रिपोर्टर्स डायरी में दर्ज मजबूर प्रवासी श्रमिक : महासंकट में फिर लौट आए महानगर

देश में जब पहला सख्त राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगा तो पलायन को मजबूर मजदूरों की दुर्दशा को डाउन टू अर्थ ने पैदल चल कर अपनी डायरी में दर्ज किया था। इनमें से कुछ मजदूरों ने दो साल बाद सुनाई व्यथा

By Vivek Mishra

On: Thursday 23 December 2021
 

कोविड संक्रमण का लगातार यह तीसरा वर्ष है। 2020 में कोविड की रोकथाम के लिए लगाए गए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन ने कई लोगों को महानगरों से काम-धंधा छोड़कर गांव जाने को मजबूर कर दिया था। जहां न उनके पास रहने को घर था और न ही कमाई का कोई साधन। पोस्ट कोविड बीमारियों के साथ ही लोगों के जीवन की बदहाली भी नहीं सुधरी है। यहां तक कि कई श्रमिकों ने डाउन टू अर्थ से कहा कि जब वे गांव को लौटे थे तो कहा गया था कि सऊदी अरब की तरह अब राज्य से बाहर जाकर काम करने के लिए कार्ड बनेगा। सुरक्षा दी जाएगी लेकिन न सुरक्षा है और न ही कोई आश्वासन....डाउन टू अर्थ ने लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों के साथ यात्रा की थी। इनमें से कुछ श्रमिक फिर गुमनाम हो गए हैं और कुछ ने अपने बीते दो वर्ष के अनुभव को साझा किया है...

 

डेढ़ गुना हो गया कर्ज, कमाई 70 रुपए हर रोज

Photo : Vivek Mishraइंद्रजीत सिंह, दरभंगा  

कोविड की पहली लहर के दौरान राष्ट्रीय राजधानी में लॉकडाउन के बाद डाउन टू अर्थ की रिपोर्टिंग के साथी रहे इंद्रजीत सिंह ने सुनाई अपनी कहानी

दो साल बाद हम कोविड जैसी भयंकर त्रासदी के बीच बदहाली में जब अपने गांव पहुंचे तो आधे कच्चे और टूटे-फूटे मकान को देखकर आंखों में आंसू आ गए। हम थककर चूर थे। टीबी से ठीक हुई पत्नी दो साल के बच्चे को जैसे-तैसे संभाल रही थी। गांव में बस जाने के लिए कुछ नहीं था हमारे हाथ में। हमने शुरुआत के चार दिन खुले आसमान में जैसे जंगल में बिताए। गांव वाले दूर से खाना बनाकर हमारे पास रख देते थे। मैं उन दिनों को याद न भी करना चाहूं तो भयावह मंजर आखों के सामने नाच जाता है। 

कोविड की पहली लहर के दौरान कंपलीट लॉकडाउन के दौरान 16 मई, 2020 को मुझे पूरे परिवार के साथ आजादपुर मंडी से काम छोड़कर मजबूरी में पलायन करना पड़ा था। श्रमिक ट्रेन टिकट की राह देखते-देखते बिना अनाज के खाली पेट हम थक गए थे। आपसे मिलने के बाद हम ट्रक से निकल गए। कुल 36 घंटे की यात्रा के बाद हम दिल्ली से दरभंगा के इटहर गांव पहुंचे थे। 35 लोगें से भरी ट्रक में पूरी यात्रा खड़े-खड़े करनी पड़ी। मैं था, साथ में मेरी बीबी जिसका ट्यूबर क्यूलोसिस (टीबी) का इलाज एम्स से हो चुका था और मेरा दो साल का बच्चा, कुल 8400 रुपए खर्च करने पड़े थे।

मेरा पूरे इटहर गांव में 100 घर हैं। इनमें एक आदमी अमीर है, जिसके पास 60 बीघा जमीन है और हर बाकी 99 घर से व्यक्ति बाहर मजदूरी करने के लिए जाता है। हमारे पास कोई संसाधन नहीं है। सच कहूं उस वक्त मनरेगा से आस लगाई थी लेकिन गांव में कुछ नहीं मिला। कृषि मजदूरी भी 100 से 150 रुपए और सीजनल थी, तो रोजगार की हालत खराब रही और जैसे-तैसे गांव वालों के आपसी सहयोग से काम चलता रहा।

