आत्मनिर्भरता के अर्थ और अनर्थ

आत्मनिर्भरता के लिए अनिवार्य है कि किसानों और मजदूरों को पहले आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया जाए

By Ramesh Sharma

On: Monday 18 May 2020
 
इलेस्ट्रेशन: तारिक

 

महात्मा गांधी ने भारत के नीति निर्माताओं और सुधारकों को जंतर देते हुए कहा था कि - "... जो सबसे कमजोर और गरीब आदमी तुमनें देखा हो, उसे याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उसे कुछ लाभ पहुंचेगा ? क्या उससे वह अपने जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा ? यानि क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है ? " यह जंतर एक ऐसा सर्वकालिक सत्य है, जिसे विगत सात दशकों से लगातार खंडित किया जाता रहा है। कभी-कभी समाज के द्वारा और अकसर समाज के द्वारा चुनी हुई सरकारों के द्वारा भी। 

क्या आत्मकेंद्रित समाज और आत्ममुग्ध सरकार 'आत्मनिर्भरता' के सपने को सच कर सकती है ? इस बुनियादी प्रश्न का सार्वजनिक उत्तर है -नहीं। भारत जैसे देश में आत्मनिर्भरता का मार्ग महात्मा गांधी के जंतर से जनमता है। आत्मसम्मोहित - नीतियां, कानून, योजनाएं और घोषणाएं तो अब तक तो करोड़ों विपन्नों के इस देश में मील का पत्थर साबित नहीं हो सकी हैं। गरीबी रेखा के ऊपर और नीचे खड़े  तबकों के बीच का गहराता फासला अब तक गढ़े गए मार्गों की त्रासदी खुद बयां कर रही हैं। 

महात्मा गांधी आर्थिक स्वायत्तता या आत्मनिर्भरता को राजनैतिक स्वाधीनता की कुंजी कहते थे। उनका मानना था- भारत के निर्माताओं के सामने दो रास्ते हैं - अधिकाधिक उत्पादन और अधिकाधिक लोगों के द्वारा उत्पादन। पहला मार्ग एक नई आर्थिक गुलामी की ओर ले जाएगा और दूसरा - आर्थिक आत्मनिर्भरता के रास्ते हमें आगे बढ़ायेगा।

आजादी के बाद  प्रामाणित रूप से विशेषाधिकार  संपन्न निर्वाचित प्रतिनिधियों ने पहला मार्ग अपनाया और पूरा तंत्र उसके पीछे खड़ा हो गया। वंचित समाज जब तक कुछ समझ पाता, इससे पहले ही देश 70 बरस का सफर तय कर चुका है। देश के निर्माण का विशेषाधिकार, विपन्नों के हाथों से छिनता गया और निजी आर्थिक प्रतिष्ठानों पर अघोषित आर्थिक निर्भरता,  महामारी बन गई। एक ऐसी महामारी जिसका शिकार गरीबी रेखा के नीचे भौंचक खड़े हमारे अपने ही नये अर्थतंत्र के नये गुलाम हैं।

उन करोड़ों विपन्नों को किन्ही भी वायदों और कायदों में कोई भी नया नाम दिया जा सकता है,  लेकिन अर्थव्यवस्था में उन विपन्नों के परमार्थ का कोई मार्ग बनाने का अर्थ - तंत्र को एक सीमा तक बाजारीकरण के सम्मोहन से मुक्त करना ही हो सकता है। दुर्भाग्य से महात्मा गांधी का जंतर आज भी असरकारी और सरकारी विकास की कसौटी नहीं है, इसीलिये लगातार हम राज्यों के  संदिग्ध प्रयासों के आसान शिकार होते रहे हैं। और अब  वर्तमान संकट और महामारी के संक्रमणकाल में हमारी सदाशयता 'नएपन' के नए प्रतिमानों की तलाश में है, लेकिन  यदि जारी संक्रमणकाल के बाद भी कुछ नया नहीं हो सका - तो उस दुर्भाग्य के भागीदार हम स्वयं  होंगे। 

यह प्रश्न लाज़िमी ही है कि नयापन केवल अर्थतंत्र का होना चाहिए या उस पूरी व्यवस्था का जो समय से आगे चलने की आपाधापी में करोड़ों लोगों को भूखा पीछे छोड़ आई है। 

भारत में कम से कम अब तो 'हिन्द स्वराज' को उसका वह स्थान मिलना ही चाहिए, जो हम महात्मा गांधी के जीवनकाल में उसे नहीं दे पाए थे। आर्थिक स्वायत्तता का जो मार्ग ‘हिन्द स्वराज’ के माध्यम से महात्मा गांधी ने कही, आज लगभग सौ बरस बाद वह हमेशा से कहीं अधिक समसामयिक है। हिन्द स्वराज के बरअक्स पहले यह समझना जरूरी है कि हिंदुस्तान का अर्थ राज्यतंत्र नहीं, बल्कि वो करोड़ों किसान और मजदूर हैं जो राज्य और अर्थ तंत्र की बुनियादें हैं।

