Economy

कायम हैं हाट के ठाठ

खुदरा बाजार तेजी से संगठित हो रहे हैं। आशंका थी कि इससे ग्रामीण बाजार खतरे में होंगे लेकिन हाट अब भी प्रासंगिक बने हुए हैं, साथ ही रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं।   

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Friday 15 December 2017
छत्तीसगढ में ग्रामीण बाजार सबसे अधिक प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं। राज्य में एक गांव में लगे हाट में ग्रामीण अपनी जरूरतों का समान खरीदते हुए (सायंतन बेरा / सीएसई)

लखनऊ से सत्तर किलोमीटर दूर लालपुर गांव के पास अंतरौली में हर मंगलवार को ग्रामीण बाजार सजता है। रामअवतार अपने खेत की मेड़ों पर हुई फूलगोभी लेकर हर हफ्ते यहां आते हैं। एक कोने में अपना गमछा बिछाकर उसी पर अपनी फूलगोभी रख ग्राहकों के आने का इंतजार करते हैं। औसतन घंटे-डेढ़ घंटे के अंदर उनकी फूलगोभी बिक जाती है। फूलगोभी की बिक्री से मिले पैसों से वह अनाज, कपड़े और अपने घर की अन्य जरूरत का सामान खरीदते हैं और अपने गांव की ओर लौट जाते हैं।

अंतरौली के इस ग्रामीण बाजार की खासियत यह है कि पहले चरण में रामअवतार यहां विक्रेता हैं तो बाद में इसी बाजार में ग्राहक बन इसी बाजार से निकले पैसे खपा देते हैं। एक व्यक्ति की मांग और आपूर्ति के एक ही जगह पूरे हो जाने के कारण इस तरह के बाजार लगातार फल-फूल रहे हैं।

पिछले दो दशकों से पूर्वांचल क्षेत्र में युवाओं के स्वावलंबन कार्य में जुटे कैथी गांव (वाराणासी) के सामाजिक कार्यकर्ता बीके पांडे कहते हैं कि गांव के बाजार खत्म नहीं हो सकते। इसके उलट पिछले दस-बारह सालों में इनका तेजी से विस्तार हुआ है। उदाहरण के लिए गाजीपुर के पास मोमनाबाद और वाराणसी के पास बड़ा गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार। कहने के लिए तो यहां सभी सामान मिलते हैं लेकिन यह बाजार पिछले एक दशक के दौरान अपनी मिर्ची व खीरे के लिए मशहूर हुआ है। अब हालत यह है कि यहां की मिर्ची कोलकाता तक जाती है।

पांडे कहते हैं कि इसके पीछे एक बड़ा कारण है कि अब यहां परिवहन व संचार की बेहतर सुविधा के साथ-साथ प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के कारण दूर-दराज के गांवों में पहुंचने के साधन उपलब्ध हो गए हैं। पहले गांव के लोगों के पास जब कुछ सब्जी-भाजी बेचने के लिए होती थी तो वह उसे अपनी साइकिल पर लादकर लाता था। लेकिन अब किराए का कोई भी वाहन लेता है और गांव की सड़कों से होते हुए हाट पहुंच जाता है।

पांडे के साथ साथ स्वालंबन कार्य में जुटे गुड्डु और नीलकमल कहते हैं कि ये हाट वास्तव में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वावलंबन की दिशा में अहम भूमिका निभा रहे हैं। क्योंकि छोटी जोत वाले किसान के पास इतना संसाधन और समय नहीं होता कि वह अपने खेत में अनाज के बीच ही बोई गई मुट्ठी भर सब्जियों को बेचने के लिए शहर जाए। ऐसे हालात में उसके लिए यह मुनासिब होता है कि हफ्ते में लगने वाले बाजार में वह कम मात्रा की अपनी सब्जी को बेच कर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा कर लेता है।  गांव के बाजार हमारी अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा हैं।

ये ग्रामीण बाजार किसान-मजदूर के पूरे परिवार को रोजगार मुहैया कराते हैं। इसमें किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती है। किसान या मजदूर परिवार का हर व्यक्ति गांव के बाजार में आकर अपना सामान बेच कर अपनी जरूरतों का सामान खरीद सकने की क्षमता पैदा कर लेता है। ग्रामीण क्षेत्रों की लगातार रिपोर्ट करने वाले स्वतंत्र पत्रकार अमित श्रीवास्तव कहते हैं कि दक्षिण हो या पश्चिम, देश के हर दूर-दराज के गांवों में ग्रामीण हाट की प्रासंगिकता बनी हुई है और लगातार बनी रहने वाली है।

