डाउन टू अर्थ खास: विकास की दौड़ में हिमालय से मिट रहे हैं अतीत के निशान

भारत विकास से जुड़ी गतिविधियों के लिए हिमालय में अपने भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण स्थलों को तेजी से खोता जा रहा है। कानूनों के अभाव के चलते ऐसे रिकॉर्ड नष्ट हो रहे हैं जिनसे हमें न केवल पिछली जलवायु, वनस्पतियों और जीवों के साक्ष्य मिलते बल्कि मॉनसूनी और भूकंपीय गतिविधियों की भविष्यवाणी में सहायक आंकड़े भी प्राप्त हो सकते थे

By Rohini K Murthy

On: Thursday 04 August 2022
 
हिमाचल के सोलन जिले में कालका-शिमला राजमार्ग के साथ लगी घाटी का भूवैज्ञानिक 1860 के दशक से अध्ययन कर रहे हैं। यह हिमालय की उत्पत्ति का कारण बने महाद्वीपीय कटराव के प्रमाण समेटे है। ये प्रमाण निर्माण गतिविधियों से खो गए हैं (फोटो: एेश्वर्या अय्यर)

“आप हिमालय के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण स्थलों में से एक को देख रहे हैं। बहुमंजिला इमारतों और छत पर खेती के अलावा इस परिदृश्य में ऐसा कुछ नहीं है जो घाटी को किसी अन्य क्षेत्र से अलग करता हो। घरों और बस्तियों के निर्माण के कारण इसकी विशेषता नष्ट हो चुकी है।” सोलन जिले के कालका-शिमला राजमार्ग से सटी एक घाटी की ओर इशारा करते हुए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीआईसी) के पूर्व निदेशक मनोज कुमार यह जानकारी साझा करते हैं। वह कहते हैं कि सिर्फ चार-पांच साल पहले आप नंगे पहाड़ों पर भू-आकृति संबंधी विशेषताएं देख सकते थे।

ढलानों के कटाव, चट्टानों का झुकाव इस रेंज में विकास की कहानी बताते हैं। यह घाटी भारत के उन गिने-चुने स्थानों में से एक है जहां 2,400 किमी़ लंबी पट्टी मेन बाउंडरी थ्रस्ट (एमबीटी) का अध्ययन किया गया है। इस पट्टी का निर्माण निचले और शिवालिक हिमालय के टकराव से हुआ था। यह पट्टी पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान से होकर गुजरती है। हिमालय का निर्माण 5 करोड़ साल पहले शुरू हुआ था, जब भारतीय प्लेट यूरेशियन प्लेट से टकराई थी। लेकिन एमबीटी का गठन बहुत बाद में लगभग एक करोड़ वर्ष पहले उसी प्रक्रिया के हिस्से के रूप में हुआ था। लेकिन इस बेल्ट (श्रेणी) पर कहीं भी इन विशेषताओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता। कुमार कहते हैं, “नए भूगर्भीय स्थलों की पहचान करना तो संभव है, लेकिन चट्टान की प्रत्येक परत की उम्र का अनुमान लगाने सहित उनके अध्ययन की प्रक्रिया में दशकों लग सकते हैं। यह एक महंगी प्रक्रिया भी है।”

घाटी की ओर इशारा करते हुए कुमार कहते हैं, “यह बेशकीमती हिस्सा था, भूवैज्ञानिकों का मक्का जिसका दुनिया भर के छात्रों द्वारा अध्ययन किया गया है। इसे पहली बार 1864 में एक आयरिश भू-विज्ञानी ने देखा था। बिना सोची समझी निर्माण गतिविधियों और सड़क चौड़ीकरण के कारण यह पूरी तरह से नष्ट हो गया है।” पंजाब विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग में मानद प्रोफेसर और कुमार के शिक्षक रहे जीएसआई के एक अन्य पूर्व निदेशक ओएन भार्गव कहते हैं, “हाल के वर्षों में भारत के भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण स्थलों का विनाश चिंताजनक है।” भार्गव और उनके सहयोगियों ने 50 से अधिक भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण स्थलों पर डेटा संकलित किया है जो जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में खतरे में हैं।

(बाएं) 300 मिलियन साल पुराने अवशेष जिसमें विशालकाय बिच्छू के पदचिह्न हैं। ये स्पीति घाटी में सड़क निर्माण से नष्ट गए हैं।  स्पीति घाटी में 200 मिलियन साल पुरानी मूंगें की चट्टान (दाएं) (फोटो:  एरिस ड्रेगेनिटिस)

