Economy

चुनाव में नहीं हो रही ग्रीन बोनस की बात

 कई सालों से हिमालयी राज्यों के लिए ग्रीन बोनस की मांग उठ रही है, लेकिन इस चुनाव में यह मुद्दा नहीं बन पा रहा है

 
By Varsha Singh
Published: Friday 05 April 2019

एक बार फिर हम चुनाव के दौर में हैं। नई सरकार चुनने को तैयार हैं। राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र जारी कर रहे हैं। जनता के बीच तमाम मुद्दों पर लाखों की भीड़ वाली जनसभाएं कर रहे हैं। उत्तराखंड में पहले चरण में लोकसभा के लिए मतदान होना है। इसीलिए सभी दलों के सूरमा यहां वादों की फेहरिस्त लगा रहे हैं। लेकिन देश के दिग्गज नेताओं के भाषण में पहाड़ के विकास के लिए कोई विज़न नहीं झलकता। पहाड़ की जनता से वोट मांगे जा रहे हैं, लेकिन ग्रीन बोनस और जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों पर बात नहीं हो रही है।

हिमालयी राज्यों के विकास की नीतियां मैदानी राज्यों से अलग होंगी। यहां के संवेदनशील पारिस्थितकीय तंत्र के लिहाज से केंद्र या राज्य की सरकारों के पास अलग विज़न होना चाहिए। तभी हम यहां सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।

जीईपी यानी ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट के लिहाज़ से समृद्ध और पूरे देश के पर्यावरण का ज़िम्मा संभालने वाले हिमालयी राज्यों को उनके हिस्से का ग्रीन बोनस क्यों नहीं मिला। जबकि पूर्व में योजना आयोग (अब नीति आयोग) भी इस पर अपनी मुहर लगा चुका है।

जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तराखंड सरीखे हिमालयी राज्य उतने ज़िम्मेदार नहीं हैं, जितना ख़ामियाजा इसकी वजह से उन्हें उठाना पड़ता है। वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा और वर्ष 2010 में लद्दाख की आपदा इसका उदाहरण है। इसी लिए वर्ष 2013 में बी के चतुर्वेदी समिति ने पारिस्थितकीय तंत्र में अपने योगदान के एवज में हिमालयी राज्यों के लिए दो फीसदी ग्रीन बोनस की स्वीकृति दी थी।

प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता मथुरा दत्त जोशी बताते हैं कि केंद्र में यूपीए की सरकार के दौरान योजना आयोग ने हिमालयी राज्यों के लिए ग्रीन बोनस स्वीकृत किया था। बी के चतुर्वेदी योजना आयोग के सदस्य थे। उनकी अध्यक्षता में यूपीए सरकार ने कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने हिमालयी राज्यों के लिए ग्रीन बोनस की स्वीकृति दे दी थी। इसके तहत उत्तराखंड में हर वर्ष 1200 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गए थे। लेकिन भाजपा सरकार ने केंद्र में आने के बाद इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। उसके बाद नीति आयोग बना, लेकिन ग्रीन बोनस के मुद्दे पर कोई नीति नहीं बनी।

मथुरा दत्त जोशी कहते हैं कि उत्तराखंड का करीब 70 प्रतिशत भूभाग वन आच्छादित है। हमारे राज्य से 60 प्रतिशत पानी पूरे देश को जाता है। इसलिए उत्तराखंड ग्रीन बोनस का हक़दार है। वे सवाल उठाते हैं कि भाजपा नेता रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री रहते हुए, ग्रीन बोनस के मुद्दे को उठाते थे, लेकिन पांच साल तक अपने सांसद रहने के कार्यकाल में उन्होंने इस मुद्दे पर सदन में एक भी सवाल नहीं किया।

भारत सरकार द्वारा कराये गए एक अध्ययन में उत्तराखंड द्वारा दी जा रही पर्यावरणीय सेवाओं की कीमत प्रति वर्ष 16 लाख करोड़ रुपये आंकी गई थी। साथ ही ये कहा गया था कि जब हम जीडीपी का हिसाब लगाते हैं, उसमें पर्यावरणीय सेवाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए।

ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट यानी जीईपी को लेकर कार्य करने वाले देहरादून की हेस्को संस्था के संस्थापक अनिल जोशी का कहना है कि चुनाव में ग्रीन बोनस जैसे मुद्दों पर बात न होने के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हम लोग हैं। हम जब तक हवा, मिट्टी, जंगल, पानी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाएंगे, तब तक राजनेता इन मुद्दों पर बात नहीं करेंगे। फिर पहाड़ तो हवा, मिट्टी, जंगल, पानी का गढ़ है। जोशी कहते हैं कि जब तक हालात बेहद गंभीर नहीं हो जाते हैं, हम इन मुद्दों पर बात ही नहीं करते। उनका कहना है कि चुनाव में प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर बात हो, इसके लिए लोगों को बड़े तरीके से अपनी बात रजिस्टर्ड करवानी होगी। ताकि ग्रीन बोनस और पानी जैसे मुद्दों पर वोट पड़ें।

भारतीय जनता पार्टी से नैनीताल लोकसभा सीट से प्रत्याशी अजय भट्ट कहते हैं कि दरअसल जनता की तरफ से मुद्दे ही नहीं आ रहे हैं और हम खुद ही विकास से जुड़ी अपनी बातें कह रहे हैं। वे कहते हैं कि आम लोगों की रुचि सिर्फ मोदी जी के बारे में। राष्ट्रवाद बनाम आतंकवाद का मुद्दा लोगों की तरफ से आया है। ग्रीन बोनस जैसे मुद्दों पर जनता ही नहीं बोल रही है। अजय भट्ट कहते हैं कि पर्यावरणीय सेवाओं के बदले में यहां के लोगों को उसके एवज में कुछ मिलना तो चाहिए। वे कहते हैं कि हम यदि संसद में पहुंचे तो इस बात को जरूर उठाएंगे।

गंगा को लेकर तपस्या करने वाले हरिद्वार के मातृसदन के शिवानंद कहते हैं कि जो लोगों के जीवन से जुड़ी मूलभूत समस्याएं हैं, प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दे हैं, गंगा स्वच्छता जैसे मुद्दे हैं, चुनाव में ये पूरी तरह उपेक्षित हैं। वे कहते हैं कि देवत्व के प्रतीक उत्तराखंड में प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, जो आने वाले समय में घातक हो सकता है। उत्तराखंड आपदा इसी का नतीजा था। लेकिन चुनाव में इन मुद्दों पर कोई बात नहीं हो रही। राजनीतिक दलों के लिए गंगा नदी एक चुनावी जुमला है।

पर्यावरणविद् मानते हैं कि उत्तराखंड सरीखे हिमालयी राज्यों में पर्यावरणीय सेवाएं ही सबसे बड़ा उद्यम हैं। विकास के लिहाज से पर्वतीय क्षेत्रों में इन्फ्रास्ट्रक्चर, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण जैसे मामलों में पर्यावरणीय संतुलन का ख्याल रखना होता है। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों में एक किलोमीटर की सड़क और मैदानी क्षेत्र के एक किलोमीटर की सड़क निर्माण में बहुत फर्क है। या स्वच्छ भारत अभियान के तहत मैदानी क्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों को दी जाने वाली धनराशि समान होती है। जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में माल ढुलाई और कच्चा माल उपलब्ध न होने की वजह से लागत ज्यादा आती है।

इसीलिए गांवों तक सड़क पहुंचानी हो, संरक्षित वन क्षेत्र के अंदर से सड़क ले जानी हो, ऑल वेदर रोड हो या हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट हों, पर्यावरणीय मानकों के चलते इनके निर्माण में बाधा भी आती है। भूस्खलन या बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं राज्य की आर्थिकी पर असर डालती हैं। इसलिए हिमालयी राज्यों के विकास के लिए और अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रीन बोनस की मांग की जाती रही है।

लोकसभा चुनाव के समय अपने मुद्दों को लेकर किसान मार्च कर रहे हैं, महिलाएं देशभर में जुलूस निकाल रही हैं, लेकिन पर्यावरण प्रेमियों का कोई जत्था सड़कों पर नहीं आया।

 

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