जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या सच में जरूरी है?

केंद्र सरकार देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करनी चाहती है। डाउन टू अर्थ ने इस मुद्दे का व्यापक विश्लेषण किया। प्रस्तुत है पहली रिपोर्ट

By Kundan Pandey

On: Thursday 05 March 2020
 
Photo: CSE

करीब चार दशक पहले राजनीतिक बैठकों, टीवी की चर्चाओं और चाय की दुकानों पर बातचीत का मुख्य मुद्दा बढ़ती हुई आबादी होती थी। पिछले साल के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में “जनसंख्या विस्फोट” शब्द का इस्तेमाल कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बहस को वापस सुर्खियों में ला दिया। 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान जबरदस्ती कराए गए परिवार नियोजन के विनाशकारी अनुभव के बाद राजनेताओं द्वारा इस शब्द का उपयोग न के बराबर किया। तब से जनसंख्या नियंत्रण राजनैतिक रूप से अछूता रहा। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बहस को नए आयाम पर पहुंचा दिया है। उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण को देशभक्ति के बराबर बताया। उन्होंने कहा, “समाज का वह लघु वर्ग, जो अपने परिवारों को छोटा रखता है, सम्मान का हकदार है। वह जो कर रहा है वह देशभक्ति का कार्य है।”

पिछले कुछ वक्त से कई राजनेता मुखर होकर जनसंख्या नियंत्रण की बहस को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। यह अधिक उपभोग के कारण जनसांख्यिकीय आपदा और प्राकृतिक संसाधनों के पूरी तरह से खत्म हो जाने के गहरे भय के आवेग में बदल चुका है। सामूहिक विनाश और एंथ्रोपोसीन के इस छठे युग में भारत अपनी जनसंख्या नीति और पर्यावरणीय गिरावट के बारे में एक ही सांस में बात कर रहा है।

भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को मानने वाले राकेश सिन्हा ने जुलाई 2019 में जनसंख्या विनियमन विधेयक को एक निजी विधेयक के रूप में पेश किया। सिन्हा का कहना है कि “जनसंख्या विस्फोट” भारत के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन के आधार को अपरिवर्तनीय रूप से प्रभावित करेगा और अगली पीढ़ी के अधिकारों और प्रगति को सीमित कर देगा। यह विधेयक प्रस्तावित करता है कि सरकारी कर्मचारियों को दो से अधिक बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए और वैसे गरीब लोग जिनके दो से अधिक बच्चे हैं, उन्हें सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर देने का सुझाव देता है।

सिन्हा दावा करते हैं, “विपक्षी नेताओं ने भी मेरे इस प्रयास की निजी तौर पर सराहना की है।” पिछले साल सितंबर में कांग्रेस के राजनेता जितिन प्रसाद ने भी जनसंख्या वृद्धि की जांच के लिए एक कानून बनाने की मांग की थी। सिन्हा के विधेयक पेश करने से पहले ही, पिछले साल मई में, दिल्ली बीजेपी के एक नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें जनसंख्या नियंत्रण के लिए कड़े कानून की मांग की गई थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले को खारिज कर दिया था। अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास है।

2018 में लगभग 125 सांसदों ने राष्ट्रपति से भारत में दो बच्चों की नीति लागू करने का आग्रह किया था। 2016 में बीजेपी सांसद प्रह्लाद सिंह पटेल ने भी जनसंख्या नियंत्रण पर एक निजी सदस्य बिल पेश किया था। हालांकि यह अधिकतर निजी विधेयकों की तरह मतदान के चरण तक नहीं पहुंच सका। 2015 में गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ ने एक ऑनलाइन पोल आयोजित कर पूछा था कि क्या मोदी सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई नीति बनानी चाहिए। आदित्यनाथ अब देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। आजादी के बाद से ऐसे 35 बिल विभिन्न दलों के सांसद पेश कर चुके हैं, जिनमें 15 कांग्रेस के सांसदों की ओर से पेश किए गए हैं। लेकिन, देश के लिए अपने नागरिकों के परिवार के आकार को विनियमित करने के लिए एक केंद्रीय कानून बना पाना संभव नहीं है। 1994 में जब भारत ने जनसंख्या और विकास की घोषणा पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में हस्ताक्षर किया था, तो उसमें परिवार के आकार और दो प्रसव के बीच के समय के निर्धारण के बारे में निर्णय लेने का अधिकार दंपती को दिया था। इस लिहाज से ये निजी विधेयक जनसंख्या कम करने पर नियम बनाने की आवश्यकता पर बल देने का महज एक तरीका भर हैं।

जनसंख्या नियंत्रण के लिए या छोटे परिवारों को प्रोत्साहित करने के लिए कई राज्यों ने पहले से ही दंडात्मक प्रावधान लागू कर रखे हैं। मोदी के भाषण के तुरंत बाद बीजेपी के नेतृत्व वाली असम सरकार ने दो साल से अधिक समय पहले पारित असम जनसंख्या और महिला सशक्तिकरण नीति को लागू करने का फैसला किया। इसके तहत, “जनवरी 2021 से असम में दो से अधिक बच्चे वाला कोई भी व्यक्ति सरकारी नौकरी के लिए पात्र नहीं होगा।” 12 राज्यों में ऐसे ही प्रावधान लागू हैं जो दो-बाल नीति की शर्तों को पूरा न कर पाने की स्थिति में योग्यता व अधिकार से जुड़े प्रतिबंध लगाते हैं। इन प्रतिबंधों में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव लड़ने से लोगों पर रोक लगाना भी शामिल है।

एक ऐसे देश में जनसंख्या पर बहस अपरिहार्य है जो वर्तमान में सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन को पीछे छोड़ने वाला है। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के अनुमान के अनुसार, भारत की जनसंख्या 2030 तक 1.5 बिलियन और 2050 में 1.64 बिलियन तक पहुंच जाएगी। वहीं चीन की आबादी का 2030 तक 1.46 बिलियन तक जाने के अनुमान हैं। वर्तमान में, दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी भारत में वैश्विक सतह क्षेत्र के केवल 2.45 प्रतिशत और जल संसाधनों के 4 प्रतिशत हिस्से के साथ निवास करती है।

पारिस्थितिकी तंत्र के हाल में हुए आकलनों ने अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने और संसाधनों की हो रही कमी में मानव आबादी की भूमिका को इंगित किया है, जिसके बाद वैश्विक स्तर पर भी जनसंख्या विस्फोट को लेकर बहस छिड़ गई है। जीवविज्ञानी ईओ विल्सन ने एक भयावह अनुमान जताया है, जिसके हिसाब से हर घंटे तीन प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच रही हैं। हमारे ग्रह की प्राकृतिक कार्यप्रणाली के तहत विलुप्ति की दर दस लाख प्रजातियों में से प्रति वर्ष एक प्रजाति है। अब यह साबित हो चुका है कि मनुष्य ही छठे सामूहिक विनाश का प्रमुख कारक है। इसीलिए वैज्ञानिक होलोसीन नाम के इस वर्तमान भूगर्भीय काल के अंत और एन्थ्रोपोसीन युग, जिसकी विशेषता इस ग्रह पर मनुष्य का प्रभाव है, के आगमन की घोषणा करने के करीब आ गए हैं।

आगे पढ़ें : जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या आबादी वाकई विस्फोट के कगार पर है?

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