प्रयास से आस

उत्तराखंड में पलायन रोकने और पशुपालन को प्रोत्साहित करने के लिए बकरी स्वयंवर की अनूठी पहल की गई है। स्वयंवर को सफल बनाने के लिए निमंत्रण पत्र भी छपवाए गए हैं। 

By Varsha Singh

On: Tuesday 15 May 2018
 
11 मार्च को टिहरी के पतवारी गांव में बकरियों का स्वयंवर कर लोगों को पशुपालन के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश की गई (फोटो : वर्षा सिंह)

टिहरी के पतवारी गांव में 11 मार्च को कंगना, आलिया और श्रद्धा का स्वयंवर आयोजित हुआ। पिछले वर्ष इसी जगह दीपिका, कटरीना और प्रियंका का स्वयंवर हुआ था। चौंकिए मत, ये नाम फिल्म अभिनेत्रियों के नहीं बल्कि बकरियों के हैं। पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए यह अनूठी पहल की गई है। बकरियों का स्वयंवर को सफल बनाने के लिए बाकायदा निमंत्रण पत्र भी छपवाए गए हैं जिन पर छपा है- दिलवाले बकरियां ले जाएंगे।

स्वयंवर में तीन बकरियों को झुंड में भेजा जाता है। ये जिस बकरे के पास पहले पहुंचती हैं और ठहरती हैं, मान लिया जाता है कि वही इनका वर है। अगर समझने में कोई दिक्कत हो तो इसके लिए निर्णायकों की एक समिति भी बनाई जाती है। समिति बकरियों के वर पर अपनी मुहर लगाती है।

उत्तराखंड की ग्रीन पीपुल संस्था यह आयोजन करती है। संस्था के सदस्य महेश मनि बताते हैं कि अक्सर पशुपालक बकरियों की ब्रीडिंग एक ही परिवार में कराते हैं जिससे बकरियों की नस्ल बेहतर नहीं होती और उनकी दूध देने की क्षमता भी कम हो जाती है। इस तरह के आयोजन के जरिए वह पशुपालकों को क्रॉस ब्रीडिंग के बारे में समझाते हैं। ताकि बकरियों की नस्ल अच्छी हो और दूध देने की क्षमता बढ़े।

मांस से ज्यादा मुनाफा दूध में

उत्तराखंड से लगभग दस फीसदी लोग बकरी पालन करते हैं। बकरी पालन से जुड़े करीब 80 फीसदी लोग मांस के लिए बकरी पालते हैं। बकरी का दूध और उससे बने उत्पाद का बाजार में बमुश्किल चार फीसदी हिस्सा है। महेश मनि बकरी पालकों को समझाते हैं कि मांस के लिए बकरी का इस्तेमाल एक बार होता है जबकि इसके दूध और दूसरे उत्पाद से वह बाजार में लंबे समय तक अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं। बकरी स्वयंवर में पशु विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिकों को भी आमंत्रित किया जाता है। बकरियों का टीकाकरण, बकरियों और पशु पालकों का इंश्योरेंस भी होता है।

ग्रीन पीपुल संस्था का कहना है कि इस आयोजन का प्रभाव यह है कि लोग इसे छोटा कार्य न समझकर स्वीकार करते हैं। संस्था का कहना है कि पहाड़ों से पलायन देखादेखी और फैशन के तौर पर भी हो रहा है। लोग शहरों में सिक्योरिटी गार्ड बनना पसंद कर रहे हैं और अपने खेत, जानवरों को छोड़ रहे हैं। बकरी स्वयंवर लोगों को अपने पारंपरिक पेशे से जोड़ने का प्रयास है। इससे पलायन भी रुकेगा। जो लोग पिछले वर्ष बकरी स्वयंवर को मेला समझ कर आए थे, इस वर्ष हुए आयोजन की उन्हें पहले से थोड़ी जानकारी थी।

इसलिए वे इस बार ग्राम प्रधान, कृषि वैज्ञानिकों, पशु विशेषज्ञों से सवाल भी पूछ रहे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि बकरी के दूध का इस्तेमाल वे कई तरीकों से कर सकते हैं। बाजार में बकरी का दूध गाय-भैंस के दूध से अधिक कीमत पर बिकता है। बकरी के दूध से बने चीजज (गोट चीज) की बाजार में अच्छी डिमांड है।

बकरी स्वयंवर दरअसल एक प्रतीकात्मक उत्सव है। रिवर्स माइग्रेशन यानी पहाड़ से पलायन कर चुके लोगों को वापस उनके गांव में लौटाने, पलायन रोकने, खेती-बागवानी से दोबारा जोड़ने और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बकरीपालन समेत कई अन्य विषयों पर भी कार्य किया जा रहा है। राज्य के मुख्य पशु चिकित्साधिकारी अविनाश आनंद के मुताबिक, बकरी स्वयंवर से पशुपालकों को प्रोत्साहन मिल रहा है। पशुपालन विभाग बकरी और भेड़ पालकों के लिए कोऑपरेटिव सोसाइटी बनाने की योजना पर कार्य कर रहा है जिसमें उनके दूध से बने उत्पादों को तैयार कराया जाएगा।

