शहरों की ओर बढ़ता प्रवासियों का सैलाब

पलायन को मजबूर श्रमिकों की बड़ी आबादी तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का प्रतीक बनती जा रही है

By Deepak Mishra

On: Wednesday 25 December 2019
 
फोटो: अग्निमिर्ह बासु

समृद्धि के सपनों का पीछा करते भारत में नौकरी, कारोबार, शिक्षा की तलाश में लोगों की आवाजाही बढ़ना स्वभाविक है। खासकर ऐसे समय जब देश वैश्विकरण की ओर बढ़ रहा है। देश भर से आने वाली रिपोर्ट और अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि ‘पलायन की एक नई लहर’ न सिर्फ गांवों से शहरों की ओर बल्कि अपेक्षाकृत अल्प विकसित उत्तर, मध्य और पूर्व के राज्यों से दक्षिणी और कुछ पश्चिमी राज्यों की ओर बढ़ रही है। इस प्रकार के पलायन को भारतीय अर्थव्यवस्था की उभरती वास्तविकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। ये वास्तविकताएं हैं: प्रति व्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि जो रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में नाकाम रही है; असंगठित अर्थव्यवस्था का कायम रहना; और संगठित क्षेत्र का असंगठित होने की ओर बढ़ना, जिसका मतलब है नौकरीपेशा लोगों के एक बड़े हिस्से का असुरक्षित होना, उन्हें बहुत कम वेतन मिलना और अस्थिर नौकरियां करने के लिए मजबूर होना। बढ़ती क्षेत्रीय विषमताओं को पलायन के नजरिये से भी देखा जाना चाहिए।

आजीविका में विविधता

90 के दशक की शुरुआत से, ग्रामीण भारत और भारतीय कृषि संकट के लंबे दौर से गुजरे हैं। यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि बड़ी संख्या में छोटे व सीमांत किसान और दिहाड़ी मजदूर कृषि से गुजारा करने अथवा खुशहाल होने में नाकाम हो रहे हैं। इसलिए जीविका का विविधीकरण, जिसमें परिवारिक श्रम का पुनर्वितरण भी शामिल है, गरीब तबकों के लिए जिंदा रहने की एक प्रमुख रणनीति के रूप में उभरा है। स्थानीय स्तर पर खेती के अलावा अन्य काम-धंधों के अभाव के कारण दूरदराज के शहर, कस्बों में पलायन ही आजीविका का प्रमुख विकल्प बन गया है।

गरीब श्रमिक अक्सर विभिन्न प्रकार के काम-धंधों के जरिये अपनी आजीविका चलाते हैं। यह विविधता अक्सर एक बिखरे हुए श्रम बाजार के रूप में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार जब परिवार के कुछ सदस्य पलायन करते हैं, तब न तो आवास में स्थायी स्थानांतरण होता है और न ही कृषि और ग्रामीण इलाकों के साथ संबंध पूरी तरह खत्म होते हैं। बेशक, पलायन के कई अन्य प्रकार भी हैं। अच्छे पेशेवर, शहरी क्षेत्रों के प्रशिक्षित श्रमिक और कई संपन्न लोग भी ज्यादा से ज्यादा गतिशील होते जा रहे हैं। वस्तुतः कई अध्ययनों में सामने आया है कि अप्रवासियों के मुकाबले एक समूह के तौर पर प्रवासी ज्यादा शिक्षित, ज्यादा संसाधन संपन्न और उपभोग पर अपेक्षाकृत अधिक खर्च करने वाले होते हैं। ऐसा संभवत: इसलिए क्योंकि अत्यधिक निर्धन लोगों के लिए पलायन करना भी मुश्किल होता है।

हालांकि, इस परिदृश्य में एकरूपता की काफी कमी है। उदाहरण के लिए, मौसमी प्रवासियों के सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों से ताल्लुक रखने, संसाधन-विहीन व कम पढ़ा-लिखा होने और कम वेतन वाली असुरक्षित नौकरियां करने की संभावना अधिक रहती है। इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि मौसम की प्रतिकूल दशाओं जैसे सूखा और बाढ़ से अल्पअवधि और मौसमी पलायन पर ज्यादा असर पड़ता है।

डीटीई/सीएसई डेटा सेंटर द्वारा तैयार, 
इंफोग्राफिक: राज कुमार सिंह,
विश्लेषण: किरण पांडेय और रजित सेनगुप्ता
(डेटा स्रोत: भारतीय जनगणना २००१ और २०११)

