चमोली : विद्युत प्रदेश का ख्वाब और तबाही

उत्तराखंड को आखिर विद्ययुत प्रदेश बनने का ख्वाब आया था। तब से अब तक अदालतों और सरकारों के बीच खींचतान जारी है लेकिन पनबिजली परियोजनाओं के बांधों का बनना नहीं खत्म हुआ। 

By Vivek Mishra

On: Friday 12 March 2021
 

वर्ष 2000 में उत्तराखंड जब एक अलग राज्य बना तो उसने खुद को 'विद्युत प्रदेश' बनाने का ख्वाब देखा था। यह स्वप्न इसलिए भी पैदा हुआ क्योंकि उसका पड़ोसी राज्य हिमाचल देश भर में सबसे ज्यादा पनबिजली पैदा करने वाला राज्य था। उत्तराखंड ने अपने आर्थिक प्रगति के पहिए को भी पनबिजली के सहारे ही घुमाने की रणनीति बनाई। राज्य ने पनबिजली परियोजनाओं को न सिर्फ राजस्व का जरिया बनाना चाहा बल्कि रोजगार सृजन का रास्ता भी इसी क्षेत्र में खोजने की कोशिश की। और ऐसा करने के लिए उसके पास संसाधन भी थे।

पनबिजली क्षमता के मामले में उत्तराखंड देश में अरुणाचल प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है। इसी के बलबूते राज्य में करीब 450 बांधों (डैम) के एक बड़े अंतर्जाल की योजना बनाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट की गठित समिति रिपोर्ट के मुताबिक 2013 तक राज्य के पास 7,020 मेगावाट की संयुक्त क्षमता वाली 45 बड़े और छोटी पनबिजली परियोजनाएं (एक मेगावॉट से ज्यादा) थीं। इनमें 4,404 मेगावॉट वाली कुल 23 बड़ी और छोटी परियोजनाएं निर्माणाधीन थीं। साथ ही 2,616 मेगावॉट क्षमता वाली 22 बड़ी और छोटी परियोजनाएं चलाई जा रही थीं। इनमें से एक भी परियोजना को वन एवं पर्यावरण मंजूरी के आधार पर खारिज नहीं किया गया था। 

कुल 45 बांधों में 25 मेगावॉट से अधिक क्षमता वाले 30 डैम या तो अलकनंदा में हैं या फिर भागीरथी घाटी में मौजूद हैं। वहीं, सरकार ने गंगोत्री से उत्तरकाशी तक गंगा की एकमात्र बची स्वच्छ धारा पर एक के बाद एक बंपर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट लगाने के प्रस्ताव की लड़ी लगा दी। इनमें लोहारिंगा पाला, पाला मनेरी, भैरो घाटी प्रमुख हैं। 

हालांकि, शायद उत्तराखंड के विद्युत प्रदेश बनने का यह विचार वहां की जनता को ऊर्जावन्वित नहीं कर पाया है। मई, 2017 में  निर्माण गतिविधि और नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) के लोहरिंगा पाला डैम में ब्लास्ट होने के कारण उत्तरकाशी के सलांग गांव में भी लोगों के घर दरक गए थे।  बुक्की और पाला गांव के पास पाने के सोते सूख गए थे। ठीक इसी तरह की समस्याएं टेहरी और मानेली भाली -2 परियोजना के पास मौजूद गांव वालों ने भी झेली। वहीं, बांधों के विरुद्ध आंदोलन तेज हो गए। 

लोहारिंगा पाला बांध के निर्माण को 2008 में रोक दिया गया था हालांकि, 2009 में मंत्रियों के समूह (जीओएम) इसे जिंदा करने का निर्णय लिया। नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) की इस परियोजना को फिर से शुरु कर दिया गया, हालांकि 2010 में लोगों के विरोध के चलते इस परियोजना को बंद करना पड़ा। सिर्फ आम लोगों का ही विरोध नहीं बल्कि कई सरकारी रिपोर्ट्स में यह बात सामने आई कि परियोजनाओं के चलते हिमालयी पारिस्थितिकी को काफी नुकसान हो रहा है। 

सीएजी (उत्तराखंड) ने 2010 में अपनी रिपोर्ट में चार से पांच पनबिजली परियोजनाओं का आकलन कर  कहा था कि निचले क्षेत्रों में नदी के इलाके सूख गए हैं जो कि भू-जल में रहने वाले जलीय जीवों और पारिस्थितिकी के लिए खतरनाक है।

जलविद्युत परियोजनाओं के कारण गंगा और उसकी सहायक नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पूर्व ब्यूरोक्रेट बीके चतुर्वेदी के अधीन एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने मार्च 2013 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में कहा गया कि यह गौर किया गया है कि सभी जलविद्युत परियोजनाएं 81 फीसदी भागीरथी और 65 फीसदी अलकनंदा को प्रभावित करेंगी। इन परियोजनाओं के बीच की दूरी भी बहुत कम है जिससे नदी को स्वयं के पुनरुद्धार की जगह नहीं मिलेगी। हालांकि डैम का काम जारी रहा और 2013 की भीषण त्रासदी उत्तराखंड में हुई।

 वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट की समिति, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट (एनआईडीएम), केंद्रीय गृह मंत्रालय औऱ 2016 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में व 2016 में संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट्स में पाया कि जलविद्युत परियोजना बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाने वाले हैं।   

 वहीं, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 24 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी। हालांकि, 2019 में सरकार ने कहा कि गंगा और उसकी सहायक नदियों पर कोई नई जल विद्युत परियोजना नहीं बनाई जाएगी। 13 परियोजनाओं की पहचान की गई है जिनमें 7 परियोजनाओं का काम 50 फीसदी से ज्यादा पूरा हो चुका था। वित्तीय नफा-नुकसान पर बिठाए जाने वाली परियोजनाओं पर त्रासदी की चेतावनी साफ-साफ लिखी है लेकिन सरकारें शायद इसे पढ़ना नहीं चाहतीं।

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