कितना सही है समुद्र और वेटलैंड्स को पाट कर जमीन में किया जा रहा विस्तार

हम इंसानों ने इस सदी में समुद्रों या तटीय वेटलैंड्स को भरकर भूमि में करीब 253,000 हेक्टेयर का विस्तार किया है

By Lalit Maurya

On: Monday 13 February 2023
 
चीनी शहर शंघाई ने तेजी से तटीय क्षेत्रों का विस्तार किया है। फोटो: नासा अर्थ ऑब्जर्वेटरी, दिसंबर 2019

जैसे-जैसे इंसानी आबादी और उसकी जरूरतें बढ़ रही है उसके लिए मौजूदा जमीन छोटी पड़ती जा रही है। इस कमी को भरने के लिए आज इंसान तेजी से शहरों के पास समुद्र को पाट कर तटीय क्षेत्रों का विस्तार करने में लगा हुआ है। इसके लिए मनुष्य तटरेखाओं पर औद्योगिक बंदरगाहों का निर्माण कर रहा है।

लेकिन समुद्रों और उसके किनारे वेटलैंड्स को कृत्रिम रूप से रेत आदि सामग्री से भरकर किया गया यह विस्तार, पर्यावरण के दृष्टिकोण से कितना सही है, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। इस पर साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय और ईस्ट चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि 2000 के बाद से डेवलपर्स ने प्रमुख शहरों में 2,530 वर्ग किलोमीटर (253,000 हेक्टेयर) से अधिक क्षेत्र पर तटीय भूमि का विस्तार किया है। देखा जाए तो यह क्षेत्र आकार में लक्समबर्ग के बराबर है।

इस अध्ययन से जुड़े नतीजे जर्नल इस अध्ययन से जुड़े नतीजे जर्नल अर्थ फ्यूचर में प्रकाशित हुए हैं। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 135 शहरों के भू क्षेत्रों में आए बदलावों का विश्लेषण किया है। इन शहरों की आबादी 10 लाख से ज्यादा थी। इस विश्लेषण के लिए वैज्ञानिकों ने 2000 से 2020 के बीच उपग्रह से प्राप्त इमेजरी का उपयोग किया है।

पता चला है कि इनमें से 78 फीसदी यानी 106 शहरों में समुद्रों को भरकर अपने तटीयों क्षेत्रों में विस्तार किया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह पहला अध्ययन है जो तटीय भूमि में विस्तार का वैश्विक मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।

सिर्फ जरूरत ही नहीं प्रतिष्ठा के लिए भी किया जा रहा रिक्लेमेशन

शोधकर्ताओं का कहना है कि तटीय भूमि के इस विस्तार के लिए केवल जनसंख्या में होती वृद्धि ही जिम्मेवार नहीं है। उनके अनुसार यह ने केवल उन शहरों में जारी रहेगा, जो शहरी विकास का अनुभव कर रहे हैं बल्कि साथ ही जो शहर अपनी प्रतिष्ठा और राजस्व में वृद्धि को लेकर उत्सुक हैं यह उन शहरों में भी जारी रहेगा।

शोध से पता चला है कि जहां पिछली सदी में इस मामले में उत्तर का वर्चस्व था, वहीं अब तटीय भूमि में होता यह सुधार ग्लोबल साउथ में आम होता जा रहा है। जहां इस क्षेत्र में कई अर्थव्यवस्थाएं तेजी से विकसित हो रही हैं। 