यह आंशिक रूप से या पूरी तरह से नष्ट हो गए हैं (देखें, विकास की कीमत,)। भार्गव बताते हैं, “स्पीति घाटी में पाए गए मूंगा चट्टान जीवाश्म का मामला ही लें। यह शायद दुनिया में सबसे अच्छी उघड़ी हुई प्रवाल भित्तियों में से एक थी। यह चट्टान लगभग 20 करोड़ साल पहले टेथिस समुद्र के नीचे थी और महाद्वीपीय प्लेटों के टकराने के कारण दिखने लगी थी। अब इसके ऊपर एक नहर बना ली गई है। उन्होंने चट्टान को निर्माण सामग्री के रूप में भी इस्तेमाल किया।” स्पीति घाटी में एक जीवाश्म भी था जिस पर एक विशाल बिच्छू के चाल की छाप दर्ज थी। इस छाप को दर्ज करने वाले जीवाश्म अत्यंत दुर्लभ हैं और दुनिया में केवल तीन स्थानों पर पाए गए हैं। यह हमें जीव के वातावरण और व्यवहार के बारे में जानकारी देता था। भार्गव अफसोस जताते हुए बताते हैं, “यह अब वहां नहीं है, इसके ऊपर एक सड़क है।”

भारी नुकसान

इन स्थलों और जीवाश्मों का नुकसान केवल भूवैज्ञानिक कलाकृतियों का नुकसान नहीं है। वे पिछली जलवायु, टेक्टोनिक गतिविधियों, वनस्पतियों और जीवों की विविधता, यहां तक कि भूकंप पर भी अमूल्य आंकड़े प्रदान करते हैं। बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज, लखनऊ के वैज्ञानिक गौरव श्रीवास्तव कहते हैं, “जीवाश्मों के अध्ययन से ही हमें पता चला है कि भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून 2.5 करोड़ साल पहले शुरू हुआ था और 1 से 1.5 करोड़ साल पहले पूरी तरह विकसित हो गया।”

स्रोत : भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक ओएन भार्गव द्वारा तैयार आंकड़ों पर आधारित

ये नतीजे साल 2021 में गोंडवाना रिसर्च में प्रकाशित अध्ययन के थे। उस समय के पौधों के जीवाश्म पत्तों के आकार और उनका विश्लेषण करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे, “प्रत्येक प्रकार के पर्णपाती, समशीतोष्ण या वर्षा वन में अद्वितीय रूपात्मक विशेषताएं होती हैं। उदाहरण के लिए वर्षा वन के पेड़ों में अतिरिक्त वर्षा को निकालने के लिए एक विस्तारित पत्ती होती है। शोधकर्ता प्राचीन पौधों में पाए जाने वाले पैटर्न की तुलना आधुनिक वनस्पतियों से करने में सक्षम थे, जिससे पता चला कि जीवाश्म वन अपने आधुनिक समकक्षों के कितने करीब हैं। यदि वे आधुनिक वनों को समशीतोष्ण करने के लिए आकारिकी में करीब हैं तो हम निष्कर्ष निकालते हैं कि जीवाश्म वन प्रकार समशीतोष्ण था।”

प्राचीन डेटा भविष्य की जलवायु परिस्थितियों को समझने में मदद कर सकता है। वर्तमान कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 400 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) के निशान को पार कर गई है। पूर्व- औद्योगिक युग के बाद से औसत तापमान में भी एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। ये स्थितियां वर्षा की भविष्यवाणी को एक चुनौती बना देती हैं। लेकिन भविष्यवाणी मॉडल को सटीक बनाया जा सकता है यदि किसी के पास यह डेटा हो कि कार्बन डाईऑक्साइड और तापमान उच्च होने पर वर्षा कैसे बदल गई। इसी पहलू पर रिसर्च करने वाले श्रीवास्तव का कहना है कि 5.6-5.3 करोड़ वर्ष पहले, कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 1,000 पीपीएम से अधिक थी। उस समय, पृथ्वी पूर्व-औद्योगिक युग की तुलना में 7-8 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म थी। इसी तरह, यदि आपके पास डेटा है कि मॉनसून कैसे बदल गया, तो वर्तमान भविष्यवाणी अधिक सटीक हो जाती है।”