मैंने घर के लिए जो 70 हजार रुपए लिए थे। उस पर अक्तूबर, 2020 से प्रति 100 रुपए पर 4 रुपए ब्याज का कर्च चढ़ रहा है। मैंने अभी हिसाब नहीं लगाया है कि मूलधन के साथ कितना ब्याज भरना है। सोचूंगा तो कलेजा फट जाएगा। ( अक्तूबर से कुल 33600 रुपए का ब्याज मूलधन पर चढ़ चुका है)

सूदखोर अपने पैसे मागंता है, लेकिन मैं असहाय हूं। वह मेरा जानने वाला ही है, इसलिए थोड़ी राहत है। क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता। हिम्मत करके दूसरी बार जब मार्च, 2021 में दिल्ली पहुंचा तो कोविड की दूसरी लहर शुरू हो गई। दिल्ली से हरियाणा के हिसार में अनाज मंडी चला गया। जैसे-तैसे एक महीने काटे फिर गांव जाना पड़ा।

अब मैं जुगाड़ और पैसा लौटा देने के भरोसे से पेट्रोल खरीद कर लाता हूं। और मेरे गांव से बाजार थोड़ा दूर (4 किलोमीटर) है तो गांव के आस-पास ही 6 या 7 रुपए महंगा बेच देता हूं। दस लीटर तक तेल बिक जाता है। 70 से 100 रुपए दिन के मिल जाते हैं। इस बार मेरा दोस्त मुखिया पद पर खड़ा हुआ है अभी तो उसी के प्रचार में दिन बीत रहे थे। अगर वह जीत गया तो कुछ न कुछ हमारा भी भला हो जाएगा। मैं और मेरा गांव लगभग कोविड संक्रमण से बचा रहा यही जीवन में बीते दो साल में अच्छी बात रही।

 

हर वक्त लगा रहता है डर , घट कर आधी हो गई कमाई

Photo : Vivek Mishra

केहर सिंह, बिछिया गांव, बहराइच- उत्तर प्रदेश

कोविड की पहली लहर के कंपलीट लॉकडाउन में डाउन टू अर्थ की यात्रा के दौरान केहर सिंह साथी थी। दिल्ली एयरपोर्ट से लौट कर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में पहुंचे थे। उन्होंने लखीमपुर से कतर्नियाघाट वन्यजीव अभ्यारण्य के अपने गांव लोहरा की बीच की दूरी साथ तय की थी। उनके अनुभव :

मैं दिल्ली ही वापस आ गया हूं, करीब साल होने को है और यहीं एयरपोर्ट पर काम कर रहा हूं। लॉकडाउन के बाद उठाए कष्टों के कारण मैंने कसम खाई थी कि अब दिल्ली कभी नहीं लौटूंगा, लेकिन आना पड़ा। 7 भाईयों के बीच 5 बीघा खेत है। ऐसे में खेती से कुछ नहीं मिलता तो दिहाड़ी और पगार ही एकमात्र सहारा है। आप देखिए कितनी महंगाई आ गई है दो वर्षों में और मेरी आय घट गई है। कुल पांच लोगों का हमारा अपना परिवार है, डर लगा रहता है कि पैसा नहीं आया तो इनका क्या होगा।

कोविड की पहली लहर के दौरान मैं करीब 24 मई, 2020 को अपने गांव पहुंचा था। पुलिस थाने में जाकर अपना नाम लिखवाया था, फिर जांच के बाद गांव गया था। उस वक्त एयरपोर्ट पर ठेकेदार ने हमें पैसे नहीं दिए थे। घर पहुंचा तो पैसा नहीं था। मनरेगा के कारण मुझे पास ही के गांव में तीन-चार सरकारी स्कूलों के निर्माण का काम मिला। जाते ही यह बहुत बड़ा सहारा था, नहीं होता तो सोच कर डर जाता हूं। सच्ची बताऊं मैं उन दिनों को याद ही नहीं करना चाहता। एक महीने (मई से जुलाई, 2020) घर पर था, अचानक एसएम इंटरप्राइजेज के ठेकेदार का फोन आ गया, उन्होंने कहा कि आपके खाते में बकाया पैसा डाल देता हूं और दिल्ली आ जाओ यहां काम मिल जाएगा। मैं जुलाई, 2020 के अंत में दिल्ली एयरपोर्ट पर वापस आ गया।