देश भर के ग्रामीण स्कूलों के साथ कार्य कर रहे अमदाबाद स्थित नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के कार्यकर्ता देवेंद्र तिवारी कहते हैं, “मेट्रो शहरों की चकाचौंध और डिजिटल क्रांति के इस दौर में ज्यादातर लोग शॉपिंग के लिए या तो मॉल में जा रहे हैं या फिर ऑनलाइन शॉपिंग का रुख कर रहे हैं। लेकिन इस ऑनलाइन बाजार की पहुंच दूर-दराज के गांवों तक बिलकुल नहीं है। इतना ही नहीं मेट्रो शहरों से सटे जिलों तक में भी इनकी पहुंच नहीं है। इसलिए अब भी भारत की ज्यादातर जनसंख्या इंटरनेट के इस बाजार की पहुंच से बहुत दूर है।” वह कहते हैं कि पूर्वांचल के गोरखपुर से सटे कुशीनगर जिले के कस्बे कसिया के पास स्थित शिवपुर गांव में हफ्ते में एक दिन यानी गुरुवार को साप्ताहिक बाजार लगता है।

इस गांव ही नहीं बल्कि इसके आसपास बसे लगभग 15 से 20 गांवों को इस बाजार का इंतजार रहता है। बाजार सजने के बाद यहां भारी भीड़ होती है और कुछ घंटों में ही ये बाजार खरीद-बिक्री से निपट भी लेते हैं। क्योंकि कई गांवों के बीच सजने वाला यह इकलौता साप्ताहिक बाजार है। इसी बाजार में पिछले चार दशकों से पुश्तैनी दुकान चलाने वाले रमेश कुमार कहते हैं कि आप दिल्ली या देश के अन्य किसी भी बड़े शहरों में जाएं, वहां के बाशिंदे अपने घर के आसपास लगने वाले बाजारों का इंतजार करते नजर आते हैं। इनके पूर्वज इन्हीं गांवों से निकले हैं और वे परंपरागत रूप से इस बाजार का इस्तेमाल करते हैं।

कुमार कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, मिर्जापुर, सोनभद्र, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़ आदि जिलों के ग्रामीण इलाकों में आज भी साप्ताहिक बाजार लोगों की जरूरतों को पूरा करने वाले अहम केंद्र बने हुए हैं। वास्तव में शहरी चकाचौंध से भरे मॉल्स के मुकाबले साप्ताहिक ग्रामीण बाजार आज भी प्रेमचंद्र की मशहूर कहानी ईदगाह के हमीद जैसे कमजोर तबके के बच्चों के लिए पिकनिक स्पॉट बने हुए हैं।

ग्रामीण हाट की उपयोगिता

हाट या ग्रामीण बाजार की उपयोगिता को अगर आंकड़ों के चश्मे से देखा जाए तो ये दुनिया के सबसे बड़े बाजार हैं। 2012 में विश्व की कुल आबादी का दस फीसद हिस्सा हैं। अमेरिका के 35,000 सुपरमार्केट की तुलना में यहां 47,000 हाट हैं और 1995 में अनुमानित वार्षिक कारोबार 1,00,000 करोड़ रुपए था। यह 2011 में देश के संगठित खुदरा क्षेत्र के कारोबार से तीन गुना है।

ग्रामीण हाट के कामकाज के तौर-तरीके उन्हें सबसे बड़ा लोकतांत्रिक बाजार बनाते हैं। छोटे उत्पादक भारत के 6 लाख से अधिक गांवों में 25 लाख बार अपनी दुकानें लगाते हैं। इन 62 फीसदी गांवों में 1,000 से कम की आबादी निवास करती है। इन गांवों में एक निश्चित जगह पर खुदरा दुकानें नहीं हैं। इस तरह ग्रामीणों के लिए खरीद-बिक्री के लिए एक ही जगह है ग्रामीण हाट। एक गांव का हाट वास्तव में स्थानीय पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है और वहां की मौसमी उपज के साथ तालमेल बिठाता है और काम करता है।

