पिछले दो दशकों में दुनिया भर की 4 हजार वर्ग किमी आर्द्रभूमि का हुआ नुकसान

दुनिया भर के कुल ज्वारीय आर्द्रभूमि में लगभग तीन-चौथाई की कमी एशिया में हुई, जिसमें से लगभग 70 फीसदी इंडोनेशिया, चीन और म्यांमार में देखी गई है

By Dayanidhi

On: Tuesday 17 May 2022
 

ज्वारीय आर्द्रभूमि से दुनिया भर में पर्यावरण के बदलाव की दर पर असर पड़ता है। लेकिन अब तक आर्द्रभूमि का कितना नुकसान हुआ है, इसको अन्य प्रकार से उपयोग करने के लिए किस तरह के बदलाव किए गए हैं, इसके बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है।

अब वैज्ञानिकों ने दस लाख से अधिक उपग्रह चित्रों का विश्लेषण कर पता लगाया है कि दुनिया भर में पिछले बीस वर्षों में 4,000 वर्ग किलोमीटर ज्वारीय आर्द्रभूमि का नुकसान हो चुका है।

दुनिया भर में हो रहे बदलावों और लोगों की गतिविधियां दुनिया भर में ज्वारीय आर्द्रभूमि, ज्वारीय दलदल, मैंग्रोव और ज्वारीय भूमि में तेजी से बदलाव ला रही  हैं। हालांकि पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली और प्राकृतिक प्रक्रियाएं कुल होने वाले नुकसान को कम करने में एक अहम भूमिका निभा रही हैं।

लेकिन वैश्विक स्तर पर उनकी वर्तमान और भविष्य की स्थिति का अनुमान लगाने के प्रयास अनिश्चित हैं। ज्वारीय आर्द्रभूमि में बदलाव करने के पीछे बहुत से  प्राकृतिक और मानवीय कारण हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1999 और 2019 के बीच दुनिया के ज्वारीय आर्द्रभूमि में बदलाव की सीमा, समय और प्रकार का पता लगाने के लिए ऐतिहासिक उपग्रह छवियों के विशाल संग्रह का एक मशीन-लर्निंग विश्लेषण तैयार किया है।

उन्होंने पाया कि दुनिया भर में 13,700 वर्ग किलोमीटर ज्वारीय आर्द्रभूमि का नुकसान हो गया है। 9,700 वर्ग किलोमीटर में बदलाव के चलते दो दशक की अवधि में 4,000 वर्ग किलोमीटर का कुल नुकसान हुआ है।

जेम्स कुक यूनिवर्सिटी के ग्लोबल इकोलॉजी लैब के प्रवक्ता और प्रमुख अध्ययनकर्ता डॉ निकोलस मरे ने कहा कि हमने पाया कि 27 फीसदी का नुकसान मानव गतिविधियों से जुड़े थे, जिसमें कृषि भूमि में बदलने और नुकसान हुई आर्द्रभूमि की बहाली करना शामिल है।

अन्य सभी परिवर्तनों के लिए अप्रत्यक्ष कारणों को जिम्मेदार ठहराया गया था, जिसमें नदी के जलग्रहण पर लोगों का प्रभाव, तटीय क्षेत्र में व्यापक विकास, प्राकृतिक तटीय प्रक्रियाएं और जलवायु परिवर्तन इसमें शामिल हैं।

कुल वैश्विक ज्वारीय आर्द्रभूमि में लगभग तीन-चौथाई कमी एशिया में हुई, जिसमें से लगभग 70 फीसदी इंडोनेशिया, चीन और म्यांमार में हुई है।

मरे ने कहा कि दुनिया भर में एशिया सीधे-सीधे मानव गतिविधियां ज्वारीय आर्द्रभूमि के नुकसान का केंद्र है। यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका और ओशिनिया में ज्वारीय आर्द्रभूमि के नुकसान में इन गतिविधियों की भूमिका कम थी, जहां तटीय आर्द्रभूमि गतिशीलता अप्रत्यक्ष कारणों जैसे आर्द्रभूमि प्रवासन, तटीय बदलाव और जलग्रहण में बदलाव होने से जुडी हुई थी।

वैज्ञानिकों ने पाया कि वैश्विक स्तर पर ज्वारीय आर्द्रभूमि के लगभग तीन-चौथाई नुकसान की भरपाई उन क्षेत्रों में नई ज्वारीय आर्द्रभूमि की स्थापना से हुई है, जहां वे पहले नहीं हुए थे जैसे कि गंगा और अमेजन डेल्टा में इनका उल्लेखनीय विस्तार हुआ है।

ज्वारीय आर्द्रभूमि के अधिकांश नए क्षेत्र अप्रत्यक्ष कारणों से बने थे, जो प्रमुख भूमिका को उजागर करते हैं कि व्यापक पैमाने पर तटीय प्रक्रियाओं की ज्वारीय आर्द्रभूमि की सीमा को बनाए रखने और प्राकृतिक पुनर्जनन को सुविधाजनक बनाने में है।

मरे ने कहा कि परिणाम बताते हैं कि हमें तेजी से वैश्विक परिवर्तन के लिए तटीय आर्द्रभूमि की गतिविधि और प्रवासन में छूट देने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि अगर हम तटीय वातावरण में बदलावों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने जा रहे हैं तो वैश्विक स्तर पर निगरानी करना आवश्यक है।

वर्तमान में दुनिया भर में अब 1 अरब से अधिक लोग कम ऊंचाई वाले तटीय क्षेत्रों में रहते हैं। ज्वारीय आर्द्रभूमि लोगों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं, जो कार्बन भंडारण, तटीय संरक्षण और मत्स्य पालन में वृद्धि जैसे लाभ प्रदान करती हैं।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जूलॉजी विभाग में शोध सहयोगी डॉ थॉमस वर्थिंगटन ने कहा कि तटीय समुदायों और धरती को बचने के लिए हमारे तटीय आर्द्रभूमि की रक्षा करना महत्वपूर्ण है। ये क्षेत्र कई पौधों और जानवरों के लिए अंतिम निवास हैं।

उन्होंने कहा यह आंकड़े उन तटीय क्षेत्रों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं जो सबसे अधिक प्रभावित है। इसलिए इन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है या ऐसे क्षेत्र जहां हम इनकी बहाली को प्राथमिकता दे सकते हैं। यह अध्ययन साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

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