उत्तराखंड में विकास के लिए भूकंप, भूस्खलन एवं बाढ़ का गहन अध्ययन जरूरी

उत्तराखंड हिमालय प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है, ऐसे में वहां विकास कार्य कराने से पहले गहन अध्ययन की जरूरत की बात कर रहे हैं लेखक

On: Friday 19 May 2023
 
उत्तराखंड में ऋषिकेश से कर्णप्रयाग के बीच रेल लाइन के लिए पहाड़ों में जगह-जगह सुरंगें बिछाई जा रही हैं। फोटो: सन्नी गौतम

डॉ. बी. आर. पन्त


उत्तराखण्ड को विकसित करने वाली नीतियां बनाने वाली संस्थाओं ने उत्तराखण्ड में प्राकृतिक रूप में प्रदत्त जल, जंगल, जमीन, वनस्पति, जीव, जन्तु, आदि को अपनी नीतियों की प्राथमिकताओं से अलग रखा है, यदि ऐसा हुआ नहीं होता तो उत्तर प्रदेश पर्वतीय विकास परिषद के गठन से लेकर राज्य बनने के बाद आजतक के इन 45 वर्षों तक चिंतनीय स्थिति नहीं होती।

प्रकृति ने उत्तराखण्ड को प्रचुर मात्रा में संसाधन दिए हैं। जिनसे वह अपना ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर आपूर्ति में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। उत्तराखण्ड का धरातलीय विस्तार समतल मैदान, तराई से भावर, शिवालिक, दून, मध्य उच्च तथा ट्रान्स हिमालय तक फैला है, मैदान से उच्च हिमालयी क्षेत्र की ओर बढ़ने पर मुख्यतः चार भ्रंशों एचएफएफ, एमबीटी, एमसीटी एवं टीएचटी से गुजरना पड़ता है।

ये भ्रंश क्षेत्र भूगर्भिक दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील एवं पारिस्थितिकीय दृष्टि से अत्यंन्त नाजुक हैं, उत्तराखण्ड हिमालय विश्व के नवीनतम मोड़दार पर्वतीय भागों में से एक है, जो अभी भी निरन्तर ऊपर उठ रहा है। विर्वतनिक गतिविधियों के कारण धरातल के अन्दर एवं बाहर हर समय हलचल बनी रहती है, इस हलचल से कमजोर क्षेत्रों में स्वतः भूस्खलन, भूकम्प और इनसे जनित भयंकर बाढ़़ की घटनायें होती रहती हैं।

अतः भूगर्भिक दृष्टि से कमजोर क्षेत्रों में मानव द्वारा निर्मित सड़कें,सुरंगें, पनबिजली योजनाओं या नई बसावटों के साथ भवनों का निर्माण विध्वंसकारी/प्रलयकारी बाढ़ भूस्खलन आदि की आवृति को बढ़ा देती है, विकास हमेशा समावेशी एवं समाजहित के लिये होना चाहिए। अतः समाज एवं स्थानीय भूगोल को ध्यान में रखकर टिकाऊ विकास नीतियां ही केन्द्र में होनी चाहिए।

उत्तराखण्ड के उच्चावच का विस्तार समुद्र सतह से 200 मीटर की ऊंचाई से कम मैदानी क्षेत्र से लेकर 7817 मीटर ऊंची नंदादेवी चोटी तक है। इसके मध्य में अनेक चौड़ी -2 नदी घाटियां, मध्य ढालू क्षेत्र, तीव्र ढालू क्षेत्र, संर्कीण घाटियां, मैदानी क्षेत्र भावर, दून, उच्च हिमालयी वी (ट) आकार की घाटियां, ग्लेशियर की यू (न्) आकार की घाटियॉ आदि विषमता लिये क्षेत्र है।

