उपेक्षित और हताश युवाओं का नौकरी न ढूंढ़ना देश के लिए कितना बड़ा संकट हो सकता है?

रोजगार की संभावना से निराश हो चुकी आबादी का बड़ा हिस्सा कुछ हद तक शिक्षित है

By Shagun

On: Friday 29 April 2022
 
भारत की बड़ी आबादी युवाओं की है, जिसके बारे में उम्मीद की जाती है कि अगर उन्हे नौकरी मिलेगी, तो इससे देश तरक्की करेगा। फाइल फोटो: सीएसई

सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी ( सीएमआईई ) ने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में रोजगार से संबंधित एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक, देश की श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) जो फरवरी 2022 में 39.9 फीसदी थी, वह मार्च 2022 में गिरकर 39.5 फीसदी पर आ गई है।
 
यह दर कोरोना की दूसरी लहर यानी जून 2021 की दर से भी कम है, जो उस समय 39.6 फीसदी थी। सीएमआईई के मुताबिक, बीते मार्च में देश के श्रम-बल में 38 लाख लोगों की कमी हो गई, जो जुलाई 2021 के बाद से इसका सबसे निचला स्तर है।
 
39.5 फीसदी एलपीआर का मतलब यह है कि काम कर सकने वाले लोगों में से साठ फीसदी से ज्यादा लोग नौकरी की तलाश ही नहीं कर रहे हैं। किसी देश की श्रम भागीदारी दर, उस देश की काम कर सकने वाली ऐसी आबादी की गिनती होती है, जो या तो कहीं नौकरी कर रही होती है या फिर सक्रियता से नौकरी की तलाश कर रही होती है।

मार्च 2022 में एलपीआर के इतना नीचे जाने की क्या वजह है, क्योंकि इस महीने न तो कोविड-19 की लहर थी या फिर उसकी वजह से लोगों के आने-जाने पर लागू की गई पाबंदियां।

अर्थशास्त्रियों  के एक वर्ग का दावा है कि लाखों की तादाद में खासकर महिलाएं नौकरी से बाहर हो रही हैं। वे निराश और परेशान हैं क्योंकि उन्हें नई नौकरी नहीं मिल रही है।

स्वतंत्र आर्थिक डेटा एजेंसी सीएमआईई के विश्लेषण के मुताबिक, ‘इस बार जो बात सामने आई वह यह है कि मार्च 2022 की तिमाही की एक बड़ी अवधि के दौरान श्रम-बल और उसके दोनों घटक सिकुड़ गए। यह तीन साल में यानी जून 2018 की तिमाही के बाद पहली बार है, जब हमने श्रम-बल में इतनी गिरावट देखी है।’

कम एलपीआर कुछ समय के लिए बेरोजगारी दर के कम होने का भ्रम भी पैदा कर सकती है, जैसा कि इसने मार्च 2022 में किया था। तब बेरोजगारी दर 7.6 फीसदी दर्ज की गई थी जबकि फरवरी 2022 में यह 8.1 फीसदी थी।

नकारने की वजह
 
एक ऐसे देश के लिए जो अपनी बड़ी आबादी का इस्तेमाल कर आगे बढ़ना चाहता हो, उसके लिए काम की तलाश न करने वालों की संख्या का बढ़ना, सबसे बड़ा आर्थिक संकट हो सकता है।
 
हालांकि इस ओर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा। 26 अप्रैल को श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक बयान जरूर दिया, जिसके मुताबिक, एलपीआर के घटने और काम कर सकने वाली आधी आबादी के नौकरी पाने की उम्मीद छोड़ देने वाली रिपोर्ट ‘ तथ्यात्मक रूप से सही नहीं’ है।

मंत्रालय ने बताया: देश में रोजगार और बेरोजगारी के प्रमाणिक आंकड़ों का स्रोत सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वायन मंत्रालय है, जो आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस के जरिए आंकड़े जारी करता है, जिसके मुताबिक 2017-18 में देश की एलपीआर 49.8 फीसदी थी जो 2019-20 में बढ़कर 53.5 फीसदी हो गई थी।

हालांकि यह आंकड़े जुलाई 2019 से जून 2020 के बीच हुए सर्वेक्षण के बाद जारी किए गए थे और इनमें महामारी के बाद बढ़ी बेरोजगारी दर को शामिल नहीं किया गया है।

सीएमआईई के प्रबंध निदेशक महेश व्यास ने डाउन टू अर्थ से कहा, - ‘सरकार लंबे समय से इस बात को नकार रही है कि देश में रोजगार की समस्या बड़ी हो चुकी है। हमारे आंकड़ों के हिसाब से 2017 से 2022 के बीच कुल श्रम सहभागी दर यानी एलपीआर, 46 फीसदी से गिरकर 40 फीसदी पर पहुंच गई है।’

