छत्तीसगढ़ के गांवों से क्यों मजदूरी करने शहरों में जाते हैं लोग

छत्तीसगढ़ सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, कोरोना काल के समय में करीब सात लाख प्रवासी श्रमिकों ने घर वापसी की है

By Mamta Sonwani

On: Wednesday 26 May 2021
 
Migrant workers head back homes from Delhi on foot. Credit: Vikas Choudhary

कोरोनावायरस महामारी में कई प्रकार की समस्याएं देखने को मिली है। इनमें से एक है मजदूरों की समस्या। अगर छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूरों की बात करें तो इस राज्य में 80 प्रतिशत की आबादी खेती-किसानी के कामों से जुड़ी हुई है। यहां के किसान और खेतिहर मजदूर अधिक आय के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं।

छत्तीसगढ़ सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, कोरोना काल के समय में करीब सात लाख प्रवासी श्रमिकों ने घर वापसी की है। (कलेक्ट-कम्युनिटी  लेड लोकल एंटाइटलमेंट और क्लेम ट्रैकर ) के माध्यम से  कोरोना में लॉकडाउन के उपरान्त  वंचित समुदाय (अनुसूचित जनजाति , अनुसूचित जाती ,पलायन मज़दूर ) की  परिस्थिति  को समझने में सहायता  मिली। इस दौरान विकासखण्ड मस्तुरी के मनोज मधुकर ने बताया कि हम लोग खेती के लिए बारिश पर निर्भर रहते हैं। इसलिए हमें अपना पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों या शहरों में जाना पड़ता है।

छत्तीसगढ़ के 2011 जनगणना के अनुसार एक परिवार के पास 0.27 हेक्टेयर खेती की जमीन है। और एक मौसम में एक ही खेती होती है,उसमें भी बारिश के ऊपर निर्भर होते है। अगर अच्छी खेती हुई तो ठीक नही तो आय कम हो जाती है,और घर चलाने के लिए प्रवास करना होता है।

प्रवासी मजदूर की विभिन्न समस्याएं होती है, जैसे कि हमें गांव या कस्बे में रहते हुए रोटी, कपड़ा, मकान की भरपाई ना हो पाना और बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए भी एक जगह से दूसरे जगह प्रवास करना होता है।

मनोज सिंह कहते हैं, हम लोगों को प्रतिदिन 250 रुपये मिल सके, इसलिए मजदूरी करते हैं और अपने घर के खर्चे चलाते हैं। जैसे-ईंट के भठ्ठो में जाकर के ईट बनाना औऱ इनसे मिले पैसों को अपने बच्चों की पढ़ाई,लिखाई के लिए और खाना के लिए खर्च करना। गांव में अधिकतर लोगों को साल भर काम नहीं मिल पाता। जनगणना 2011 के अनुसार छत्तीसगढ़ में कुल कर्मियों की संख्या 1,21,80,225 जो कि कुल जनसंख्या का 47.7% है । बिलासपुर जिले में श्रमिकों की संख्या 8 लाख के आसपास है।

काम न होने के कारण बच्चों को सही पोषक तत्व नहीं मिल पाता। माता पिता को प्रतिदिन अपने बच्चों की चिंता लगी रहती है, की वे अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई और खानपान का खर्च कैसे उठाएं। ऐसे में उनके पास प्रवास के अलावा कोई चारा नहीं बचता।

गांव में मनरेगा के तहत काम मिलता है, लेकिन पैसे समय से नहीं आते। बैंक के चक्कर काटते काटते लोग परेशान हो जाते हैं। कई लोग पैसे की तंगी में अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई की भी नहीं सोचते और परिवार समेत दूसरे राज्य में पलायन कर जाते हैं। जिससे घर की गरीबी स्थिति और भी बढ़ जाती है।

मस्तुरी के सुधीर सूर्यवंशी,  प्राइमरी स्कूल के शिक्षक है, कहते है कि प्रवासी मजदूर वोट डालने के समय घर आते हैं, और अपनी नागरिकता का प्रमाण देकर चले जाते हैं,और सरकार द्वारा दी जाने वाली बहुत सारे लाभों से वंचित हो जाते हैं। जिससे वे गरीबी की ओर और अग्रसर हो जाते हैं और अपनी स्थिति का जिम्मेवार सरकार को ही बताते हैं.।

 उनके बच्चों के अधिकार भी छीन लिए जाते हैं। जैसे शिक्षा का अधिकार,स्वास्थ्य का, इससे वे आगे चलकर बेरोजगार ही रह जाते हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक अर्ध विकसित मानसिकता के कारण गांव में ऐसे प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ती जा रही है। 

बहुत सारे लोग तो गांव के साहूकार से या गांव के कोई रिश्तेदार से 20,000-30,000रुपये कर्ज लेकर कमाने चले जाते हैं.।इन कर्ज़ को चुकाने में ही उनकी सारी उम्र चली जाती है और इस प्रकार वे अपनी बहुत सारी इच्छाओं को मारकर निरंतर प्रवासी मजदूर ही बने रहते हैं। जमीन के कारोबारी लेनदेन के कारण बहुत सारे लोगों को अपना घर बार छोड़कर या बेच कर प्रवास करना पड़ता है, और बहुत सारे लोगों को तो अपने  गहने बैंक बैलेंस सब कुछ को देना पड़ता है।

अधिकतर गांव के मजदूर अपने सपने पूरे करने के लिए प्रवास को बेहतर समझते हैं,जैसे 6 महीने या 7 महीने के लिए प्रवास करने से वे 40 से 50 हजार कमा कर लाते हैं।और उसी से अपना  घर बनाते हैं और अपनी बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च भी उसी से उठाते हैं। ऐसे माता-पिता ज्यादा शिक्षित नहीं होते और अपने कार्य क्षमता के अनुसार काम ढूंढते रहते हैं।