भ्रंश क्षेत्रों के धरातल में निरन्तर बदलाव आते रहते हैं। घाटियां गहरी हो रही हैं तो हिमस्खलनों एवं वैश्विक ताप वृद्धि से अधिकांश ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं, जल स्रोत सूख रहे हैं तो वनस्पतियों के फलने फूलने में भी परिवर्तन आ रहे हैं।

अत्यधिक धरातलीय विस्तार के कारण जो जैव विविधता उत्तराखण्ड राज्य में दिखाई देती है, वह अन्य प्रदेशों में नहीं पायी जाती है, यहां एक ओर अर्ध उष्ण कटिबन्धीय फसलों, फूलों, वनस्पतियों से लेकर ऊंचाई के अनुसार शीतोष्ण, शीत एवं धु्रवीय जलवायु के क्षेत्रों में होने वाली क्रियाएं सम्पादित होती हैं, यानी कि जैव विविधता की दृष्टि से भी उत्तराखण्ड समृ़द्ध है।

टिकाऊ विकास की नीतियां बनाते समय आर्थिक लाभ की अपेक्षा पर्यावरणीय जाखिम की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण योजनाओं को ही ध्यान में रखना चाहिए।

सरसरी तौर पर देखने से हिमालय आकर्षक लगता हैै। अधिक आर्थिक लाभ की दौड़ में संसाधनों से भरपूर हिमालय में दोहन करते समय धरातलीय स्वरूप को नजर अन्दाज किया जाता है, जबकि हिमालय ने मनुष्य के कम हस्तक्षेप या कम आबादी के समय से लेकर वर्तमान तक बार-बार अपनी नाजुकता/संवेदनशीलता से परिचित कराया।

जिसका दोहनकर्ताओं ने कभी सोचा ही नहीं या सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझी। विश्व के इस नवीनतम पर्वतीय क्षेत्र में हमेशा भूकम्प बाढ़ भूस्खलन, एवलांच, सूखा, आग आदि घटनाएं होती रही हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों में जुलाई 1720 में दिल्ली, 1803 के बद्रीनाथ के भूकम्प से लेकर वर्तमान तक अनेकों बार उत्तराखण्ड की धरती हिलती रही हैं।

1809़ में गढवाल, 26 मई 1816 में गंगोत्री, 5 मार्च 1842 को मसूरी, 11 अप्रैल 1865 को पुनः मसूरी में, 25 जुलाई 1869 नैनीताल, 28 अक्टूबर 1916 में 7.5 पैमाने पर भूकम्प आया। इसी प्रकार 1937 में 8 रिक्तर पैमाने पर देहरादून में, 27 जुलाई 1966 में कपकोट -धारचुला, 21 मई 1979 को सेराघाट में, 29 जुलाई 1980 को पुनः धारचुला, 20 अक्टूबर 1991 को उत्तरकाशी, 29 मार्च 1999 को चमोली में बड़े भूकम्पों के अलावा छोटे-छोटे भूकम्पों ने बार- बार उत्तराखण्ड को अपनी नाजुकता का अहसास दिलाया।

इन भूकम्पों द्वारा मुख्यतः उत्तरकाशी से लेकर पिथौरागढ़ तक मुख्य सीमांत भ्रंश (एमसीटी) तथा इससे लगी अन्य भ्रंशों के सहारे भूगर्भ की अनेकों बार ऊर्जा विसर्जित होती रही, लेकिन लंबे समय से 6 रिक्टर पैमाने से बड़े भूकम्प नहीं आये हैं। इसीलिए भू-वैज्ञानिकों का मत है कि इस भूभाग में सिसमिक गैप बन रहा है जो धरती के अन्दर ऊर्जा का संचय कर रहा है।

इस ऊर्जा संचय का कारण भू- वैज्ञानिक बता रहे हैं कि इण्डियन प्लेट लगातार चायनीज प्लेट पर दबाव बना रही है। यह संचित ऊर्जा लगभग 8 रिक्टर पैमाने से बड़े भूकम्प द्वारा ही विसर्जित हो पायेगी।