भारत के संगठित खुदरा बाजार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) पर होने वाली बहसों ने कई सवाल उठाए हैं। इनमें से एक है कि क्या बाजार को देश के छोटे उत्पादकों के अनुकूल और लाभदायक बनाया जा सकता है? ऐसा माना जा रहा है कि जब कई बड़े कारोबारी घराने इस व्यापार में शामिल हो जाएंगे तो छोटे व्यापारियों का सफाया हो जाएगा। यह नि:शुल्क ग्रामीण बाजार के सामने खतरे की घंटी है। नए संदर्भ में प्राथमिक ग्रामीण बाजारों का अध्ययन करना आवश्यक है।

दिसंबर, 2014 के इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक एंड इंजीनियरिंग शोधपत्र में मिदनापुर जिले के 27 ग्रामीण बाजारों का विस्तृत अध्ययन प्रकाशित किया है। इस अध्ययन की एक शोधार्थी आदिति सरकार कहती हैं (देखें सबसे जमीनी विपणन प्रणाली का हिस्सा हैं हाट, पेज 22), इस अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि देश में फिलहाल 7 हजार के करीब ही नियमित बाजार हैं, जबकि देशभर में 42 हजार बाजार की जरूरत है। ग्रामीण हाट खुदरा उपभोक्ता बाजार का एक बड़ा हिस्सा है और शहरी बाजार के मुकाबले अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। हाट ग्रामीण उपभोक्ता और वाणिज्यिक बाजार के बीच संपर्क की पहली कड़ी हैं। कारपोरेट घराने भी अपने विस्तार के लिए ग्रामीण हाट पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। ऐसी संभावना है कि शीघ्र ही अधिग्रहण का डर ग्रामीण क्षेत्रों में भी फैल जाएगा। जबकि योजना आयोग के अनुसार 21,000 ग्रामीण बाजारों को पंचायत और कृषि समितियों जैसे कृषि उत्पादों की देखभाल करने वाली संस्थाओं से मदद नहीं मिलती है, इसलिए ग्रामीण साप्ताहिक बाजार किसी भी बुनियादी ढांचे के बिना काम करते हैं।

झारखंड के गिरिडीह जिले के खैरा गांव में लगे साप्ताहिक बाजार में गांव वाले खरीदारी करते हुए (प्रीति सिंह)

हाट का हाल

झारखंड में गैर-लाभकारी संगठन “स्वाधीन” ने गांवों में पारंपरिक बाजारों को नए तौर-तरीकों से दोहराया है। इसने हाट की स्थापना के लिए प्रभारी स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाया है। इसके तहत साप्ताहिक बाजार शुरू करने के लिए न्यूनतम निवेश के साथ बुनियादी ढांचा बनाया। विक्रेताओं को एसएचजी में छोटे कर का भुगतान करना पड़ता है, जो रखरखाव करते हैं। इसका असर बड़े पैमाने पर पड़ा। यहां छोटी मात्रा में सब्जी का उत्पादन करने वालों को पर्याप्त पैसा मिलता है। वास्तव में ऐसे लोग सार्वजनिक मजदूरी कार्यक्रमों के तहत काम करने की तुलना में ऐसे हाट में अधिक कमाते हैं। इस तरह के प्रयोग से गांव ने शोषण करने वाले बाहरी व्यापारियों से छुटकारा पा लिया है।

इलाहाबाद में ऐतिहासिक टोंस नदी के किनारे बसे लोहंदी गांव में पिछले सैकड़ों सालों से बुधवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार की रौनक आज भी बनी हुई है। इस गांव तक पहुंचने के लिए आवागमन के साधनों का अभाव है। ग्रामीण साइकिल से या पैदल चल कर यहां पहुंचते हैं और अपनी जरूरत का सामान खरीदते हैं। पटना के स्वतंत्र पत्रकार जैनेंद्र ज्योति कहते हैं कि पिछले पंद्रह सालों में बिहार के कुछ ग्रामीण बाजारों की रौनक और भी बढ़ी है। कारण कि देश के कई गांवों में अब आवागमन के साधन पहले के मुकाबले दुरुस्त हुए हैं। व्यापारी आसानी से अपना सामान ढोकर गांवों तक पहुंच सकते हैं।

