते हैं कि यहां के कई उच्च-शिक्षण संस्थान अफगान महिला शिक्षाविदों की मेजबानी के लिए उत्सुक हैं, लेकिन यूक्रेन संकट ने पहले से ही सीमित संसाधनों और क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लंदन में कारा के कार्यकारी निदेशक स्टीफन वर्ड्सवर्थ का कहना है कि संस्थान यूक्रेनी शिक्षाविदों के लिए नए प्लेसमेंट की कोशिश कर रहे है लेकिन एक साथ दो संकटों ने विश्वविद्यालय और अनुसंधान क्षेत्रों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। आईसीटीपी के भौतिक विज्ञानी जैनब नजरी कहती हैं (जो मूल रूप से अफगानिस्तान से हैं) वह देश में आधा दर्जन से अधिक महिला शिक्षाविदों और और छात्राओं से बात कर चुकी हैं और अधिकांश लोग इस स्थिति से बहुत निराश हैं, उनकी उम्मीद की किरण अब टूटने वाली है।

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