पलायन की पीड़ा-2: खेतों में नहीं होती गुजर बसर लायक पैदावार

लॉकडाउन के बाद प्रवासी मजदूरों की वापसी ने देश के सामने एक सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर पलायन होता ही क्यों है? डाउन टू अर्थ की खास पड़ताल

By Bhagirath Srivas

On: Thursday 02 April 2020
 
यह है उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले का गांव गढ़ी, जहां से बड़ी संख्या में पलायन हो चुका है। फोटो: विकास चौधरी

कोरोनावायरस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए देश भर में लॉकडाउन की घोषणा होते ही बड़े शहरों में रह रहे प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने लगे। चिंता थी कि 21 दिन के लॉकडाउन के दौरान काम नहीं मिला तो क्या करेंगे, कहां रहेंगे? रेल-बस सेवा बंद होने के बावजूद ये लोग पैदल ही अपने-अपने गांव की ओर लौट पड़े। कोई सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हुए अपने-अपने घर पहुंच चुका है तो लाखों मजदूरों को जहां-तहां रोक दिया गया है। लेकिन इस आपाधापी में एक सवाल पर बात नहीं हो रही है कि आखिर हर साल लाखों लोग पलायन क्यों करते हैं? डाउन टू अर्थ ने इन कारणों की व्यापक पड़ताल की है। इसे एक सीरीज में वेब में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के एक गांव के लोग, जो सदियों से पलायन का दंश झेल रहे हैं। पढ़ें, दूसरी कड़ी

कोर्रा कनक की तरफ फतेहपुर जिले के गढ़ी गांव में भी पलायन चरम पर है। गांव से पलायन तो लंबे समय से हो रहा है लेकिन इसमें तेजी 15 साल पहले आई। स्थानीय पत्रकार चंद्रभान सिंह त्यागी बताते हैं,“शुरुआत में गढ़ी गांव के लोगों ने गुजरात के नवसारी और सूरत जिले में पलायन किया। गुजरात के इन शहरों की घेर लकड़ी मुहल्ले और गणेश नगर में गांव के लोग बहुतायत में हैं।” बाद में लोगों ने आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और दिल्ली-एनसीआर का रुख किया। इस गांव में डाउन टू अर्थ की टीम जितने भी लोगों से मिली, उनमें लगभग सभी परिवारों से लोग शहरों में गए थे। 52 वर्षीय बैजनाथ सिंह भी ऐसे ही लोगों में हैं। उनके दो बेटे हैं। बड़ा बेटा कुलदीप 15 साल पहले सिकंदराबाद गया था जबकि छोटा बेटा पांच साल से गोवा में है। बैजनाथ के कुल 5 बीघा खेत हैं जिसमें से 4 बीघा यमुना की कटान की भेंट चढ़ चुके हैं। वह बताते हैं कि उनके बेटों के पास गांव छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। गांव में मिले 65 वर्षीय देवीदयाल सिंह ने बताया, “मेरे पांच में से चार बेटे सिकंदराबाद और एक अहमदाबाद में है। वे साल में दो बार आते हैं। उन्हीं की बदौलत घर चल रहा है।” देवीदयाल के पास कुल 3 बीघा जमीन है। 

वह बताते हैं कि पिछले 5 साल से जमीन में कोई पैदावार नहीं हुई। इस साल अच्छी फसल की उम्मीद थी लेकिन वह भी ओलों की भेंट चढ़ गई। देवीदयाल की तरह बाबू सिंह के तीनों बेटे भी महाराष्ट्र और गुजरात में हैं। कोई वाचमैन की नौकरी करता है तो कोई ड्राइवर की। ग्रामीण जितेंद्र सिंह बताते हैं कि गांव के कुल 1,800 मतदाताओं में से करीब 80 प्रतिशत मतदाता पलायन कर गए हैं। ग्रामीण हितराम सिंह ने तो 1971 में ही गांव छोड़ दिया था। इस वक्त वह गांव में अपना घर देखने आए हैं। गांव क्यों छोड़ा? यह सवाल पूछने पर बताते हैं, “खेत हर साल बाढ़ के पानी में समा जाते थे। ऐसे में गांव नहीं छोड़ते तो और क्या करते?”