कल्पना करें कभी इतना बड़ा भूकंप आयेगा तो क्षेत्र का मंजर कैसा होगा, इसीलिये वैज्ञानिकों का कहना है कि छोटे - छोटे भूकम्पों से संचित ऊर्जा निकलती रहने से बड़े नुकसान की सम्भावना कम होगी, यद्यपि अभी तक ऐसी कोई प्रणाली विकसित नही हुई है, जिससे भविष्य की कोई जानकारी प्राप्त की जा सके।

भूगर्भिक नाजुकता के बाबजूद उत्तराखण्ड के उपरी हिस्से में अनेक जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं। जिसमें अनेक सुरंगों का निर्माण हो रहा है। बड़ी-बड़ी मशीनों को लाने ले जाने के लिए चौड़ी- चौड़ी सड़कों का निर्माण, अवसंरचनात्मक विकास के लिए सीमेंन्ट, कंकरीट एवं लोहे के आलीशान मकानों का निर्माण हो रहा है, आबादी भी दुर्गम क्षेत्रों से पलायन कर सड़कों/नदियों के किनारे आधुनिक सामाग्री से भवनों का निर्माण कर अतिरिक्त दबाव बनाना बदस्तूर जारी है।

भूगर्भिक दृृष्टि से अत्यन्त कमजोर क्षेत्रों में विर्तनिक गतिविधियों से सक्रियता बनी रहने के कारण वर्षा, बर्फ, नदियों, झीलों, सुरंगों से जल लगातार भूमि के भीतर प्रवेश करने से घुलनशील चट्टानों को और कमजोर बनाती हुई टूट का भूस्खलन/ हिम स्खलन के रूप में मूल चट्टान से अलग हो जाती है और यह क्रिया तब अत्यन्न विनाशकारी होती है, जब भूमि का यह स्खलित भाग किसी नदी के बहाव को रोककर अस्थाई झीलों का निर्माण कर अत्यधिक जल संचय कर देती हैं और एक सीमा के बाद भार क्षमता से अधिक होने के कारण जब टूटती हैं तो अपने जलागम क्षेत्र में विनाशकारी बाढ़ के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

कभी-कभी छोटी-छोटी नदियां, गधेरे भूस्खलन के कारण अपने बहाव मार्ग को बदल देती है और मानवीय वसासतों/खेती की ओर मुड़ जाती है जिससे अत्यधिक जन एवं धन की क्षति पहुंचाती हैं। उत्तराखण्ड में इस प्रकार भी भूस्खलनों से जनित बाढ़़ निरंतर आती रही हैं।

उपलब्ध साहित्य के अनुसार 1857 में नन्दाकिनी जो अलकनन्दा भी सहायक नदी है के जल को भूस्खलन ने तीन दिन तक रोक दिया था और जब वह टूटा तो अलकनन्दा में भयंकर बाढ़़ आ गई, इसी प्रकार 1868 में जब गुड्यार ताल भूस्खलन का मलुवा आया उसके पानी से विरही में बाढ़ आई।

यह भी अलकनन्दा की सहायक नदी है। उससे अलकनन्दा पर बने लकड़ी के दो पुल बह गये, चमोली में अलकनन्दा नदी के किनारे सोये हुए 73 लोगों को बहा ले गई, पुनः सितम्बर 1893 में भी बिरही गांव के नजदीक फिर एक बड़े भूस्खलन ने बिरही नदी के जल बहाव को रोक कर 4 किमी लम्बी 700 मीटर चौड़ी 150 मीटर ऊंची गौना ताल बन गई थी।

लगभग एक साल बाद 26 अगस्त 1894 को गौना ताल केे एक हिस्सा टूटने से विरही में बाढ़ की स्थिति बन गई, यह बाढ़ का जल जब अलकनन्दा में पहुंचा तो अलकनन्दा का जल स्तर अनायास बढ़ कर बाढ़ की स्थिति बन गई उससे पुराने श्रीनगर एवं नदी किनारे बने बसासतों का नुकसान कम पहुंचाया, क्योंकि एक साल पहले से बनी झील के टूटने और बाढ़ की आशंका के कारण तटवर्ती निवासियों को पूर्व में ही सूचना पहुंचने के कारण जन हानि नही हुई।

