सबसे जमीनी विपणन प्रणाली का हिस्सा हैं हाट

हाट बाजार त्योहारी, एकता और सशक्तिकरण के प्रतीक

By Aditi Sarkar

On: Friday 08 February 2019
 

नियमित हाट (आवधिक) का इतिहास अत्यंत प्राचीन है जहां किसान और स्थानीय लोग एकत्र होकर व्यापार विनिमय करते हैं। यह कारोबारी ही नहीं समाचारों के संकलन, विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक क्रियाओं में एक-दूसरे को शामिल करने का मंच भी है।

ये स्थल वाणिज्यिक क्रियाओं के साथ ही त्योहारी, एकता और सशक्तिकरण के प्रतीक होते हैं। ये बाजार भारत में जमीनी स्तर के फुटकर व्यापारियों का नेटवर्क होता है जिसे “हाट” (वेस्ट बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा), सांदे (कर्नाटक) तथा संधै (तमिलनाडु) में कहा जाता है। भारत के ग्रामीण परिवेश की सबसे जमीनी विपणन प्रणाली का हिस्सा हाट है। हाट अक्सर चल और लोचशील होता है और प्रायः इसका स्थान बदलता रहता है। ग्रामीणों को सप्ताह में एक दिन ही पूरे सप्ताह की दिहाड़ी मिलती है। ये इतना पर्याप्त होता है कि स्थानीय जरूरतें पूरी हो जाती हैं। इन हाटों को बाजार दशाओं की पारदर्शिता की खातिर बाजार नियमन के चक्र से अलग कर दिया गया है।

हाट अक्सर सूचनाओं की कमी, अनियंत्रित बिचौलियों, जबरन बिक्री, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, ज्यादा बड़े स्तर में सेवाएं उपलब्ध करने के लिहाज से उचित परिवहन साधनों और संचार सेवाओं की कमी तथा बड़े पैमाने पर इनका बंटा होना और गैरसंगठित कृषि बाजार की समस्याओं से घिरे रहते हैं। बड़ी बात यह है कि हाट समआर्थिक समूहीकरण का सार खोता जा रहा है। नई प्रौद्योगिकी के अतिक्रमण से मनोरंजन के विविध साधनों, स्मार्टफोन और ऑनलाइन फुटकर बिक्री ने ग्रामीण जनता के जीवन में प्रवेश किया है, नतीजतन व्यवस्था बिगड़ी है। जगह की उपयुक्तता और संवहनीयता इन हाटों की लोकप्रियता के प्रमुख कारक थे, इनमें जटिलताओं के समावेश से इनकी शनै: शनै: मौत शुरू हो गई और प्रतिष्ठित हाट की विलुप्ति आरम्भ हो गई।

यह देखा गया है कि एक हाट अपनी प्रसिद्धि या आकर्षण तब गंवा देता है जब इसके ग्राहक और विक्रेता घटने लगते हैं। हालिया प्रवृत्तियां इन परम्परागत आवधिक बाजारों के नवीनीकरण को उजागर करती है, खासकर जहां ग्रामीण हथकरघा उत्पादों और प्राकृतिक कृषि उपज का व्यापार होता है। चूंकि ये दोनों ही श्रेणियां ग्रामीण आबादी की कमाई के बेहतरीन विकल्प हैं, इन पर अधिक ध्यान दिया गया है। बहरहाल, प्रशासकीय इकाइयों की इस संदर्भ में भूमिका प्रशंसनीय नहीं है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जीर्णोद्धार की दृष्टि से सरकार से बजट अपेक्षित है।

इसके लिए ग्रामीण अवसंरचना जिसमें नियमित बाज़ारों और गोदामों के नेटवर्क शामिल हो, विकसित करने होंगे।हाट पशुधन के सौदे में उल्लेखनीय भूमिका अदा करते हैं। हाल में हत्या के लिए पशु बाजार से पशुओं के व्यापार पर लगी रोक से, हजारों गरीब किसान प्रभावित होंगे, क्योंकि इस रोक से वे गैर दुधारू और वृद्ध पशुओं को बेचने से होने वाली कमाई के पुश्तैनी तरीके से वंचित हो जाएंगे। निर्धन और निरक्षर क्रेता-विक्रेताओं को लम्बी कागजी कार्यवाही करनी पड़ेगी जिससे समस्या बढ़ेगी। व्यापारियों को किसानों से सीधे खरीद करनी होगी जिसकी वजह से मवेशियों के सौदे से होने वाली आय घटेगी। दूसरी तरफ राज्य विशेष के किसानों को बड़े बूचड़खानों के अभाव में पशुओं को बेचने में खासी परेशानी होगी और हाल के पशु आंदोलन कार्यकर्ताओं के घृणित हमलों से तो हालात बिगड़ेंगे।

पशुओं का अधिकतम लाभ मूल्य नहीं मिल पाने से दूध और दुग्ध उत्पादों की कीमतें बढ़ेंगी। पर्यावरण मंत्रालय के राज्य की सीमा के 25 किमी के दायरे में पशु बाजार लगाने पर रोक का नियम इनकी दुविधा को और बढ़ाएगा। यह आम धारणा है कि हाट का स्थान ऐतिहासिक रहा है जहां राष्ट्रों की विविध रंग दिखाई देते हैं। अचानक इस नियमन से हाट का स्थान बदल जाएगा जो कि रातों-रात नहीं हुआ है और न ही ऐसे ही हुआ है। नए नियमन में 30 शर्तें हैं जो बाजार में पशु कल्याण के लिए हैं और अचरज वाली बात यह है कि ये नियमन उन हाट के लिए हैं जहां पशुओं को तो छोड़िए आम आदमी के लिए भी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं।

पशु बाजार के प्रभावी संचालन के लिए ऐसे कायदों की तामील में युगों लग जाएंगे। हाट गांवों और ग्रामीणों को बड़े पक्षकारों के साथ जोड़ने की विपणन प्रणाली है। यह गौर करने का विषय होगा कि बिना सुविधाओं के कैसे भीड़ को आकर्षित किया जाएगा। ये स्थानीय समुदाय की स्थानीय गतिविधियों का केंद्र होते हैं और कृषि क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार उनकी स्थिति ग्रामीण आबादी के कल्याण सम्बंधी निर्णय का वैश्विक पैमाना होती है।

(लेखिका कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यकीय संस्थान में शोधार्थी हैं)

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