भटकता नव-आशावाद

हाल ही में कई लोगों ने पलायन से श्रमिकों को होने वाले फायदों पर जोर दिया है। खासकर ऐसे श्रमिक को जो तुलनात्मक रूप से कमजोर आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं। विदेश से अर्जित धन को मूल देश के आर्थिक विकास के संभावित साधन के रूप में देखा जाता है। यही बात अंतर-क्षेत्रीय पलायन और मजदूर भेजने वाले अल्प विकसित राज्यों पर भी लागू हो सकती है। इस तरह के तर्क श्रम बाजार के जरिये स्थानिक ट्रिकल-डाउन प्रभाव का समर्थन करता है।

जहां एक ओर वृद्धि प्रक्रिया की प्रवृत्ति क्षेत्रीय असमानताओं को बढ़ावा देने की होती है, वहीं पलायन से पिछ़ड़े इलाकों को मदद मिलने की उम्मीद की जाती है ताकि धीरे-धीरे वे भी बराबर आ सकें। कई अध्ययनों में सामने आया है कि मौसमी प्रवासी श्रमिक एक समय के बाद पलायन के जरिये होने वाली कमाई पर न सिर्फ जीवन यापन करते हैं, बल्कि कुछ पैसा भी जोड़ लेते श्रमिकों के पलायन के बारे में यह ‘नव आशावाद’ अल्पकालिक और वृत्ताकार अंतर-क्षेत्रीय प्रवासन को दोनों हाथों में लड्डू जैसी स्थिति के रूप में देखता है: जहां एक ओर शहरों को अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर पर अतिरिक्त भार डाले बिना सस्ते श्रम का लाभ मिलता है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों को घर भेजी जाने वाली रकम का फायदा पहुंचता है।

हालांकि, इस प्रकार का सामान्य चित्रण पूर्णत: भ्रामक हो सकता है, क्योंकि कई बार पलायन प्रवासियों को कार्य एवं जीवन की शोषणकारी और अमानवीय स्थितियों में पहुंचा देता है। प्रवासी, जिनमें अधिकतर युवा होते हैं, मुश्किल परिस्थितियों में रहते हैं। कई लोग मिलकर कमरे का किराया और खाने की लागत साझा करते हैं। इस तरह उत्पादन के लिए सस्ता श्रम मुहैया हो जाता है और लागत घटती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह का पलायन कुछ परिवारों को गरीबी से बाहर निकालने में कामयाब रहा है? क्या यह गरीबी से बाहर निकालने का प्राथमिक तरीका होना चाहिए। दूसरी तरफ, इस बात पर ध्यान देना भी जरूरी है कि मूल स्थान के हालात में जरा-सा भी सुधार जैसे अच्छी फसल, मनरेगा का ठीक से लागू होना, आसानी से छोटे कर्ज की उपलब्धता इत्यादि, प्रवासियों को बेहतर वेतन के लिए मोल-भाव करने में मदद करता है।

हाशिये पर प्रवासी

शहरों में प्रवासियों का प्रवेश कुछ हद तक उन्हें गरीबी से बचने और अपने समाज की परंपराओं की जकड़ से मुक्ति पाने में मदद करता है। हालांकि, यह नई तरह की असुरक्षाएं और कमजोरियां भी बढ़ाता है। शहरी प्रवासियों में महिला श्रमिकों की हिस्सेदारी अभी भी बहुत कम है। शहरों में मकान किराये पर लेने के मामले में मुस्लिमों और दलितों को भेदभाव झेलना पड़ता है। जो लोग स्थानीय भाषा नहीं जानते, उन्हें भी शहरों में जीवन यापन करने में बहुत-सी बाधाएं झेलनी पड़ती हैं। इसी तरह उत्तर पूर्वी भारत, लद्दाख और दार्जलिंग से आने वाले प्रवासियों को कार्यस्थल और शहरों में आवाजाही के दौरान अक्सर नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, भवन-निर्माण और कपड़ा क्षेत्र चक्रीय प्रवासियों के बड़े हिस्से को रोजगार देते हैं। इन क्षेत्रों में बिचौलियों के जरिये मजदूरों की भर्तियां की जाती है जो प्रायः अपने जातीय और नस्लीय दायरे का इस्तेमाल लोगों को नियुक्त करने में करते हैं। ऐसी स्थिति में लिंग, जाति, जनजाति, स्थान और भाषा के आधार पर विभिन्न प्रकार के भेदभाव प्रवासी श्रमिकों को कमजोर और अकेला कर देते हैं। भवन-निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों की बड़ी संख्या अपने ठेकेदार से बंधी होती है और समय-समय पर एक निर्माण स्थल से दूसरे तक घूमती है। ‘विश्व स्तरीय इन्फ्रास्ट्रक्चर’ और ग्लोबल शहरों की चर्चा से ये लोग एकदम गायब रहते हैं।

