किसके फायदे के लिए हो रहा है पर्यावरण नियमों में बदलाव?
पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) 2020 अधिसूचना: क्या आपदा पूंजीवाद के दौर में अपने पर्यावरण को बचाने के लिए जनता संघर्ष करेगी?
On: Wednesday 01 July 2020


बीते 7 मई को विशाखापत्तनम में एलजी पॉलिमर प्लांट में स्टाइरीन गैस के रिसाव के कारण 14 लोगों और लगभग 22 पशुओं की मौत हुई, 400 से ज्यादा लोगों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। फैक्ट्री से 1.5 से 3 किलोमीटर की परिधि में रह रहे 2000 से अधिक लोगों को अपनी जगह खाली करनी पड़ी। शुरू में यह कहा गया कि लगभग 40 दिनों के लॉकडाउन के बाद अचानक संयंत्र को चालू करने से मशीन के निचले और ऊपरी हिस्से के तापमान में अंतर के कारण जहरीली भाप बनी, जिससे दुर्घटना की स्थितियाँ पैदा हुई।
बाद में दुर्घटना के कारणों पर और तफसील से छानबीन करने पर पता चला कि एलजी पोलीमर्स बिना पर्यावरण मंजूरी के, मात्र आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड द्वारा दी गयी ‘फास्ट ट्रैक’ सहमति के आधार पर ही काम कर रही थी। पर्यावरण मंजूरी की कमी के कारण एलजी पॉलीमर प्लांट के प्रबंधन में तमाम अनियमितताएँ रही, जो दुर्घटना का कारक बनी।
लॉकडाउन के ही दौरान केंद्र सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) अधिसूचना प्रस्तावित की है। नया मसौदा फिलहाल सार्वजनिक टिप्पणियों के चरण में है। उक्त मसौदा लागू किए जाने की स्थिति में पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना, 2006 पर प्रभावी होगा।
जाहिर है, केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित अधिसूचना जरूरी हस्तक्षेप की दरकार रखती है ताकि पर्यावरणीय सुरक्षा के मानदंडों की मजबूती को सुनिश्चित किया जा सके और विशाखापत्तनम या भोपाल गैस त्रासदी जैसी औद्योगिक दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचा जा सके।
नई अधिसूचना को हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा कोयले की कमर्शियल माइनिंग के आलोक में भी देखा-समझा जा सकता है। ऐसा लगता है कि औद्योगिक निवेश के लिए किसी भी कीमत पर तत्पर वर्तमान सरकार ने मानवाधिकारों से लेकर पर्यावरण सुरक्षा संबंधी सभी मानदंडों को पूरी तरह से अनदेखा करने का मन बना लिया है।
कुल 83 पृष्ठों की नई अधिसूचना अपनी प्रस्तावना के आरंभिक 2 पृष्ठों में ‘पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता’, ‘पर्यावरण सुरक्षा उपायों को साकार करने में मदद’ के लिए ‘पारदर्शिता’, ‘पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी’ जैसे मानदंडों पर शुरुआती जोर देती दिखती है। जैसा कि पिछले कुछ सालों में स्पष्ट होता गया है – ये शब्द ‘जुमलापरक राजनीति’ की अगली कड़ी से अधिक और कुछ नहीं।
नई अधिसूचना के कुछ महत्वपूर्ण पहलू
परियोजनाओं को उनके आकार, क्षमता के आधार पर श्रेणियों – ‘ए’, ‘बी-1’ और ‘बी-2’ में बांट दिया गया है। जहां श्रेणियों ‘ए’ और ‘बी-1’ की परियोजनाओं के लिए पूर्व पर्यावरण मंजूरी (क्लियरेंस) क्रमश: केंद्र और राज्य सरकारों से लेनी होगी; वहीं श्रेणी बी 2 की परियोजनाओं के लिए राज्य सरकारों से मात्र पर्यावरणीय अनुमति (पर्मिशन) के आधार पर ही काम चलाया जा सकता है।
