9 सितंबर को उत्तराखंड में हिमालय दिवस मनाया जाता है। हिमालय के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने के उद्देश्य से ये दिन शुरू किया गया
एक पहाड़ी के उपर गांव के कुछ लोग समूह में पारंपरिक गढ़वाली नृत्य करते हैं। धीमी बारिश हो रही है। कुछ लोग छतरियां ताने इस उत्सव का आनंद ले रहे हैं। स्त्री-पुरुष एक दूसरे का हाथ थामे गोल-गोल घूमते हुए गा रहे हैं। वे अपने पहाड़, अपने हिमालय, अपने जल-जंगल-जमीन का उत्सव मना रहे हैं।
ये पहाड़ी चांदकोट गढ़ी में आती है। जो गढ़वाल के प्रसिद्ध बावन गढ़ों में से एक गढ़ है। करीब डेढ़ सौ लोगों के यहां आने का मकसद है कि वे चांदकोट को उसकी पुरानी शोहरत वापस दिला सकें। इसे वन पर्यटन के लिहाज से विकसित कर सकें। समुद्र तल से करीब ढाई हजार मीटर की ऊंचाई पर बसे चांदकोट गढ़ी के पुनरुद्धार का प्रयास पौड़ी के पोखरा ब्लॉक के कुछ गांवों का है। वे अपने पहाड़ों को छोड़ना नहीं चाहते। बल्कि उसे वापस बसाना चाहते हैं।
हिमालय दिवस का यही मकसद है। लोगों को हिमालय से जोड़ना। 9 सितंबर को उत्तराखंड में हिमालय दिवस मनाया जाता है। हिमालय के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने के उद्देश्य से ये दिन शुरू किया गया। सप्ताह भर राज्य में सरकारी-गैर-सरकारी कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इसी कड़ी में पोखरा ब्लॉक के गंवाणी और किमगढ़ी गांव के स्कूली बच्चों को एक जुट कर हिमालय बचाओ रैली भी निकाली गई।
पर्यावरण संरक्षण के संकल्प की तख्तियां थामे पांच सितंबर को स्कूली बच्चे कतारबद्ध होकर सड़कों पर निकले। पहाड़ के घुमावदार रास्तों पर बढ़े। करीब दो किलोमीटर लंबी इस रैली के बाद पौधरोपण किया गया।
पौड़ी के कुईं गांव की नूतन पंत भी हिमालय बचाओ रैली में शामिल हुईं। हिमालय संरक्षण के लिए लोगों के स्तर पर किस तरह के प्रयास होने चाहिए, इस सवाल पर नूतन बताती हैं कि उनके गांव से सटे दो अन्य गांव हैं पांथर और मझगांव। गर्मियों में दोनों ही गांवों के पंधेरे सूख जाते थे। जिससे इलाके में जल संकट पैदा हो जाता था। लेकिन भलु लगद संस्था की अगुवाई में स्थानीय लोगों ने चौबट्टाखाल के घंडियाल की सूख चुकी खाल को दोबारा पुनर्जीवित किया। जिससे पानी रिसकर जमीन में पहुंचने लगा। इसका नतीजा ये हुआ कि जलाशय बनने के पहले ही साल में पाथर गांव का पंधेरा नहीं सूखा। साथ ही मझ गांव के जलस्रोत से भी पानी बूंद-बूंद आने लगा। यानी गांव के लोगों ने जो मेहनत की, उसके नतीजे एक ही साल में देखने को मिलने लगे। वे कहती हैं कि स्थानीय स्तर पर इसी तरह के प्रयास से हिमालय को बचाया जा सकता है। उसकी सूखी पहाड़ियों को दरकने से रोका जा सकता है।
गांव के लोगों को एक जुट कर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक करने वाले प्रगतिशील किसान सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि हिमालय का संरक्षण, हिमालय का संवरना तभी सम्भव होगा, जब स्थानीय लोग और खासतौर पर हमारी भावी पीढ़ी जागरुक हो। वे हिमालय के महत्व को समझें। जल संरक्षण को समझे। वे समझे कि लगातार हो रहा भू-क्षरण कितना खतरनाक है। पर्यावरण संरक्षण, बंजर खेत आबाद करना, यहां की जैव विविधता को बचाना कितना जरूरी है। सुधीर कहते हैं कि स्थानीय होने के नाते हिमालय के प्रति हमारी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं।
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