इस सस्ते श्रम को वैश्विक बाजार में भारतीय अर्थव्यवस्था की बढ़त के तौर पर देखा जा रहा है। क्योंकि सब जगह लागत में कटौती पर जोर है। ऐसे में बड़े पैमाने पर श्रमिकों की गतिशील, अल्प कुशल और अदृश्य खेप भारतीय अर्थव्यस्था की चुनौतियों का प्रतीक बनती जा रही है। आमतौर पर प्रवासी उससे बेहतर कमाते हैं जो वह अपने मूलस्थान में काम करके कमा पाते। लेकिन, जिन भयानक परिस्थितियों में वह रहते और काम करते हैं या जिस तरह से उत्पीड़न का सामना करते हैं, उसे तरक्की की अनिवार्य कीमत समझना उचित नहीं है।

लेखक जेएनयू के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। उन्होंने हाल ही में सेज पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘समकालीन भारत में आंतरिक प्रवासन’ का संपादन किया है।

घटते पलायन का सच
 
कई रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि बिहार से पलायन घटा है। इससे दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल और अन्य राज्यों में श्रमिकों का भारी संकट खड़ा हो गया है। ये मुद्दा पहली बार 2012 में तब चर्चा में आया था, जब बिहार सरकार के श्रम विभाग ने दावा किया था कि 2008 से 2012 के बीच राज्य से पलायन 35-40 प्रतिशत कम हुआ है। विभाग का कहना था कि 15-20 लाख श्रमिकों को, जो हर साल दूसरे राज्यों में पलायन किया करते थे, अब बिहार में ही नौकरियां मिल रही हैं।

सरकार का कहना था कि बड़े पैमाने पर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं ने बिहार में कुशल और अकुशल श्रमिकों के लिए नौकरी के अवसर बढ़ाए और यही वह कारण था जिसकी वजह से पलायन में कमी आई। ये दावा आधारहीन नहीं था।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग में शोधार्थी इंद्रजीत रॉय कहते हैं, हालांकि राज्य की सिर्फ 11.3 प्रतिशत आबादी का ही शहरीकरण हुआ है लेकिन बहुत बड़े पुलों और राष्ट्रीय राजमार्गों ने प्रवासी श्रमिकों को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। वह कहते हैं, “बिहार के श्रमिक दिल्ली और गुड़गांव जैसे शहरों में काम कर रहे थे जहां जीवनयापन महंगा है। जब इसी तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास राज्य में शुरू हो गया तो श्रमिकों ने राज्य के अंदर ही पलायन शुरू कर दिया।” हालांकि रॉय दावा करते हैं कि पलायन बंद नहीं हुआ बल्कि ये बाहर जाने के बजाय अंदर ही शुरू हो गया है। वह कहते हैं कि दूसरे राज्यों में जाने के बजाय बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से अकुशल श्रमिकों ने पटना, मुजफ्फरपुर और भागलपुर जैसे शहरों की ओर जाना शुरू कर दिया है।

ग्रामीण से शहरी भारत की ओर पलायन की पुष्टि 2011 की जनगणना के आंकड़े भी करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, साल 2001 से 2010 के बीच भारत की शहरी आबादी 9.10 करोड़ बढ़ी, जबकि ग्रामीण आबादी में 9.40 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। ऐसा पहली बार हुआ कि शहरी आबादी में वृद्धि दर ग्रामीण आबादी से अधिक रही है। ये आंकड़े प्रवासी श्रमिकों के कृषि क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र की ओर खिसकने की ओर भी इशारा करते हैं। बिहार में 2001 से 2010 के बीच शहरी आबादी 11.29 प्रतिशत बढ़ी है।

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