जोशीमठ को बचाने के लिए टनल और बाइपास का काम रोकना बेहद जरूरी, विशेषज्ञों ने दी चेतावनी

विशेषज्ञों के एक पैनल ने कहा कि जोशीमठ को धंसाव से बचाने के लिए स्वतंत्र वैज्ञानिकों को साथ लेकर काम करना होगा

By Raju Sajwan

On: Friday 06 January 2023
 
जोशीमठ में घरों में आ रही दरारों का सिलसिला थम नहीं रहा है। फोटो: त्रिलोचन भट्ट

जोशीमठ को तब तक नहीं बचाया जा सकता, जब तक कि एनटीपीसी की टनल और हेलंग बाइपास का काम पूरी तरह न रोका जाए। यह बात 6 जनवरी 2023 को एक विशेषज्ञों ने एक संवाददाता सम्मेलन में कही।

भू वैज्ञानिक नवीन जुयाल ने जोशीमठ धंसाव के कारणों पर विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि औली से लगभग एक किलोमीटर नीचे से यह टनल निकाली जा रही है। यह एक दुस्साहस है। तपोवन विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना के लिए दो टनल बिछाई जा रही है। एक तपोवन से और दूसरी सेलंग से बिछाई जा रही है।

इसके लिए एक ओर से विस्फोट से किए गए और दूसरा सेलंग से टनल बोरिंग मशीन (टीबीएम) से टनलिंग का काम किया जा रहा है। सेलंग में तो अभी भी टीबीएम फंसी हुई है। यह काम प्राइवेट कंपनी से कराया जा रहा है। जिस वजह से हालात बिगड़े हैं।

जुयाल कहते हैं कि एनटीपीसी का तर्क है कि टनल का काम अभी तपोवन से चार किलोमीटर दूर तक ही हुआ है, लेकिन जब इसकी अध्ययन की बात होती है तो स्वतंत्र वैज्ञानिकों को अध्ययन से दूर रखा जाता है।

जुयाल के मुताबिक, जोशीमठ में जो पानी जमीन से बाहर निकल रहा है, वह कहां से निकल रहा है। उसके लिए बहुत हद तक टनल जिम्मेवार हो सकती है।

विशेषज्ञों ने कहा कि अकेला जोशीमठ ऐसा शहर नहीं है, जो धंसाव का सामना कर रहा हैं, कई ऐसे शहर मुहाने पर खड़े हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकारें और प्रशासन स्वतंत्र वैज्ञानिकों की बात नहीं सुन ही नहीं रही है।

40 सालों से इस इलाके में अलग-अलग अध्ययन कर चुके नवीन जुयाल ने कहा कि तीखे ढाल में बसे जोशीमठ के नीचे से बाइपास बनाने का काम चल रहा है, जिसकी वजह से यह क्षेत्र कमजोर हो गया। जबकि 1976 में ही मिश्रा कमेटी ने यह कह दिया था कि इस इलाके में एक बोल्डर तक नहीं हिलना चाहिए। लेकिन इस तरह की सिफारिशों को माना ही नहीं गया।

उन्होंने आशंका जताई कि इस मामले में जो भी सरकारी जांच कमेटियां बनेंगी, वे एनटीपीसी और हेलंग बाइपास प्रोजेक्ट को क्लीन चिट दे देंगी और इस आपदा के लिए स्थानीय लोगों द्वारा किए गए निर्माणों को दोषी ठहरा दिया जाएगा।

जुयाल ने कहा कि अब तक हमें यही नहीं पता कि जोशीमठ की धारण क्षमता (केरिंग कैपेसिटी) का पता नहीं है। इसे पूरी तरह से डिजिटाइज्ड करना होगा धारक क्षमता को समझना होगा। जोशीमठ की मिट्टी, पत्थर की क्षमता देखीनी होगी, तब ही हम तय कर सकते हैं कि यहां कितने भवन बनने चाहिए, किस तरह के निर्माण होने चाहिए।

पहले पहल यहां लोगों ने मजबूरी में रहना शुरू किया, लेकिन बाद में यहां होटल, संस्थान, सरकारी भवन बन गए। इन भवनों में वेस्ट वाटर के डिस्पोजल का इंतजाम तक नहीं किया गया। आखिर इस विकास का इजाजत ही क्यों दी गई।

जुयाल के मुताबिक, यह क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील है। यह बात अब से नहीं बल्कि 1939 में कह दी गई थी, लेकिन सरकारों ने इस ओर ध्यान तक नहीं दिया।

उन्होंने सख्ती से कहा कि एनटीपीसी का हाइड्रो प्रोजेक्ट और हेलंग बाइपास की योजना पूरी तरह से बंद किया जाना चाहिए।

गंगा आह्वान कमेटी के संयोजक एवं चार धाम परियोजना पर बनी सुप्रीम कोर्ट की हाइ पावर कमेटी के सदस्य हेमंत ध्यानी ने कहा कि 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद से यह बात कही जा रही है कि पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ रोकना चाहिए। हमारी सिफारिशों को 2014 में स्वीकार भी किया गया, लेकिन लागू नहीं किया गया।

जल भू विज्ञानी (हाइड्रोजियोलॉजिस्ट) एवं अर्थ साइंटिस्ट मीता खिलनानी ने कहा कि बहुत संभावना है कि यहां से गुजर रही टनल में गैस और पानी की वजह से पानी फूट रहा है। इसलिए इस क्षेत्र की युद्धस्तर पर स्टडी करने की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि जोशीमठ और आसपास के क्षेत्र का जल भूविज्ञान पूरी तरह से बिगड़ा हुआ है, इसलिए किसी भी बड़ी परियोजना को मंजूरी देने से पहले इसका व्यापक अध्ययन होना बेहद जरूरी है। जबकि यहां किसी तरह की स्टडी तक नहीं हुई और बड़े प्रोजेक्ट्स आ गए।

भूवैज्ञानिक शुभ्रा शर्मा ने कहा कि जोशीमठ में काफी हद तक नुकसान हो चुका है। अब भी अगर जोशीमठ को बचाना चाहते हैं तो युद्धस्तर पर फैसले लेने होंगे।

गंगा मुक्ति अभियान से जुड़ी मलिका भनोट ने कहा कि जिस तरह भागीरथ इकोलॉजिकल सेंसेटिव जोन बनाए गए हैं, उसी तरह से उत्तराखंड में सभी घाटियों का इकोलॉजिकल सेंसेटिव जोन बनाने की जरूरत है, लेकिन अफसरशाही को अपनी सोच बदलनी होगी और स्वतंत्र वैज्ञानिकों को अपने साथ जोड़ना होगा।

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