यहां मंजूरी (क्लियरेंस) और अनुमति (परमिशन) के बीच का फर्क वही है, जो विशाखापटनम के केस में पर्यावरण प्रभाव आंकलन और आंध्र प्रदेश प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के फास्ट ट्रैक प्रक्रिया में था। पर्यावरण अनुमति (परमिशन) महज एक कागजी कार्रवाई होगी, जिसके लिए मूल्यांकन समिति के सामने पेश किए जाने जैसी कोई बाध्यता नहीं होगी।
साथ ही श्रेणी ‘बी-2’ की परियोजनाओं और ‘बी-1’ की कुछ परियोजनाओं को सार्वजनिक परामर्श (पब्लिक कन्सल्टेशन) की प्रक्रिया की ज़रूरत नहीं होगी। इसके साथ ही अधिसूचना में सार्वजनिक परामर्श की कुल अवधि भी घटा दी गयी है।
पूर्व पर्यावरण मंजूरी, सार्वजनिक परामर्श जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं से जिन परियोजनाओं को छूट मिली हुई है, वे हैं – रासायनिक विनिर्माण और पेट्रोलियम उत्पाद, सिंचाई, भवन निर्माण, अंतर्देशीय जलमार्ग, क्षेत्र के नवीनीकरण, राष्ट्रीय राजमार्गों का विस्तार या निर्माण, राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा से संबन्धित सभी परियोजनाएं और अन्य।
गौरतलब है कि एलजी पॉलीमर की फ़ैक्ट्री ‘पेट्रोलियम उत्पाद’ की श्रेणी में ही आती है जहां हाल ही में दुर्घटना हुई और जिसका प्रमुख कारण ‘पूर्व पर्यावरण मंजूरी’ का न होना था; और अब उसी श्रेणी की परियोजनाओं को ‘पूर्व पर्यावरण मंजूरी’ से छूट देना सरकार की ‘कथनी और करनी’ के फर्क को उजागर करता है।
अधिसूचना के अंतर्गत ‘बी-1’ श्रेणी की उन परियोजनाओं का केंद्रीय मूल्यांकन होगा जो संरक्षित इलाकों के 5 किलोमीटर की परिधि के भीतर आती हैं। हालांकि थर्मल पावर प्लांट, हवाईअड्डों, सिंचाई जैसी परियोजनाओं के लिए ये सीमा 10 किलोमीटर तक बढ़ा दी गयी है।
अधिसूचना में इतनी महत्वपूर्ण परियोजनाओं को इस प्रकार सरलीकृत ढंग से श्रेणीबद्ध करने और सार्वजनिक परामर्श या पूर्व पर्यावरण मंजूरी से छूट देने के पीछे के कारकों की कोई स्पष्टता नहीं है।
साथ ही, कुछ चुनिन्दा परियोजनाओं के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अब तक के अपने दिशा-निर्देशों - जिनके अनुसार परियोजनाओं से किसी भी बसावट की दूरी 15 किलोमीटर से कम नहीं होनी चाहिए – को भी इस अधिसूचना में पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। हालांकि पूर्व के दिशा-निर्देश भी अपने आप में अपर्याप्त थे और उनको लेकर पर्यावरणविदों ने बार-बार अपना विरोध भी जताया है।
अब तक के तमाम अनुभव स्पष्ट दिखाते हैं कि किसी परियोजना की क्षमता या उसके आकार का पर्यावरण या स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव से संबंध नहीं होता। गोवा में खनन/ निष्कर्षण से जुड़ी परियोजनाओं के वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद यह पाया गया कि गोवा में लगभग हर बड़े कस्बे में इन परियोजनाओं के 15 किलोमीटर की परिधि में प्रति दस लाख में 3 से 300 लोगों को कैंसर होने कि संभावना है। बाद में गोवा सरकार द्वारा गठित वैज्ञानिक जांच समिति ने इस रिपोर्ट को सही माना।
प्रस्तावित अधिसूचना में अनुपालन (कम्प्लायंस) रिपोर्ट को जमा करने की समय-सीमा प्रति छ: महीने से बढ़ाकर एक साल कर दी गयी है। साथ ही साथ खनन परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी की वैधता 30 वर्षों से बढ़ाकर 50 वर्ष कर दी गयी है। जबकि नदी घाटी परियोजनाओं के लिए यही सीमा पूर्व के 10 वर्ष से 15 वर्ष तक के लिए कर दी गयी है।
गौरतलब है कि परियोजनाओं का लंबे समय तक संज्ञान नहीं लेना न सिर्फ ज़रूरी प्रक्रियाओं के साथ खिलवाड़ करने का मौका देता है, बल्कि यह पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है। किसी भी परियोजना के नाते आस-पास में होने वाले बदलावों की निरंतर समीक्षा होते रहना बेहद ज़रूरी है।