अध्ययन से पता चला है कि चीन, इंडोनेशिया और संयुक्त अरब अमीरात ने इस मामले में सबसे ज्यादा भूमि विस्तार किया है। इन देशों में बंदरगाहों का होता  विस्तार, विकास का सबसे आम कारण है। अकेले शंघाई ने करीब 350 वर्ग किलोमीटर भूमि का विस्तार किया है। वहीं तुलनात्मक रूप से अमेरिका में केवल लॉस एंजिल्स  में पिछले 20 वर्षों में 0.29 वर्ग किलोमीटर भूमि क्षेत्र के विकास के रूप में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में भौतिक भूगोलवेत्ता धृतिराज सेनगुप्ता और उनके सहयोगियों ने पाया कि जहां औद्योगीकरण और शहरी विकास की आवश्यकता ने तटीय भूमि के बहुत अधिक विस्तार को प्रेरित किया है, जबकि इन विस्तार परियोजनाओं का एक छोटा हिस्सा "प्रतिष्ठा" के लिए भी किया जा रहा है, जैसे कि समुद्र को पाट कर दुबई में ताड़ के पेड़ के आकार के द्वीप का निर्माण किया गया है।

पर्यावरण पर पड़ रहा कभी न भर सकने वाला प्रभाव

पता चला है कि तटीय भूमि का करीब 70 फीसदी विस्तार निचले इलाकों में किया गया है, जिनकी सदी के अंत तक समुद्र के जलस्तर में होती वृद्धि के संपर्क में आने की संभावना है। ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि इन परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव और इनके तटीय बाढ़ के संपर्क में आने की सम्भावना दोनों ही इस बात की ओर इशारा हैं कि यह परियोजनाएं शाश्वत नहीं हैं, लेकिन इसके बावजूद उनका मानना है कि शहरों में इनका निर्माण जारी रहेगा।

रिपोर्ट के मुताबिक भूमि में यह विस्तार आम तौर पर समुद्र में तलछट जमा करके किया जाता है।  इसके साथ ही इन संरचनाओं को समुद्र में सीमेंट की दीवारों, और संरचनाओं में तलछट या सीमेंट भरने और तट के पास मौजूद वेटलैंड्स और अन्य जल स्रोतों को भरकर बनाया जाता है। इसके लिए विशाल मात्रा में तलछट की आवश्यकता होती है साथ ही इससे वहां के पारिस्थितिक तंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।

इस मामले में सेनगुप्ता और उनके सहयोगियों का कहना है कि इस विस्तार से पारिस्थितिकी बहुत ज्यादा प्रभावित होती है। लैंड रिक्लेमेशन एक विशाल सिविल इंजीनियरिंग परियोजना है जो मूल रूप से उस स्थान की विशेषताओं को बदल देती है। तटीय आर्द्रभूमि इससे गंभीर रूप से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए येलो सी में रिक्लेमेशन के कारण आधे से अधिक ज्वारीय फ्लैट खत्म हो गए हैं।

ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि भूमि का यह विस्तार उन क्षेत्रों में सही है जहां इसकी आवश्यकता है, लेकिन इसे जिम्मदार तरीके से करना होगा। यह सोचना जरूरी है कि क्या वास्तव में इसकी आवश्यकता है। उनके अनुसार यह परियोजनाएं दुनिया के समुद्री तटों का एक छोटा सा हिस्सा बनाती हैं और अक्सर उन तटों पर पहले ही शहरीकरण हो चुका होता है।

पर्यावरण पर इसके अन्य प्रभाव भी पड़ते हैं इनमें प्रदूषण, तलछट के पैटर्न पर पड़ने वाला प्रभाव, और जीवमंडल में बदलाव शामिल हैं। यह बदलाव मछली पकड़ने और पर्यटन आदि को प्रभावित कर सकते हैं। साथ ही इस नई तटरेखा तक पहुंच में व्याप्त असमानता लोगों के बीच की खाई को बढ़ा सकती है।

इस रिक्लेमेशन का केवल इन क्षेत्रों पर ही नहीं बल्कि दूर स्थित पारिस्थितिक तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है, जहां से रेत और बजरी जैसी भराव सामग्री का खनन किया जाता है। सेनगुप्ता का कहना है कि जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर रेत की कमी हो रही है, निर्माण कंपनियां समुद्र तल से रेत और मिट्टी का उत्खनन कर रही हैं, जो समुद्र तल पर भी पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट कर देती है।

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