‘आत्मनिर्भरता’ हम देश की चाहते हैं या उन करोड़ों विपन्नों की - यह पहले तय करना होगा, ताकि उपयुक्त साधन भी उसी के अनुसार तलाशे और तराशे जा सकें।

राज्यतंत्र के आत्मनिर्भर होने का उद्देश्य और अर्थ, लोकतंत्र के बहुसंख्यकों (किसानों और मजदूरों) के आत्मनिर्भरता से ही मुमकिन है। इसीलिए आत्मनिर्भरता के लिए अनिवार्य है कि किसानों और मजदूरों को पहले आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया जाए। और इसके लिए जरूरी है कि राज्य उनके लिए वो साधन और संसाधन सुनिश्चित करे, जिसे पाकर वो अपने परिवार और समुदाय को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ सकें। 

भारत में बहुसंख्यकों के आत्मनिर्भरता का आधार 'संसाधनों और अवसरों के समान वितरण’ के दर्शन और आचरण से ही संभव है। आधी आबादी को राज्यतंत्र पर निर्भर कर देना, भारत जैसे महादेश में आत्मनिर्भरता का अधूरा प्रयोग ही साबित हुआ है। 

वास्तव में “आत्मनिर्भरता का अर्थ राज्यतंत्र पर निर्भरता नहीं है” इस बुनियादी सत्य को स्वीकार्य किए बिना कोई भी नया प्रयोग, अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है, इसकी पूरी संभावना है और रहेगी। 

भारत के लगभग 8-10 करोड़ आदिवासी समाज का अधिकार, पहचान और आजीविका उनके अपने वन और वन संसाधन हैं। उनकी आत्मनिर्भरता का सबसे सरल मार्ग आदिवासी समाज को वनों, वन संसाधनों और वनभूमि के अधिकार देने से ही आएगा, लेकिन यदि राज्यतंत्र ने इन आत्मनिर्भरता के संसाधनों को 'जनहित और विकास' के नाम पर अधिग्रहित कर लिया तो रायगढ़, बड़वानी, सुंदरगढ़, धनबाद और खम्मम के आदिवासियों को महानगरों के  कंपनियों में मरने-खपने से कोई नहीं रोक सकता है। राज्यतंत्र के लिए यह समझना जरूरी है कि उन करोड़ों वंचितों की आत्मनिर्भरता का माध्यम न तो 'रोजगार गारंटी कानून' है ना ही 'पारदर्शी उचित मुआवजे वाले कानून' से उनका परमार्थ संभव है। इसे मध्यमार्ग मानने की गफलत में भी नहीं रहना चाहिए।

विगत एक दशक में जिन्होंने इस मध्यमार्ग को असफल होते नहीं देखा है, उन लोगों को आज तालाबंदी (लॉकडाउन) से हताश होकर अपने गावों में लौटते और सड़कों पर बेवजह मौत का शिकार होते हुए लाखों लोगों को अपनी आंखें खोलकर देखने का प्रयास करना चाहिए। आज उनकी हताशा, पूरे विकास तंत्र की असफ़लता का सार्वजनिक बयान है।  शहडोल के निर्दोष मजदूरों को उनकी नींद ने नहीं बल्कि जिस व्यवस्था (या दुर्व्यवस्था) की नीम बेहोशी  ने मारा है। उसे पहचानने और स्वीकारने का साहस, कम से कम अब तो सरकार और समाज में होना ही चाहिए।

आत्मनिर्भरता अपनाने के लिये जिस साहस की जरूरत है क्या उसके लिये सरकार और समाज तैयार है ? इस प्रश्न का औसत उत्तर है, नहीं। फिलहाल समाज और राज्य की सार्वजानिक निर्भरता जिस  बाजार और आर्थिक प्रतिष्ठानों पर है, वही आत्मनिर्भरता के बुनियादी अनुशासन और आचरण के लगभग खिलाफ हैं। यथार्थ है कि 'रोटी, कपड़ा और मकान' के बुनियादी अधिकारों के सामाजिक मानकों पर भी एकाधिकार उस बाजार का है, जिस पर निर्भरता को खत्म करना तो दूर बल्कि न्यूनतम करना भी लगभग नियंत्रण से बाहर है। ऐसे संक्रमणकाल में 'आत्मनिर्भरता' की शुरुआत, शिद्दत के साथ 'आत्मावलोकन' से गढ़ना और बढ़ना चाहिए। 

आज से लगभग एक सदी पहले हिन्द स्वराज लिखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जो सपना था, वही अब समाज और सरकार  की  आंखों में होना चाहिए। पूरी एक सदी के बीत जाने के बाद  महात्मा गांधी को सम्मान देने का अवसर आज हमारे साथ और हमारे हाथ है।

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