फिलहाल मेरा काम एयरपोर्ट में कार्गो वाली जगहों पर निर्माण कार्य का है, लेकिन कोविड से पहले मैं जहां दो ड्यूटी करके 1000 रुपए प्रतिदिन तक कमा लेता था, वहीं अब एक ड्यूटी ही कर पाता हूं, क्योंकि एयरपोर्ट की अंतरराष्ट्रीय उड़ानों वाले कार्गो करीब-करीब बंद रहे और घरेलू काम थोड़ा बहुत जारी रहा। दो सालों में मेरी कमाई घटकर आधी हो गई है। यही मेरे लिए बड़ा धक्का कोविड ने दिया है। अगर मेरे गांव की बात करें तो जंगल के कारण वह कोविड के मामलों से अछूता रहा।

लखीमपुर से लेकर हमारे इलाकों में नदी किनारों पर जो गांव और खेत थे वो बाढ और वर्षा में जलमग्न हो गए। इसने आस-पास के कृषि रोजगारों को भी छीन लिया है। अब भी मेरे साथ के कई लोग गांवों में ही हैं। कोविड से अब तक वे लौट नहीं रहे थे, पिछले महीने उन्हें भी मुंबई जाना पड़ा है। सुना है तीसरी लहर भी आ रही है, डर लग रहा है। मैं दूसरी लहर के दौरान भी एयरपोर्ट पर ही डटा रहा, ताकि मेरे परिवार का पेट भरता रहा, क्योंकि महीने के अंत में वे पैसे को लेकर मेरी और ही ताकते हैं।

 

6 महीने बाद घर पर भेज पाया था 10 हजार रुपए

Photo : Joginder Singh

जोगिंदर सिंह, गांव सुदामा चक, जिला गोपालगंज, बिहार

कोविड की पहली लहर के दौरान राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन में डाउन टू अर्थ की यात्रा के दौरान जोगिंदर सिंह मिले, वह हापुड़ से अमरोहा तक यात्रा में साथ रहे जो अपना सारा समान एक ठेलिया पर लेकर जा रहे थे। दो वर्षों का उनका अनुभव :

मैं बीते 11 महीने से उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में ही किराए पर रहा हूं। इस डर से घर वापस नहीं गया कि जिनसे हमने उधार लिया था उन्हें पूरा चुकाना पड़ेगा। करीब 30 हजार रुपए का कर्ज मेरे सिर पर है। अभी तो चार से पांच महीने और यहीं रहूंगा। कोविड के बाद से काम-धंधा बहुत ही कम हो गया है। कोविड की दूसरी लहर के दौरान छुप-छुप कर मिस्त्री का काम करना पड़ा लेकिन घर नहीं गया।

मैं बिहार के गोपालगंज जिले में सुदामा चक गांव का रहने वाला हूं। कोविड की पहली लहर के बाद 22 मई को मैं अपनी ठेलिया के साथ उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला पहुंचा था। गांव के मुखिया ने फोन पर कहा कि वहीं सरकारी स्कूल में कोविड आइसोशलेशन वार्ड में 10-12 दिन रुककर गांव आओ। मैं करीब 4 जून, 2020 को वहां से फिर गांव पहुंचा। जब गांव पहुंचा था तो एक कट्ठा जमीन के लिए भाई से झगड़ा भी करना पड़ा, वह हमारा हिस्सा नहीं देना चाहते थे।

मेरे घर में करीब सात लोग मुझपर निर्भर हैं। पत्नी, पांच बेटियां हैं और एक 18 वर्षीय बड़ा लड़का। जब घर पहुंचा तो छह महीने तक कोई काम नहीं मिला। घर में एक रुपए नहीं आए। मेरे पास 2.5 बीघा जमीन है, खेती भी की लेकिन इतने बड़े परिवार का उससे पूरा नहीं पड़ता। पांच किलो चावल राशन कार्ड से मिलता है लेकिन उससे पूरा कहां पड़ता है। घर के और सदस्यों का नाम राशन कार्ड में जुड़वाया लेकिन पता नहीं किसने उसे कटवा दिया।

आप यकीन मानें या न मानें लेकिन लॉकडाउन के बाद सब्जी, तेल और नमक के बिना तक कुछ दिन गुजारना पड़ा है। कई महीनों तक एक वक्त का ही चूल्हा जला। 55 वर्षीय मां की तबीयत बिगड़ी, उनकी दवाई के लिए उधार लेना पड़ा। गांव में अचानक से इतने लोग पहुंच गए थे कि सबने सब्जी और छोटे-मोटे काम करना शुरु कर दिया। मैंने भी दिसंबर महीने में अपनी ठेलिया का इस्तेमाल किया लेकिन उससे कोई पैसा नहीं निकला, और मजबूरी में वापस गाजियाबाद आना पड़ा।