ग्रामीण इनके आने की तैयारी कई महीने पहले से करते है। पैसे बचाते हैं ताकि इन बाजारों से अपनी पसंद और जरूरत की चीजें खरीद सकें। ग्रामीणों के लिए इन बाजारों का महत्त्व गांव-घरों में होने वाले किसी सामाजिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम सरीखा होता है। बच्चों से लेकर बजुर्गों तक को हाट का इंतजार रहता है। हाट तो ग्रामीण परंपरा का अहम हिस्सा है। बिहार में लगने वाले एशिया के प्रसिद्ध हरिहर क्षेत्र का सोनपुर बाजार और सुल्तानगंज के श्रावणी मेले में आज भी खरीद-बिक्री करने वालों की रौनक लगती है।

बिहार के कोसी क्षेत्र के खगड़िया में सन्हौली गौशाला हाट को काठ बाजार भी कहा जाता है। हाट  आयोजन स्थल से कुछ ही मीटर दूर रहने वाले सेवानिवृत्त बैंककर्मी रंजीतकांत बताते हैं कि आज से 20 साल पहले 20-30 किलोमीटर दूर तक बाजार सुलभ नहीं था। अनाज तो लोग उपजाकर खा लेते थे, लेकिन मनिहारी (महिलाओं के साज-श्रृंगार) से लेकर लकड़ी के सामान तक के लिए कोई बाजार नहीं दिखता था। बच्चों के लिए झूले उस जमाने में सिर्फ सन्हौली गौशाला हाट में ही मिलते थे। दूसरे जिले के भी छोटे कस्बों में रहने वाले यहां आते थे। काठ मेले की रौनक लकड़ी के नए डिजाइन वाले फर्नीचर तो थे ही, हाट जमता तो कुश्ती जैसे आयोजनों से इसकी रंगत देखते बनती थी। कोसी में यह हाट साल में एक बार छठ पर्व के अगले दिन से सजता है और पूरे महीने चलता है।

वैशाली, समस्तीपुर, भागलपुर समेत बिहार के लगभग दर्जनभर जिलों में ही हाट की परंपरा जिंदा बची है। पटना से समस्तीपुर के रास्ते महुआ या जंदाहा, दोनों ही रास्तों से जाने पर कई जगह साप्ताहिक हाट दिखते हैं। इनमें महुआ मधौल में गाय, भैंस, बैल, बकरी का हाट लगता है। बाकी जगहों पर एक तरफ फल-सब्जी तो दूसरी तरफ बकरा-मछली का हाट सजता है। बाजार-हाट की स्थिति आज भले जो हो, लेकिन इसकी सुस्थापित परंपरा का बड़ा प्रमाण ही यही है कि कई जगहों के नाम ही इससे जुड़ गए। पटना-समस्तीपुर रूट पर दाउदनगर पेठिया, मंसूरपुर पेठिया, घटारो पेठिया, गोरौल चौकगंज पेठिया आदि में पेठिया शब्द मूलत: हाट को ही दर्शाता है।

हालांकि देश के कई इलाकों में ग्रामीण बाजारों की स्थिति कमजोर भी हुई है। दो दशक तक ऐसे कई हाट-मेलों में घूमने के बाद 2011 में “बिहार के मेले” नामक किताब लिखने वाले सुबोध कुमार नंदन कहते हैं कि 2005 तक भी अगर आप इन मेलों-हाटों में घूमने जाते तो मिट्टी के खिलौने नजर आते थे। ग्रामीण कलाकारों की कलाकारी नजर आती थी। बैटरी चलित खिलौने शायद ही दिखते थे। ग्रामीण विभिन्न पेड़-पौधों की टहनियों को काट-छांट कर और मिट्टी को कई रूप देकर खिलौने बनाते थे। बच्चों का इन हाट-मेलों से खास लगाव होता था। फिर आकर्षक लाइट-साउंड के साथ सस्ते चीनी खिलौने भी आते गए जो लकड़ी और मिट्टी की अपेक्षा ज्यादा टिकाऊ थे। इस कारण हाथ से बने सामानों का बाजार अचानक उठ-सा गया है।