वर्ष 1930 में भी बद्रीनाथ के पास अलकनन्दा का जल सामान्य स्तर से 9 मीटर ऊंचा बहने से बहुत से आवासीय भवनों को नुकसान पहुचा, वर्ष 1957 में भी भापकुण्ड के पास द्रोणागिरि नदी के मलुवे से 3 किमी0 लम्बी झील बन गई थी, 20 जुलाई 1970 को यह झील टूटी और अलकनन्दा में भयंकर बाढ़ आई।

इस भयंकर बाढ़ के मूल में ऋषिगंगा की बाड़ी ताल, पातालगंगा की चीना ताल एवं बिरही नदी पर बना गौना ताल का टूटना था, क्योंकि इन नदियों के उपरी भागों में बाढ़ आने से पहले कई दिनों से लगातार बारिश हो रही थी, जो इन कृत्रिम झीलों के जलस्तर बढ़ाने के साथ-साथ लाई गई गाद/ अवसाद झील में एकत्र होने से दबाव भी निरन्तर बढ़ रहा था।

ऊपरी हिमालय से बहने वाली नदी झीलों में अनेक भूस्खलन हो रहे थे, इस बाढ़ का प्रभाव बद्रीनाथ की हनुमान चट्टी एवं रैणी से 320 किमी0 दूर हरिद्वार एवं पथरी तक हुआ जिससे अलकनन्दा के जलागम क्षेत्र में 55 व्यक्ति कालकल्पित हुए, 142 पशु, 6 मोटर पुल, 16 पैदल पुल बह गये।

इसके साथ ही इस बाढ़ में 25 बसें, 101 गांवों से 604 घर, 47 घराट, 27 गौशालाएं, सिंचाई की 4 लिप्ट मशीनें बह गई थी। श्रीनगर गढ़वाल में निर्मित आईटीआई भवन में 6 मीटर मोटी गाद की परत जमा हो गई थी।

6 अगस्त 1978 को भागीरथी नदी की सहायक कनौडिया गाड़ में आये भूस्खलन ने 14 घण्टे भागीरथी के पानी को रोक दिया और फिर इसके टूटने से भागीरथी में भयंकर बाढ़ आ गई, हिमालय के इस हिस्से में अनेकों बार अनेक भूस्खलनों ने स्थानीय निवासियों को विचलित किया है, और उनके द्वारा छोटी बड़ी नदियों में बाढ़ आई हैं।

1970 की काली एवं 19़78 की कोसी में आई बाढ़ों के अलावा 1977 एवं 1979 में तवाघाट, 1979 में ही कौंथा, 1983 में कर्मी, 1975 एवं 1978 में बघर, 2013 में केदारनाथ में चौड़ावाड़ी झील के टूटने के बाद जो बाढ़ आई। 1979 में मालपा भूस्खलन से नाले में अवरोध आने से पानी मालपा गांव में घुसा और सम्पूर्ण गांव नेस्तनाबूद होने के साथ मानसरोवर यात्रा पर निकले सैकड़ों व्यक्तियों की जानें चली गयी थी।

इसी प्रकार सुमगढ़ कपकोट के भूस्खलन ने स्कूली बच्चों की जान ले ली, 7 फरवरी 2021 को रैणी के ऊपर ग्लेशियर टूटने से ऋषिगंगा पर निर्माणाधीन जल विद्युत योजना में बन रही सुरंगों में काम करने वाले 200 से अधिक मजदूरों की जान चली गई थी। नाचनी के ला झेनला, रामगढ़, मुक्तेश्वर के क्षेत्र में दर्जनों भूस्खलनों से बाढ़ आई। तो बार-बार हिमालय की संवेदनशील प्रकृति की ओर इशारा करती है।