 

वहीं, देवलान गांव में कटान की समस्या तो नहीं है लेकिन यहां आमतौर पर हर दूसरे या तीसरे साल बाढ़ जरूर आती है। यही वजह है कि गांव की 5,000 की आबादी में से 20 प्रतिशत पलायन कर चुकी है। 18 साल से अधिक उम्र वाले अधिकांश युवक गांव छोड़ चुके हैं। देवलान के पूर्व प्रधान राम सिंह गांव के सबसे बड़े किसान हैं। उनके पास करीब 100 बीघा खेत हैं लेकिन इतने खेत से भी गुजर बसर लायक पैदावार नहीं हो पाती। गांव के 95 प्रतिशत किसानों के पास 10 बीघा से कम जमीन है। इनके लिए तो खेती घाटे का ही सौदा है। हम गांव के जिन पांच घरों में पहुंचे, जहां कोई पुरुष नहीं मिला। घर में बच्चे और महिलाएं ही थीं, पुरुष शहरों में कमाने गए थे।

डाउन टू अर्थ फतेहपुर के एक ऐसे गांव भी पहुंचा जो पूरी तरह उजड़ चुका है। इस गांव का नाम है तिहार। पर्यावरण की जिस त्रासदी से फतेहपुर कोर्रा कनक और गढ़ी गांव झेल रहे हैं, उसे तिहार गांव सत्तर के दशक में ही झेल चुका है। यह गांव 1976 से उजाड़ है। सतही तौर पर देखने से पता ही नहीं चलता कि यहां कोई गांव है। गांव के अवशेष भी बेहद ध्यान से देखने पर नजर आते हैं। इस गांव से 42 साल पहले विस्थापित हुए रामकृपाल सिंह निकटवर्ती एकडला गांव में रहते हैं। रामकृपाल हमें ऊबड़-खाबड़ रास्ते से लेकर तिहार पहुंचे। यहां वह हर साल पूजा करने आते हैं। गांव की एकमात्र निशानी मंदिर है जो इस वक्त अच्छी स्थिति में है। ज्यादातर कच्चे घर थे जो मिट्टी में मिल चुके हैं। 

रामकृपाल बताते हैं कि गांव में पीने के पानी का घोर संकट था। पानी का एकमात्र जरिया यमुना नदी थी। करीब आधा किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता था। गांव में कुएं नहीं थे और उस समय नलकूपों का भी चलन नहीं था। पानी की कमी और खेती में नुकसान के कारण लोगों ने गांव छोड़ना ही मुनासिब समझा। रामकृपाल उस वक्त महज चार साल के थे। वह बताते हैं, “1976 में गांव में 250 लोगों की आबादी थी और ज्यादातर लोग निषाद और सोनकर समुदाय से थे।” रामकृपाल बताते हैं कि पलायन की तत्कालिक कारण डाकुओं का खौफ था। गांव के लोगों ने सत्तर के दशक में एक कुख्यात डाकू को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया था। डाकू ने धमकी थी कि जेल से छूटने पर वह गांव को बर्बाद कर देगा। उसके डर से भी लोग गांव छोड़कर भाग गए।

फतेहपुर में तिहार जैसे गांवों को सरकारी भाषा में गैर आबाद गांव कहा जाता है। फतेहपुर के कुल 1,721 गांवों में करीब 55 गांव हैं जो गैर आबाद हैं। इन गांवों में हिंदुपुर, हरजू पट्टी, सिहौरी कछार, सिरकिंडिया, सरायपार, सराय अब्दुल गनी, समदा, लोटार, रसूलपुर कछार, मकरी खोह, भदकार कछार, पालीकरनपुर कछार, तारनपुर, जैतपट्टी, जुनैदपट्टी, जिरायत मुंगारी, चौका, चांद, चौरा, गंगापुर, ककरा कछार, कबरा, गडरहा, अराजी रतौरा, इब्राहिमपुर कछार, गोपालपट्टी आदि शामिल हैं। चंद्रभान सिंह त्यागी बताते हैं कि ज्यादातर गांव प्रकृति की मार की वजह से उजड़े हैं। फतेहपुर जिले के एक तरफ यमुना नदी तो दूसरी तरफ गंगा नदी बहती है। ये नदियां जिले को बाढ़ के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती हैं, जिसका नतीजा अक्सर पलायन के रूप में देखने को मिलता रहता है। 

आगे पढ़ें: देश के 75 जिले, जहां होता है सबसे अधिक पलायन

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