इंस्टीटयूट ऑफ इकोॅनमिक ग्रोथ में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरुप मित्रा का मानना है कि एलपीआर का इस तरह घटना ऐसे लोगों की बढ़ी संख्या को दर्शाता है जो नौकरी तलाशने से निराश हो चुके हैं। वह बताते हैं, - ‘जब लोगों को उनकी मर्जी के मुताबिक नौकरी नहीं मिलती या वे समझते हैं कि जॉब-मार्केट इतना खराब है कि इसमें नौकरी करने से बेहतर संघर्ष करना है तो वे नौकरी तलाशना बंद कर देते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि लोग नौकरी ढूंढते हुए थक जाते हैं। यह धीरे-धीरे उनके मनोविज्ञान पर भी असर डालता है।

इनमें से कुछ लोग अपना जीवन चलाने के लिए आजीविका के दूसरे रास्ते तलाशते हैं लेकिन इसमें समय लगता है। वह कहते हैं, - ‘इसलिए ऐसे समय में जब आप अपने सर्वेक्षण में उनकी राय लेते हैं तो वे यही कहते हैं कि वे नौकरी इसलिए नहंी कर रहे क्योंकि बाजार में नौकरी है ही नहीं।

भारत की बड़ी आबादी युवाओं की है, जिसके बारे में उम्मीद की जाती है कि अगर उन्हे नौकरी मिलेगी, तो इससे देश तरक्की करेगा।

व्यास कहते हैं कि इस युवा श्रम-बल को अच्छी नौकरी मिलनी चाहिए थी। तब वे न केवल खुद के धन और देश की संपत्ति में वृद्धि करते, बल्कि वे बचत भी करते और उन बचतों से विकास को भी बढ़ावा मिलता।  उनके मुताबिक, ‘हर दिन नए युवा श्रम-बल में शामिल हो रहे हैं लेकिन देश उन्हें रोजगार दे पाने में सक्षम नहीं हो पाया है।’

व्यास कहते हैं - ‘आप एक सीमा तक नौकरी पाने की कोशिश करते हैं और उसके बाद उसे तलाशना छोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए, अगर मुंबई का एक ग्रेजुएट युवा एक नौकरी पाने की कोशिश करता है लेकिन काफी तलाश के बावजूद उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह क्या करेगा। वह एक रियल एस्टेट दलाल बन जाएगा, जिसमें कुछ लगना नहीं है। उसके बाद वह प्रॉपर्टी के लेनदेन में अपने लिए कुछ हिस्सा पैदा करने में लग जाएगा।’

काम नहीं तलाश रहे शिक्षित

अर्थशास्त्रियों और श्रम विशेषज्ञों का मानना है कि रोजगार की संभावना से निराश हो चुकी आबादी का बड़ा हिस्सा कुछ हद तक शिक्षित है। सीएमआईई के सर्वेक्षण में शामिल आबादी में 15 से 64 आयु-वर्ग की है। इसमें शिक्षा पूरी करने वालों की तादाद बढ़ रही है और ये 15 से 29 आयु वर्ग में जुड़ रहे हैं। इनमें ज्यादा संख्या उनकी है जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही।

हर साल लगभग पचास लाख नए युवा नौकरी की तलाश में जुटते हैं। जाने-माने अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा के मुताबिक, - ‘ ये वे युवा होते हैं, जो हर साल नौकरी तलाशते हैं और जब उन्हें काम नहीं मिलता है तो वे जॉब-मार्केट से बाहर हो जाते हैं। यह सामाजकि ताने-बाने पर भी असर डालता है।’
 
सरकार ने अपने एक बयान में यह तर्क भी दिया कि काम कर सकने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा हासिल करने में जुटा है और इसलिए वह नौकरी तलाश ही नहीं रहा। मानव विकास संस्थान में रोजगार अध्ययन केंद्र के निदेशक रवि श्रीवास्तव इसकी व्याख्या करते हैं।

उनके मुताबिक, - ‘आमतौर पर बिल्कुल युवाओं की बजाय दूसरी आयु- वर्ग के लोग ज्यादा नौकरी तलाशते हैं। पढ़ाई पूरी करने में लगे युवा कुछ समय बाद नौकरी तलाशते हैं। लेकिन फिलहाल यह स्थिति नहीं है। आज के हालात में तो काम की मांग ही नहंी हैं क्योंकि मौके कम हो रहे हैं।’

हालांकि इसका मतलब यह भी नहंी है कि केवल शिक्षित युवा ही नौकरी न मिलने से हताश हो रहे हैं। महामारी के बाद सिलाई, ब्यूटी पार्लर, और स्टेशनरी की दुकानों जैसी सूक्ष्म और लघु इकाईयों के बंद होने की वजह से भी तमाम लोग जॉब- मार्केट से बाहर हो गए हैं।

व्यास के मुताबिक, मान लीजिए कि एक दसवीं या बारहवीं पास युवा जो किसी स्थानीय दुकान में हेल्पर था या कोई युवा महिला जो किसी छोटे कस्बे के पार्लर में काम करती थी। इन लोगों को अपनी आजीविका का जरिया इसलिए छोड़ना पड़ गया क्योंकि इनका काम ही बंद हो गया।

महिलाओं का योगदान खासतौर से कम हुआ
 
देश की महिला श्रम शक्ति में लगातार गिरावट आई है, जो एलपीआर के कम होने के प्रमुख कारणों में से एक है। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक, 2016-17 में 15 फीसदी की तुलना में 2021-22 में महिला एलपीआर सिर्फ 9.2 फीसदी थी।
 