साथ-साथ परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी की वैधता की समय-सीमा में वृद्धि का प्रतिफलन अपरिवर्तनीय और गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक, स्वास्थ्य संबंधी दुष्परिणाम के रूप में हो सकता है।
प्रस्तावित अधिसूचना और व्याप्त अनियमितताएं
अधिसूचना में तमाम पर्यावरणीय-वैज्ञानिक अनुभवों, अध्ययन की उपेक्षा करते हुए जिस तरह से बेतरतीब बदलाव किए गए हैं; उनका स्वयं अधिसूचना की प्रस्तावना से कोई संबंध नहीं दिखता। जिससे आर्थिक निवेश के लिए सरकार की तत्परता स्पष्ट होती है।
प्रस्तावित अधिसूचना दरअसल अपने आप में पर्यावरण, स्वास्थ्य जैसे गंभीर मुद्दों पर सरकार का एक कटाक्ष है, जहां केंद्र में हैं उद्योग और पूंजीपति। जनता इस गोले से बहुत पहले ही बाहर निकाल दी गयी है।
क्या परियोजनाओं को आकार और क्षमता जैसे बेतरतीब कारकों के आधार पर मनमानी श्रेणियों में बांटने और तद्नुसार नियमों को शिथिल करने के बजाय इन्हें पर्यावरण, स्वास्थ्य पर प्रभाव डालने जैसे कारकों के आधार पर श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता था?
इस पूरी प्रक्रिया में पूर्व सामाजिक प्रभाव आंकलन जैसा बेहद महत्वपूर्ण विषय मात्र अधिग्रहण पश्चात पुनर्वास और पुनर्स्थापन विषयों में सिमट कर रह गया। समुदायों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन, सुरक्षा के बाद उसी की जमीन पर उसका मत व्यवस्था के लिए सबसे गैर-जरूरी हो गया।
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के विषय पर काम करने वाली एक प्रमुख संस्था के अनुसार आने वाले समय में दिल्ली का औसत तापमान तीन डिग्री तक बढ़ने की संभावना है। तापमान के इस तरह बढ़ने का अर्थ हुआ – चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोत्तरी, पानी की कमी, घातक गर्म हवाओं जैसे गंभीर दुष्परिणाम।
पिछले कुछ वर्षों में हमने प्राकृतिक आपदाओं की ऐसी घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी को देखा है। हालांकि सरकार के लिए ‘आपदा’ की ये घटनाएँ अब भी महज़ पीएम राहत कोष जैसी संचित निधि से राज्यों को ‘दान’ देने का महज राजनीतिक ‘अवसर’ ही हैं।
ऐसे में जनता ही है जो ‘आपदा पूंजीवाद’ के इस दौर में ‘आपदा साम्यवाद’ की ओर बढ़ते हुये अपने साथ-साथ अपने परिवेश को बचाने के लिए खड़ी हो सकती है।
प्रस्तावित पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना संविधान प्रदत्त जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के मूल नागरिक कर्तव्यों (अनुच्छेद 51-क) का हनन करती है। भारत का संविधान जनता के मूल अधिकारों-कर्तव्यों को सुरक्षित करता सबके साथ खड़ा है।
प्रस्तावित अधिसूचना पर जनता की आपत्ति-सुझाव दर्ज़ करने की समय सीमा 30 जून तक थी। फिलहाल दिल्ली उच्च न्यायालय ने समय-सीमा को लेकर दाखिल याचिका पर निर्णय सुनाते हुये और सरकार की ओर से समय सीमा में अस्पष्टता का हवाला देते हुये इसे 11 अगस्त तक आगे बढ़ा दिया है। कोर्ट के इस आदेश ने कुछ समय के लिए राहत ज़रूर दी है।
हालांकि आने वाले समय में जनता के कदम से ही तय होगा कि पर्यावरण और जीवन को बचाने की मुहिम पर्यावरण-संरक्षण के सवालों और उसके प्रति संघर्षों को किस ओर ले जाती है।
लेखिका श्वेता त्रिपाठी पिछले 16 वर्षों से जल-जंगल-ज़मीन के विषयों पर जनांदोलनों से जुड़कर काम कर रही हैं