महिलाओं की श्रृंगार सामग्री के आकर्षक हाट में तब कारोबारी फिरोजाबाद से चूड़ियां लेकर आते थे, लेकिन अब इसकी जरूरत नहीं बची। जिन चूड़ियों या श्रृंगार सामग्री के लिए महिलाएं पूरे साल इंतजार करती थीं, वह उनके आसपास के बाजारों में हर समय उपलब्ध होने लगीं। इसके कारण हालात बदलते गए। नंदन बताते हैं कि महिलाओं-बच्चों को आकर्षित करने वाले सामानों के साथ ही घरेलू काम की चीजें भी चीनी उत्पादकों की ओर से सस्ते में आ गर्इं। रोटी बेलने से लेकर सोने-बैठने तक की लकड़ियों के सामानों की जगह चाइनीज चीजों ने ले ली। हाटों में भी चाइनीज माल ही मिलने लगे और सामान्य बाजार भी इसी से पटे पड़े हैं। इस कारण हाट का नैसर्गिक आकर्षण खत्म हो गया। इंतजार और दूरी तय करने की जरूरत खत्म हो गई। लेकिन यहां एक बात ध्यान देने की है कि यह सब उन ग्रामीण बाजारों में हुआ जो शहरों के आसपास हैं। दूर-दराज के गांवों में ऐसी स्थिति नहीं है।

इस संबंध में झारखंड के कई गांवों में पिछले डेढ़ दशकों से सामाजिक कार्य कर रहे प्रवीर पी कहते हैं कि ग्रामीण बाजारों में मिलने वाले बहुत से सामान आज भी आधुनिक सामानों के मुकाबले में टिके हुए हैं। आज भी ग्रामीण या शहरी लोग अदरक कूटने के लिए ग्रामीणों बाजारों में मिलने वाले लकड़ी का कुटना ही इस्तेमाल में लाते हैं। मिक्सी के सामने भी कूटना बचा हुआ है। नॉर्थ ईस्ट कंज्यूमर एक्स्पो के बैनर तले बिहार के विभिन्न जिलों में लगभग 15 दिनों का हाट लगाने वाले ऋषिराज सिंह कहते हैं कि पारंपरिक सामानों को लेकर लोगों का आकर्षण नहीं घटा है। लेकिन यह बात भी सही है कि सस्ता-सुलभ और ज्यादा आकर्षक सामान ज्यादा बिक रहा है। इसकी वजह बताते हुए वे कहते हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में जाइए आपको परंपरा को आत्मसात करने वालों की जमात मिल ही जाएगी। फिर कोई भी कितनी ही तरक्की क्यों न कर ले आखिर में वह अपनी जड़ों की ओर ही लौटने को मजबूर होता है। उसे यहीं वह सुकून मिलता है जो उसके जवान होते ही शहर और बाजार की भीड़ में खो गया था।