पहाड़ के लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का कहना है कि इस आयोजन का मकसद भेड़-बकरी पालकों को सम्मान देना था। नेगी कहते हैं कि एक जमाने में भेड़-बकरी पालन पहाड़ का मुख्य व्यवसाय हुआ करता था। अब लोगों में इस पेशे को लेकर सम्मान की भावना नहीं है। बकरी स्वयंवर लोगों को आकर्षित करने का तरीका है।

इस तरह के आयोजन में सरकार को भी आगे आना चाहिए और इसे बड़े स्तर पर आयोजित करना चाहिए ताकि हमें ज्यादा बेहतर नतीजे मिल सकें। नेगी कहते हैं कि अगर लोगों को हम उनके परंपरागत पेशे से जोड़ पाएं तो पांच-सात हजार रुपए के लिए दिल्ली-मुंबई में नौकरी करने जाने वाले लोग अपने गांवों में ही रुकेंगे।

उत्तराखंड के तीन गांवों में गोट विलेज

बकरी पालन को पर्यटन से भी जोड़ा गया है। बकरी के प्रतीक के साथ ही ग्रीन पीपुल संस्था ने उत्तराखंड में तीन जगहों पर गोट विलेज बनाए हैं। दो टिहरी के नागटिब्बा और कालाताल गांव में है और एक उत्तरकाशी के दयारा बुग्याल में है। इन गोट विलेज में आने वाले पर्यटकों को एग्रो टूरिज्म कृषि पर्यटन, फॉर्म टूरिज्म और ईको टूरिज्म का अनुभव कराया जाता है। लोग इन गोट विलेज में रुकते हैं। गांव के लोगों के साथ उनका जीवन जीते हैं।

ग्रामीणों के साथ खेती-बागवानी में हाथ आजमाते हैं। जिन घरों को खाली कर लोग पलायन कर गए हैं, उन्हीं घरों को ठहरने के लिए बनाया गया है। गांववाले ही पर्यटकों को राशन-पानी देते हैं। महेश मनि बताते हैं कि उत्तरकाशी के दयारा बुग्याल गोट विलेज में सारा संचालन महिलाओं के हाथ में है। वहां मैनेजर, गाइड, पोर्टर जैसे सभी पदों पर महिलाएं ही कार्य करती हैं।

महेश मनी के मुताबिक, बकरी स्वयंवर और गोट विलेज की अवधारणा का ही नतीजा है कि पिछले दो वर्षों में नागटिब्बा गांव में पर्यटकों की संख्या 1,200 से बढ़कर 40,000 हो गई है।

बकरीछाप से पहाड़ी अनाजों की ब्रांडिंग

गोट विलेज के किसानों के लिए संस्था ने बकरीछाप नाम से ब्रांड भी विकसित किया है। जिसमें पर्वतीय किसानों द्वारा उगाई गई दालें, मोटा अनाज, शहद जैसे उत्पादों की बकरीछाप नाम से ब्रांडिंग की जाती है। संस्था के मुताबिक अब तक 20,000 किसान बकरीछाप से जुड़ चुके हैं। इन किसानों को जैविक खेती का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। गोट विलेज के कलेक्शन सेंटर में ही सीड स्टोरेज यूनिट (बीज के भंडारण की इकाई) भी बनाई गई है। इसके साथ ही यहां के गांव के नौजवानों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण, उन्हें फाइव स्टार होटलों में ट्रेनिंग जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाती है।

बकरीछाप में पहाड़ के 12 अनाज की भी ब्रांडिंग की कोशिश की जा रही है। मंडुआ जैसे अनाज जिनकी विश्वभर में तेजी से मांग बढ़ी है, जो स्वादिष्ट तो है ही इसके साथ ही कैल्शियम, प्रोटीन, फाइबर जैसे पोषकारी तत्वों से भरपूर है। बकरीछाप पहाड़ों पर उगाई जानेवाली मंडुआ, झंगूरा, कोइनी, चोलाई जैसे 12 अनाज की ब्रांडिंग कर किसानों के जीवन में बड़ा परिवर्तन लाने की कोशिश कर रही है।

डेनमार्क और फिनलैंड जैसे देश उत्तराखंड के लिए एक उदाहरण साबित हो सकते हैं जिन्होंने पशुपालन और दुग्ध उत्पादन और इस क्षेत्र में लगातार नए प्रयोग के जरिये विश्व में खुद को बड़े ब्रांड के तौर पर स्थापित किया है। बकरीपालन भी सही सोच और सही तरह से किया जाए तो ये न सिर्फ रोजगार की समस्या को हल करेगा बल्कि राज्य के विकास में भी अपना योगदान देगा।

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