व्यास इसे देश के लिए काफी दुखद मानते हैं। उन्होंने कहा, - ‘इसकी मुख्य वजह यह है कि महिलाओं के लिए काम करने के मौके कम हैं और उस पर भी  महिलाओं को काम करने की जगह पर पुरुषों की तुलना में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।’

महिलाओं के लिए सुरक्षा, काम की जगह का उनके रहने की जगह से बहुत दूर होन, आने-जाने के साधनों की दिक्कत, पुरुषों के मुकाबले ज्यादा भेदभाव आदि ऐसे कारण हैं, जो पहले से खराब जॉब-मार्केट में महिलाओं की जगह और कम कर रहे हैं।

श्रीवास्तव के मुताबिक, ‘शिक्षा, रोजगार या प्रशिक्षण में नहीं, यानी नॉट इन एजुकेशन, इम्प्लॉयमेट ऑर ट्रेनिंग (एनईईटी) की दर महिलाओं, विशेष रूप से युवा महिलाओं के लिए, नीचे जाने के बजाय लगभग स्थिर रही है। वहीं छोटी आयु वर्ग की आधी महिलाएं मूल रूप से न तो श्रम-शक्ति में हैं और न ही वे काम ढूंढने की कोशिश कर रही हैं।’ अगर कम उम्र की और महिलाएं पढ़ाई कर रही हैं या उनके रोजगार की दर स्थिर है तो एनईईटी की दर नीचे आनी चाहिए लेकिन मैंने पाया कि ऐसा नहीं है।

वह आगे कहते हैं कि इसका मतलब है कि बड़ी तादाद में महिलाएं श्रम-शक्ति से बाहर हैं- चाहे वे घर के काम कर रही हों या फिर उन्हें नौकरी पाने से हतोत्साहित किया जा रहा हो। वे काम की तलाश नहीं कर रही हैं क्योंकि काम करने की जगह परं उन्हें जिस तरह के अवसरों की जरूरत है, वह मौजूद नहीं है या अपेक्षित संख्या में नहीं हैं। श्रम-शक्ति के प्रति लगाव व्यापक रूप से कम हो रहा है क्योंकि महिलाओं को काम करने के लिए हतोत्साहित किया जाता है।
 
श्रीवास्तव का आकलन है कि युवा महिलाओं में एनईईटी की दर काफी ज्यादा यानी 49- 50 फीसदी है। यह दर 2004-05 यानी पिछले बीस सालों से स्थिर है। विशेषज्ञों का मानना था कि इस दौर में शिक्षा के लिए महिलाओं का पंजीकरण बढ़ने से एनईईटी की दर कम हो जाएगी।  

छिपी बेरोजगारी
श्रीवास्तव ने कहा कि रोजगार के सृजन के लिए विशेष स्तर के प्रयास नहंी किए जा रहे और उनकी गुणवत्ता में कमी आई है। हालांकि वह यह भी मानते हैं कि संगठित क्षेत्र के कुछ खंडों की गतिविधियों में तेजी आने के साथ एक प्रकार का आर्थिक पुनरुद्धार हुआ है।
 
उनके मुताबिक,- ‘काम के मौके घटे हैं और उच्च स्तर के गुणवत्ता के रोजगार की जगह निम्न स्तर की गुणवत्ता वाले रोजगार ने ले ली है। बहुत से लोग नियमित और यहां तक कि अनौपचारिक रोजगार छोड़कर खेती या उसके जैसे स्वरोजगार की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।’
 
सीएमआइई के आंकड़ें भी यही दर्शा रहे हैं। मार्च 2022 में जहां एक ओर, गैर-कृषि नौकरियों में 1.67 करोड़ की भारी गिरावट आई, वहीं कृषि में रोजगार में 1.53 करोड़ की वृद्धि से इसकी भरपाई हुई।
 
इस तरह की भारी वृद्धि आमतौर पर कटाई के सीजन में देखी जाती है, जब खेत में मजदूरों की मांग बढ़ती है लेकिन इस बार यह वृद्धि मार्च में ही देखी गई, जब कटाई अभी एक महीने दूर है, यह स्थिति असामान्य है।
 
अर्थशास्त्रियों ने इस वृद्धि को छिपी बेरोजगारी की संज्ञा दी है, जिसमें ऐसे लोग, जिनमें ज्यादातर एक ही परिवार के सदस्य जो पहले कहीं और काम करते थे, अब अपने खेतों में बिना वेतन के मेहनत करते हैं।

व्यास कहते हैं, - ‘फ्री में राशन देने जैसी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं केवल यह सुनिश्चित करती हैं कि ‘कहीं कोई विस्फोट न हो, कोई बड़ा शोर-शराबा न हो। लोगों को थोड़ा राशन देने से उनके गुस्से के ज्वालामुखी को फटने से रोका जा सकता है। ’ वह कहते हैं कि एलपीआर के कम होने की प्रवृत्ति महामारी से पहले भी थी लेकिन महामारी के संकट ने तो हालात को बद से बदतर बना दिया है।

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