जस्ट ट्रांजिशन: क्या कोयला चुनने वाली सोनाली जाएगी स्कूल?

कोयला खदानों के नजदीक रह रहे स्थानीय लोगों कों अपने घरों, सड़कों, बाजार की धरती के भीतर सुलगता कोयला और कभी भी भू-धंसाव के अंदेशे में जीना इतना बड़ा संकट नहीं लगता, जितना आजीविका का संकट

By Varsha Singh

On: Monday 22 May 2023
 
झारखंड के धनबाद जिले के जहाजटांड गांव में महिलाओं के साथ कोयला चुनती 16 वर्षीय सोनाली। फोटो: वर्षा सिंह

कोयले की मानव-जनित पहाड़ी के ऊपर से एक भारी-भरकम मशीन कोयला डंप कर रही है। बड़े और बेहतर पत्थरों के टुकड़े लपकने के लिए महिलाएं जान की परवाह नहीं करतीं। नीचे गिर रहे पत्थरों से कोयला चुनती हुई महिलाओं के साथ 16 साल की सोनाली भी इस काम को कुशलता से कर रही है। कोयले के बड़े टुकड़ों को हथौड़े से छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर वे टोकरियों में भर रही हैं।

सोनाली अपनी दादी के साथ रोज कोयला चुनने आती है। यह पूछने पर कि तुम स्कूल क्यों नहीं जाती, उसके चेहरे पर खिली मुस्कान आंसुओं में पिघल गई।

“मैं दसवीं तक पढ़ी हूं। गांव में पढ़ने की सुविधा नहीं है, स्कूल बहुत दूर है और वहां का रास्ता तक नहीं है। पापा की कोई कमाई नहीं है। गांव की हम सब महिलाएं सुबह 7 बजे ही यहां कोयला चुनने आ जाती हैं। दोपहर एक बजे तक हम यहां कोयला तोड़ते हैं। खाना खाकर तीन बजे फिर कोयला चुनने आ जाते हैं। अंधेरा होने तक यहीं रहते हैं”।

“मैं सारा दिन कोयला चुनती हूं। ये सोच भी नहीं सकती कि पढ़कर क्या बनना चाहती हूं। पढ़ाई करती तो शायद सोचती”।

झारखंड के धनबाद जिले के भौंरा पोस्ट ऑफिस क्षेत्र में दामोदर नदी के किनारे बसे जहाजटांड गांव की महिलाएं याद करती हैं कि कोयले की इन खदानों की जगह कभी हमारे खेत हुआ करते थे। हमारे घरों में गेहूं-धान का भंडार रहता था।

  स्कूल क्यों नहीं जाती, इस सवाल पर सोनाली रो पडती है, साथ खडी उसकी दादी भी भावुक हो जाती हैं। फोटो: वर्षा सिंहवंदना देवी कहती हैं “हमारे खेतों में कोयला डंप कर दिया। कोई 20 साल पहले उन्होंने हमारी जमीनें ले ली, बदले में नौकरी नहीं दी। मुआवजे के लिए गांववाले कई बार आंदोलन कर चुके हैं। अब हम कोयला चुन कर ही परिवार चलाते हैं”।

वंदना अनुमान लगाती हैं कि एक दिन में एक व्यक्ति एक बोरे में 50 किलो तक कोयला जमा करता है। कोयला ठेकेदार गांव से ही कोयला ले जाते हैं। एक बोरे के वह हमें 150-200 रुपए तक देते हैं। जिस समय यह संवाददाता वहां पहुंची, करीब 15 लोग कोयला चुन रहे थे। इसके अलावा बोरों में कोयला लेकर गांव की ओर लौटते ग्रामीण भी दिखे।

अगर हम अनुमान लगाएं तो न्यूनतम 20 लोग भी रोजाना 50 किलो कोयला उठाते हैं तो तकरीबन 1,000 किलो कोयला एक दिन में उठाया जाता है। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक जान खतरे में डालकर काम कर रहे ग्रामीण एक दिन में 150-200 रुपए कमाते हैं। यानी परिवार का एक व्यक्ति एक महीने में 5-6 हजार रुपए।

ग्रामीण बताते हैं कि कई बार उनका सामना पुलिस और भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) के कर्मचारियों से होता है। उन्हें देखते ही वे भाग खड़े होते हैं। वर्षों से जिंदगी इसी तरह गुजर रही है।