लीला बाई भी प्रवासी मजदूर हैं और हाल ही में लौटी हैं। वह कहती है, "बाहर बाहर ही होता है अपना देश ,राज्य,गांव अपना ही होता है।" बाहर में अपने गांव के परिवेश जैसा  माहौल नहीं मिलता और झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। ढंग से बिजली पानी नहीं मिल पाता, फिर भी जैसे-तैसे रह लेते हैं,लोगों के दबाव में भी रहते हैं.। बहुत सारे मजदूर पूरे पैसों को लिए बिना ही घर वापस आ जाते हैं ,क्योंकि जो ठेकेदार और जमादार होते हैं। वह पैसे देने में कोताही करते हैं और देर से देते हैं।

अक्सर गांव के मजदूर जनवरी माह से पलायन करना शुरू कर देते हैं,और 6 महीने के बाद आते हैं ।

नितिन केवट जो कि वापस आए प्रवासी मजदूर हैं कि मजदूरी के लिए बाहर जाना हमारी मजबूरी है। मस्तुरी विकासखण्ड के गांव वेदप्रसाद बताते है,कि परिवार के बहुत सारे सदस्य जो घर पर ही रह जाते हैं।और काम करने लायक नहीं होते,जैसे-बच्चे और बुजुर्ग वे पलायन करने वाले माता-पिता पर ही निर्भर रहते हैं।और उनके आने का इंतजार करते हैं। तब तक गांव में उनके खाने-पीने का व्यवस्था करने के लिए दुकानदारों से उधारी खाता चलता है। और कपड़े के दुकान हो या बर्तन के दुकान राशन के सभी में उधारी खाता चलाते हैं ।और जब माता-पिता आ जाते हैं तो वही दुकानदार ज्यादा पैसा  बढ़ा चढ़ाकर उनको बहीखाता दिखाते हैं,जिससे मजदूरों को पैसा चुकाना ही पड़ता है ।इस प्रकार परिवार भी पूरी तरह कमजोर रहता है ।और उनकी पूर्ति नहीं हो पाती इसलिए बहुत सारी चीजों से वंचित रहते हैं, जैसे बहुत सारे एग्जाम नहीं दिला पाते ,अगर बच्चे भी चले जाते हैं।तो उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक प्रवृत्तियों पर प्रभाव पड़ता है। वह आम बच्चों की तरह नहीं बल्कि हमेशा पारिवारिक लेनदेन में ही रह जाते हैं, घर परिवार को चलाने के लिए आम दानी करने के रास्ते बहुत कम होते हैं,इसलिए बच्चे 14 साल में ही मजदूरी का काम करने लगते हैं।

घर के युवा सिर्फ अपने सर्वांगीण विकास बाधित कर के परिवार के भरण-पोषण में ध्यान देने लगते हैं,और वे अपने आप को सक्षम नागरिक नहीं बना पाते हैं। छोटे-मोटे हुनर सीखकर अपना घर चलाने लगते हैं,और इन्ही सब के कारण पढ़ाई लिखाई के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं रहता और इसी प्रकार उनकी जीवन चर्या चलती जाती है।जो पलायन नहीं करते गांव में ही रह कर खुद का स्वरोजगार करते हैं।या दूसरों के घरों में मजदूर बनकर काम करने जाते हैं। प्रतिदिन डेढ़ सौ रुपए काम के बदले में मिल जाते हैं, और अपना खेती-बाड़ी करके परिवार की सहायता करते है और अपना खर्चा चलाते हैं। परिवार के अन्य सदस्य जैसे भाई-बहन, माता-पिता, दादा-दादी सब मिलकर अपने घर के व्यवसाय को इसी प्रकार बढ़ाते जाते हैं ।इस प्रकार उनके घर का खर्च चलता रहता है।जो परिवार को छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहते हैं ,गांव में ही रह जाते हैं।

गांव में छोटे कारोबार करने वाले लोगों के साथ मिलकर अपने मजदूरी के लिए काम करते हैं, करोना काल में जिस प्रकार लोग बाहर काम करने नहीं गए वे लोग गांव में या सड़कों में रह कर फल की दुकान या चाय,नाश्ता,होटल जैसे किराना दुकान खोलकर अपना घर का खर्चा चला रहे थे औऱ ये भी लोग दूसरों से कर्ज लेकर अपना कारोबार शुरू किए होते हैं.|इस प्रकार  प्रावशी मजदूरों को कई  प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।इस प्रकार प्रवासी मजदूरों के लिये देश के हर राज्य में मनरेगा , उज्ज्वला , सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जानी चाहिये । प्रवासी मजदूरों के गृह राज्य , आयु , कार्य करने की क्षमता के आधार पर एक विस्तृत डेटाबेस स्थापित किया जाना चाहिये औऱ राज्यों के बीच प्रवासी मज़दूरों से जुड़े विवादों के समाधान हेतु संविधान के अनुच्छेद -263 के तहत स्थापित ' अंतर्राज्यीय परिषद ' ( The Inter - State Council - ISC ) की सहायता ले सकते है।ताकि एक मजदूर ,मजबूर  न रहे ।।।

 

लेखिका पार्टनर्स इन चेंज, प्रैक्सिस और अन्य संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत कलेक्ट प्रोजेक्ट से जुड़कर मध्य प्रदेश के वंचित वर्गों पर कोविड-19 के प्रभाव को समझने के शोध में भागीदार थीं

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