महाद्वीपीय टकराव

हिमालय को चार श्रेणियों में बांटा गया है- बाहरी हिमालय या शिवालिक (ऊंचाई में सबसे कम), निचला/ छोटा हिमालय, बड़ा हिमालय और टेथियन। निचला हिमालय जीवाश्मों से समृद्ध नहीं है। यहां की चट्टानें पुरानी हैं, ऐसे समय की हैं जब जीवन प्रचुर या विविध नहीं था। भार्गव कहते हैं, “हमें यहां केवल ट्राइलोबाइट्स मिले हैं।” 3-6 सेमी माप वाले ये शुरुआती जानवर लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले तक महासागरों में घूमते थे।

टेथियन भी कोई बहुत बड़ा जीवाश्म का क्षेत्र नहीं था। यह क्षेत्र कभी उथले पानी का घर था, जो जानवरों के लिए भोजन खोजने के लिए उपयुक्त नहीं थे। लेकिन शोधकर्ताओं भी शिवालिक क्षेत्र में वह पा लिया जिसकी उम्मीद कम थी और वह था ढेर सारी तलछट चट्टानें, जो ऊंचाई में नदियों द्वारा जमा की गई गाद से बनी हैं। इन तलछटों ने स्तनधारियों और पौधों के प्रचुर मात्रा में जीवाश्मों को संरक्षित किया है। श्रीवास्तव कहते हैं कि ये पौधे हिमालय के उत्थान के दौरान बढ़ रहे थे। इसका मतलब है कि वे हमें इस प्रक्रिया के दौरान जलवायु के बारे में बता सकते हैं।

सड़क निर्माण के दौरान जीवाश्म लकड़ी के लॉग अक्सर नष्ट हो जाते हैं। यह स्थिति अरुणाचल प्रदेश में बांदरदेवा-ईटानगर सड़क पर भी देखी गई है। ( फोटो : गौरव श्रीवास्तव)

शिवालिक चरणबद्ध तरीके से बने। निचले शिवालिक सबसे पहले दिखाई दिए। इसके बाद मध्य और फिर निचला शिवालिक उभरा। श्रीवास्तव बताते हैं कि ये एक-दूसरे के ऊपर चढ़ गए। निचले शिवालिक में सदाबहार पौधों के जीवाश्म पाए जाते हैं। एक करोड़ साल बाद मध्य शिवालिक के आने पर पर्णपाती जंगलों ने सदाबहार की जगह ले ली। सदाबहार वनों को उच्च वर्षा की आवश्यकता होती है, जबकि पर्णपाती वनों को शुष्क मौसम के चार से पांच महीने की आवश्यकता होती है। इसी तरह 2018 में श्रीवास्तव और उनके सहयोगियों ने यूरेशिया के साथ भारत की टक्कर के दौरान जलवायु परिस्थितियों के पुनर्निर्माण के लिए पौधों के जीवाश्मों का इस्तेमाल किया। विश्लेषण से पता चला है कि इस अवधि में जो पौधे पाए गए वह गर्म और आर्द्र परिस्थितियों को पसंद करते हैं। उन्होंने पैलियोबॉटनी और पेलिनोलॉजी की समीक्षा में यह निष्कर्ष प्रकाशित किए। लगभग 50 लाख वर्ष पहले, लद्दाख क्षेत्र में हरी-भरी वनस्पतियां और वर्षा होती थी। श्रीवास्तव और उनकी टीम ने ताड़ और अन्य पौधों के जीवाश्मों को इकट्ठा करने और उनकी उम्र का अनुमान लगाने के बाद ये निष्कर्ष निकाले। ये आमतौर पर अच्छी वर्षा वाले क्षेत्रों में उगते हैं।

इसके अलावा, जीवाश्म यह समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि जीवन कैसे विकसित हुआ। उदाहरण के लिए प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटीबी में प्रकाशित 2014 के एक अध्ययन ने हिमालय में मिली एक बड़ी बिल्ली (वर्तमान में हिम तेंदुए से संबंधित) के जीवाश्म अवशेष बरामद किए हैं। 5.95 से 4.10 मिलियन वर्ष पूर्व खोज ने इस संभावना की ओर इशारा किया कि बड़ी बिल्लियां एशिया से उत्पन्न हुई हैं। भार्गव सरकार से सिफारिश करते हैं कि सड़क निर्माण में मार्गदर्शन करने के लिए जीएसआई, राज्य भूवैज्ञानिक विभागों और अनुसंधान विश्वविद्यालयों को शामिल कर एक समिति का गठन किया जाए जो भू-विरासत स्थलों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने का काम भी करे। वह कहते हैं कि “जिस तरह पुरातात्विक स्थलों की रक्षा के लिए एक कानून है, वैसे ही हमारे पास भू-विरासत स्थलों के लिए भी एक मजबूत कानून होना चाहिए।”

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