गांव के सामाजिक कार्यकर्ता खेमलाल महतो कहते हैं “झारखंड के हर कोने में खनिज पदार्थ हैं, लेकिन कोयला कंपनी के अधिकारी और कर्मचारी सब बाहर के राज्यों के हैं। हम यहां के रैयत (मूल निवासी) हैं। हमारे पास न शिक्षा है न रोजगार, हम कैसे आगे बढ़ेंगे”।

खेमलाल कहते हैं “वे हमारी धरती से कोयला निकालते हैं और हमारे घरों में चूल्हा मुश्किल से जलता है। कोयले की जमीन पर बसा एक परिवार अपने पूरे जीवन की मेहनत में उतना पैसा नहीं कमा पाएगा, जितना एक कोलियारी में काम करने वाला एक अधिकारी एक साल में कमा लेता है”।

करीब 28.46 लाख आबादी वाले धनबाद जिले में जहाजटांड गांव की तर्ज पर कई गांव हैं जिनकी आमदनी का एक मात्र जरिया कोयला है। कोयला खनन के लिए जिनकी जमीनें चली गईं। गांवों की जगह कोयले की खदानों ने ले ली। यहां कई ऐसे छोड़े हुए घर मिले जिनके भीतर धरती के अंदर से कोयला धधक रहा था। कई जानलेवा हादसे हो चुके हैं।

जस्ट ट्रांजिशन में कोयले पर निर्भर समुदाय को कैसे जोड़ा जाएगा, ये एक बड़ी चुनौती होगी। फोटो: वर्षा सिंह                                 

कोयले से अनौपचारिक तौर पर जुड़ी लाखों की आबादी

करीब सवा तीन करोड़ आबादी वाले झारखंड के 24 में से 12 जिलों की अर्थव्यवस्था सीधे कोयले से जुड़ी है।

नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की 2021 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 1.3 करोड़ से अधिक लोग कोयला खनन और इससे जुड़े परिवहन, ऊर्जा, लौह, स्टील और ईंट क्षेत्र से जुड़े हैं। पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ, उड़़ीसा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के 266 जिले में कम से कम एक कोयला आधारित उद्यम है। जबकि 135 जिलों में दो या उससे अधिक कोयला आधारित उद्यम हैं।

आईआईटी, कानपुर की जस्ट ट्रांजिशन रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2021-2022 में झारखंड सरकार को कोयले से करीब 10339.44 करोड़ रुपए का राजस्व कई स्रोतों से हासिल हुआ।

 धरती के अंदर से कोयला सुलगने पर धनबाद के कई गांव और घर खतरे से झूझ रहे हैं। जहाजटांड गांव के नजदीक ऐसे ही एक घर की तस्वीर। फोटो: वर्षा सिंह

कोयला समृद्ध क्षेत्रों के गरीब लोग

इसके उलट, कोयले की धरती पर रहने वाले युवा बेरोजगारी के संकट से जूझ रहे हैं।

धनबाद के झरिया में कुसुंड़ा कोलियारी से लगी गोधर बस्ती के निवासी विजय महतो कहते हैं “हमारी धरती से निकले कोयले से सरकार करोड़ों कमाती है और गांव के लड़कों के पास एक नौकरी नहीं है। कोई 5-6 हजार रुपए महीने पर मजदूरी करता है। कोई गाड़ी चलाता है। हमारे खेत के ठीक बगल में कोयला खनन के लिए 400 फीट गहरी खाई बना दी। घरों के चारों ओर खुदाई कर खाइयां बना देंगे तो हम अपने घर में भी सुरक्षित नहीं रह सकते। हमेशा ड़र के साए में जीते हैं। पहले हमारी फसल चली गई, अब नस्ल जा रही है”।

धनबाद की सड़कों पर सुबह सवेरे से ही साइकिल और मोटरसाइकिल पर कई-कई बोरे कोयला ढोते हुए सवार दिख जाते हैं। ये यहां की एक आम तस्वीर है। एक साइकिल पर 5-6 बोरे तो एक मोटरसाइकिल पर कोयले के 25 बोरे तक ढोते हुए लोग मिले।

इस पर विजय महतो हमदर्दी जताते हैं “ये भी एक कला है। एक बोरे में कम से कम 50 किलो कोयला होगा तो 25 बोरे में 1250 किलो। इतना कोयला लेकर वह मोटरसाइकिल कैसे चलाता होगा”।