सबसे जमीनी विपणन प्रणाली का हिस्सा हैं हाट

अदिति सरकार

नियमित हाट (आवधिक) का इतिहास अत्यंत प्राचीन है जहां किसान और स्थानीय लोग एकत्र होकर व्यापार विनिमय करते हैं। यह कारोबारी ही नहीं समाचारों के संकलन, विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक क्रियाओं में एक-दूसरे को शामिल करने का मंच भी है।
ये स्थल वाणिज्यिक क्रियाओं के साथ ही त्योहारी, एकता और सशक्तिकरण के प्रतीक होते हैं। ये बाजार भारत में जमीनी स्तर के फुटकर व्यापारियों का नेटवर्क होता है जिसे “हाट” (वेस्ट बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा), सांदे (कर्नाटक) तथा संधै (तमिलनाडु) में कहा जाता है। भारत के ग्रामीण परिवेश की सबसे जमीनी विपणन प्रणाली का हिस्सा हाट है। हाट अक्सर चल और लोचशील होता है और प्रायः इसका स्थान बदलता रहता है। ग्रामीणों को सप्ताह में एक दिन ही पूरे सप्ताह की दिहाड़ी मिलती है। ये इतना पर्याप्त होता है कि स्थानीय जरूरतें पूरी हो जाती हैं। इन हाटों को बाजार दशाओं की पारदर्शिता की खातिर बाजार नियमन के चक्र से अलग कर दिया गया है।
हाट अक्सर सूचनाओं की कमी, अनियंत्रित बिचौलियों, जबरन बिक्री, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, ज्यादा बड़े स्तर में सेवाएं उपलब्ध करने के लिहाज से उचित परिवहन साधनों और संचार सेवाओं की कमी तथा बड़े पैमाने पर इनका बंटा होना और गैरसंगठित कृषि बाजार की समस्याओं से घिरे रहते हैं। बड़ी बात यह है कि हाट समआर्थिक समूहीकरण का सार खोता जा रहा है। नई प्रौद्योगिकी के अतिक्रमण से मनोरंजन के विविध साधनों, स्मार्टफोन और ऑनलाइन फुटकर बिक्री ने ग्रामीण जनता के जीवन में प्रवेश किया है, नतीजतन व्यवस्था बिगड़ी है। जगह की उपयुक्तता और संवहनीयता इन हाटों की लोकप्रियता के प्रमुख कारक थे, इनमें जटिलताओं के समावेश से इनकी शनै: शनै: मौत शुरू हो गई और प्रतिष्ठित हाट की विलुप्ति आरम्भ हो गई।
यह देखा गया है कि एक हाट अपनी प्रसिद्धि या आकर्षण तब गंवा देता है जब इसके ग्राहक और विक्रेता घटने लगते हैं। हालिया प्रवृत्तियां इन परम्परागत आवधिक बाजारों के नवीनीकरण को उजागर करती है, खासकर जहां ग्रामीण हथकरघा उत्पादों और प्राकृतिक कृषि उपज का व्यापार होता है। चूंकि ये दोनों ही श्रेणियां ग्रामीण आबादी की कमाई के बेहतरीन विकल्प हैं, इन पर अधिक ध्यान दिया गया है। बहरहाल, प्रशासकीय इकाइयों की इस संदर्भ में भूमिका प्रशंसनीय नहीं है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जीर्णोद्धार की दृष्टि से सरकार से बजट अपेक्षित है।
इसके लिए ग्रामीण अवसंरचना जिसमें नियमित बाज़ारों और गोदामों के नेटवर्क शामिल हो, विकसित करने होंगे।हाट पशुधन के सौदे में उल्लेखनीय भूमिका अदा करते हैं। हाल में हत्या के लिए पशु बाजार से पशुओं के व्यापार पर लगी रोक से, हजारों गरीब किसान प्रभावित होंगे, क्योंकि इस रोक से वे गैर दुधारू और वृद्ध पशुओं को बेचने से होने वाली कमाई के पुश्तैनी तरीके से वंचित हो जाएंगे। निर्धन और निरक्षर क्रेता-विक्रेताओं को लम्बी कागजी कार्यवाही करनी पड़ेगी जिससे समस्या बढ़ेगी। व्यापारियों को किसानों से सीधे खरीद करनी होगी जिसकी वजह से मवेशियों के सौदे से होने वाली आय घटेगी। दूसरी तरफ राज्य विशेष के किसानों को बड़े बूचड़खानों के अभाव में पशुओं को बेचने में खासी परेशानी होगी और हाल के पशु आंदोलन कार्यकर्ताओं के घृणित हमलों से तो हालात बिगड़ेंगे।
पशुओं का अधिकतम लाभ मूल्य नहीं मिल पाने से दूध और दुग्ध उत्पादों की कीमतें बढ़ेंगी। पर्यावरण मंत्रालय के राज्य की सीमा के 25 किमी के दायरे में पशु बाजार लगाने पर रोक का नियम इनकी दुविधा को और बढ़ाएगा। यह आम धारणा है कि हाट का स्थान ऐतिहासिक रहा है जहां राष्ट्रों की विविध रंग दिखाई देते हैं। अचानक इस नियमन से हाट का स्थान बदल जाएगा जो कि रातों-रात नहीं हुआ है और न ही ऐसे ही हुआ है। नए नियमन में 30 शर्तें हैं जो बाजार में पशु कल्याण के लिए हैं और अचरज वाली बात यह है कि ये नियमन उन हाट के लिए हैं जहां पशुओं को तो छोड़िए आम आदमी के लिए भी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं।
पशु बाजार के प्रभावी संचालन के लिए ऐसे कायदों की तामील में युगों लग जाएंगे। हाट गांवों और ग्रामीणों को बड़े पक्षकारों के साथ जोड़ने की विपणन प्रणाली है। यह गौर करने का विषय होगा कि बिना सुविधाओं के कैसे भीड़ को आकर्षित किया जाएगा। ये स्थानीय समुदाय की स्थानीय गतिविधियों का केंद्र होते हैं और कृषि क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार उनकी स्थिति ग्रामीण आबादी के कल्याण सम्बंधी निर्णय का वैश्विक पैमाना होती है।
(लेखिका कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यकीय संस्थान में शोधार्थी हैं)

Subscribe to Daily Newsletter :

Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.