अब भी मैं यहां गाजियाबाद में 15 हजार रुपए बहुत मुश्किल से महीने का कमाता हूं। महीने में सिर्फ दो बार हरी सब्जी खाता हूं, बाकी दिन आलू का चोखा और दाल-चावल व रोटी से काम चलाता हूं, ताकि अपने बच्चों के लिए जमा किए हुए कुछ पैसे भेज पाऊं। कोविड से पहले यही कमाई 15 हजार रुपए होती थी। 

जब मैं दिसंबर, 2020 में करीब छह महीने बाद लौटकर गाजियाबाद आया तो जैसे-तैसे 10-15 दिन यहां गुजारे। फिर जाकर निर्माण का काम मिला। कोविड के बाद लॉकडाउन और अब भी उसका असर बना हुआ है। हमारी जिंदगियां बर्बाद हो गई हैं, जिंदगी को बचाने की लड़ाई में मैं एक साल से अपने घर वालों का मुंह तक नहीं देख पाया हूं।

 

खेत गिरवी रखना पड़ा था, दो साल से नहीं बढ़ी मजदूरी

Photo : Vivek Mishra

रमेश गौतम, महसी, बहराइच, उत्तर प्रदेश 

कोविड की पहली लहर के दौरान लॉकडाउन में पंजाब के जालंधर से उत्तर प्रदेश में बहराइच के महसी पहुंचने वाले श्रमिक रमेश गौतम ने दो साल का अनुभव साझा किया

मैंने 12 हजार रुपए देकर अपना 1.5 बीघा खेत गिरवी से छुड़वा लिया है। लॉकडाउन के बाद जब मई में घर पहुंचा था तो पैसा न होने के कारण मुझे अपना खेत गिरवी रखा पड़ा था। गांव में तीन महीने गुजारे लेकिन कोई काम नहीं मिला। परिवार के कुल आठ लोग मुझ पर ही निर्भर हैं। इस कोविड ने हमें तोड़ दिया और लगातार मेहनत करने के बावजूद जैसा अर्जन चाहिए वह नहीं मिल रहा। कोविड शुरु होने के बाद से बहुत मुश्किल में दिन गुजर रहे हैं।

मैं अपने खानदान में पहला हूं जिसने समाजशास्त्र, हिंदी विषय से बैचलर ऑफ आर्ट की डिग्री हासिल की है, लेकिन घर के हालात ठीक नहीं थे और हाईस्कूल से ही मुझे बाहर काम के लिए जाना पड़ा। 2008 में मैं पहली बार जालंधर काम के लिए गया था तब मेरी मजदूरी 130 से 140 रुपए प्रतिदिन थी, 2016 आते-आते यह 350 के आस-पास पहुंची। 2018 में 450 रुपए और तब से यह मजदूरी अटक गई है। महंगाई काफी बढ़ गई है, रोजाना बहुत बचाता हूं तो कम से कम 100 रुपए खर्च हो जाता है। महीने में घर पर करीब 10 हजार रुपए भेज पाता हूं। घर के हर एक सदस्य के लिए एक हजार रुपए महीना होता है यह बस। वहां भी मुश्किल है, अब मैं अगर यहां से गांव चला जाऊं तो शायद और बड़ा संकट खड़ा हो जाए।

लॉकडाउन के दौरान मेरे भाई लोगों को नेपाल जाकर काम करना पड़ा है। सामाजिक बदलाव यह आया है कि पहले वक्त जरूरत पर जब लोगों से कुछ पैसे उधार मांगता था तो मिल जाता था अब सबकी जेबों में पैसा नहीं है। लोग मना कर देते हैं।

दूसरी लहर के दौरान जब कोविड के मामले काफी बढ़ गए थे तब 10 से 15 दिन काम बाधित हुआ था लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हो पाई कि मैं दोबारा गांव जा सकूं। इसलिए मैं जालंधर में ही रुका रहा। अब तीसरी लहर के बारे में सुनकर डर लगता है, जो भी हो लेकिन मैं यही कह सकता हूं कि अगर मैं घर गया तो मेरे घर वाले भूखे मर जाएंगे। राशन कार्ड से जो राशन मिलता है वह हमारी जरुरत नहीं पूरा कर सकता। उससे थोड़ी ही मदद मिल पाती है। इसलिए अभी मैं हाल-फिलहाल गांव नहीं जाऊंगा और कम से कम जो मजदूरी मिल रही है वह मुझे मिलती रहे।

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