रह-रहकर उठते काले-पीले धुएं के गुबार और हवा में घुली जहरीली गैस की दमघोंटू हवा के बीच कुसुंड़ा कोलियारी से सुबह-सुबह एक के बाद एक मोटर साइकिल सवार कोयले की बोरियां लेकर निकल रहे थे। सिर से पांव तक कोयले की राख में लिपटा, इनमें से एक युवा, बातचीत में अपनी नाराजगी जाहिर करता है, “लोग हमें कोयला चोर कहते हैं। हमारी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल करते हैं। हम अपनी जान पर खेलकर कोयला निकालते हैं। क्या हम अपने बच्चों को भूखा मारेंगे”।

नीली साड़ी में शीला देवी कहती हैं कि कोयला लाने के दौरान कई बार पुलिस की लाठियां खा चुकी हैं। फोटो: वर्षा सिंह

झरिया की कुसुंड़ा कोलियारी के किनारे आग में जलाकर कोयला तैयार कर रही महिलाओं में से एक 65 साल की शीला देवी कहती हैं “हम यही कोयला काठी लाते हैं तो खाना खाते हैं। हमारी जमीनें कोयला खदान में चली गई और हमें कोई मुआवजा नहीं मिला। इस उम्र में भी हम कोयला लेने नीचे जाते हैं। जब वे हमें दौड़ाते हैं तो हम दौड़ते हैं, नहीं दौड़ पाते तो मार खाते हैं, बहुत बार डंडे खाए हैं। एक बार मेरा पूरा शरीर बुरी तरह जख्मी हो गया था। हमें बहुत अफसोस होता है”।

आजीविका का संकट

कोयला खदानों के नजदीक रह रहे स्थानीय लोगों कों अपने घरों, सड़कों, बाजार की धरती के भीतर सुलगता कोयला और कभी भी भू-धंसाव के अंदेशे में जीना इतना बड़ा संकट नहीं लगता, जितना आजीविका का संकट।

कोयला ले जाने के लिए मोटर साइकिलों का भी इस्तेमाल किया जाता है। फोटो: वर्षा सिंह

झारखंड में कोल फील्ड़्स मजदूर यूनियन के महासचिव राघवन रघुनंदन भी अनौपचारिक तौर पर कोयले पर निर्भर समुदाय की उपेक्षा पर नाराजगी जताते हैं। वह कहते हैं “ये जो लोग कोयला चोरी कर रहे हैं, क्या शौकिया चोरी कर रहे हैं? उसके पास विकल्प क्या है? हम उन्हें कोयला चोर बोल देते हैं। उनका परिश्रम देखिए, उनका शरीर देखिए, उनकी हालत खराब है। वे करोड़पति नहीं होने जा रहे। किसी तरह दाल-रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। 35-40 वर्ष का होते-होते उनका शरीर खत्म हो जाता है। कोयले की वजह से वे जिंदा हैं। आप उन्हें रोजगार का विकल्प दीजिए। उसके बावजूद अगर वह कोयला चुराता है तो कहिए कि वह चोर है”।

दिसंबर 2022 में लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में बताया गया कि कोल इंडिया लिमिटेड की खदानों से कोयला चोरी को लेकर 2019-20 से 2021-22 के बीच 8 राज्यों में 667 एफआईआर दर्ज की गई।

धनबाद ग्रामीण क्षेत्र की पुलिस अधीक्षक और शहरी क्षेत्र का प्रभार संभाल रही रिष्मा रमेशन कोयला चोरी पर की जाने वाली कार्रवाई पर कहती हैं “आजीविका के लिए स्थानीय लोग जो कर रहे हैं उसे रोक पाना हमारे लिए मुश्किल है। संगठित तौर पर ऐसा करने वालों पर हम कार्रवाई करते हैं। स्थानीय लोग कोयला बेच कर ही अपना घर चलाते हैं। क्योंकि यहां रोजगार का कोई और साधन नहीं है। इसमें सामाजिक और आर्थिक कई पहलू काम करते हैं”। 

जारी, आगे पढ़ें : जस्ट ट्रांजिशन: कोयले पर 'पलती' पीढ़ियों का कैसा होगा भविष्य?

(This story was produced with support from Internews’s Earth Journalism Network)

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