हाल ही में मीडिया से चर्चा में आये जोशीमठ शहर की धंसने एवं यहां के भवनों में आई दरारों का कारण भी वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्र में बन रही जल विद्युत परियोजनाओं की सुरंगें ही हैं। स्थानीय लोगों एवं अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड में कई ऐसी योजनाएं हैं, जैसे सड़कों का चौड़ीकरण, पुल, भवन, जलाशय, सुरंग, रोपवे आदि का निर्माण होने से धरातल में दरारों का आना, भूस्खलन होना आदि की घटनाओं से बाढ़ आती रहती है।

विकास के नाम पर हम जिस प्रकार बहुउद्देश्यीय योजनाएं उन क्षेत्रों में बना रहे हैं। जो अत्यंत कमजोर है इसका अभिप्राय यह भी कतई नहीं है कि क्षेत्र में सड़कें पुल, भवन, जल विद्युत योजनाऐं नहीं बननी चाहिए।

अतः विकास की किसी भी योजना का कार्यान्वय करने पहले ही स्थानीय आवश्यकताओं के साथ स्थानीय भूगर्भ/भूगोल का खयाल अवश्य रखना चाहिए। यह क्षेत्र चीन/तिब्बत से लगा है सामाजिक दृष्टि से भी संवेदनशील है। औपचारिकताएं पूरी करने के लिये सरकारों द्वारा मानकों को पूरा किया जाता होगा, क्योंकि चतुर वैज्ञानिकों एवं अवसर वादी स्थानीय नेतृत्व को इस प्रकार की बड़ी योजनाओं के ठेकेदार हमेशा से अपने पक्ष में करते रहे हैं, आर्थिक लाभ एवं पर्यावरणीय नुकसान का आंकलन तटस्थ रूप से होना आवश्यक है।

उत्तराखण्ड हिमालय बचेगा, तभी देश के उपजाऊ मैदान बचेंगे, तभी उर्वर मिट्टी बनेगी, जलवायु पर नियंत्रण होगा, शुद्ध जल की आपूर्ति होगी, कार्बन सोखने के जंगल सुरक्षित रहेंगे, तीर्थाटन, साहसिक, पर्यटन हो पायेगा सामाजिक दृष्टि से भी सुरक्षित रहेंगे, यहाँ की संस्कृति एवं परम्परा बच पायेंगी, प्रकृति के सहवासी जीव, जन्तु, औषधीय एवं सुगंध फूल पत्तियां, जड़ी-बूटियां, बुग्याल सुरक्षित रह पायेंगे। अल्प लाभ के कारण स्थानीय पलायन कर संसाधनों की लूट के लिये प्लेटफार्म तैयार कर रहा है। वन्य जीव जंतुओं कोे जंगलों में भोजन नहीं मिल रहा है तो गॉव/शहरों/वसासतों की ओर आ रहे हैं।

पलायन के कारणों को स्थानीय स्तर पर समझना होगा। उनको समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर योजनायें भी बनानी होंगी। स्थानीय लोगों को निर्णय में भागीदार बनाना होगा। स्थानीय लोगों को शामिल न करने के कारण उनका उस योजना के रख रखाव में अपनत्व का लगाव ही नहीं होता है। स्थानीय लोगों के साथ बैठकर उन्हीं के लिये योजनाएं बनाई जायेंगी तो शायद हिमालय के जल, जंगल, जमीन के साथ संस्कृति, परम्पराएं, रीति, रिवाज एवं उनको संरक्षित करने वाला हिमालयवावासी सुरक्षित होगा, ऐसे स्वस्थ एवं खुशहाल उत्तराखण्ड के लिये जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है।

(लेखक एमबी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल के प्रोफेसर एवं भूगोल विषय के विभागाध्यक्ष हैं।)

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