Environment

वृक्ष मानव विश्वेश्वर दत्त का जाना

जिस समय विश्वेश्वर दत्त सकलानी पेड़ उगाने की अपनी धुन में रमे थे, उस समय में पर्यावरण नाम का शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं जन्मा था 

 
By Varsha Singh
Published: Friday 18 January 2019
Credit: thegarhwaldiary.blogspot.com/

“तीन किलो की कुदाल मेरी कलम है, धरती मेरी किताब है, पेड़- पौधे मेरे शब्द हैं, मैंने इस धरती पर हरित इतिहास लिखा है”

 ये शब्द उत्तराखंड के वृक्ष-मानव कहे जाने वाले विश्वेश्वर दत्त सकलानी के हैं। अब वह हमारे बीच नहीं हैं। 98 वर्ष की आयु में टिहरी के अपने पैतृक गांव में उनका निधन हो गया है, लेकिन वृक्ष-मानव के लगाए हुए लाखों वृक्ष इस धरती पर सदैव हरियाली का संदेश देते रहेंगे।

पिता के निधन पर भर्रायी-सी आवाज में उनके बेटे संतोष सकलानी कहते हैं कि उन्होंने अपना पूरा जीवन पर्यावरण और देश के लिए न्योछावर कर दिया। विश्वेश्वर सकलानी का जन्म दो जून 1922 को हुआ था। संतोष बताते हैं कि विश्वेश्वर दत्त जब आठ वर्ष के थे, तभी खेल-खेल में पेड़ लगाया करते थे। यह सीख उन्हें उनके ताऊ जी से मिली थी। पेड़ों का हरा किस्सा शुरू होता है उनके पिता के पड़दादा से जिन्हें दहेज में देवदार के पेड़ मिले थे। इस वाकये को अब दो सौ बरस बीत चुके हैं। वे पेड़ आज भी जीवित हैं।

संतोष सकलानी कहते हैं कि इस दुनिया में न वो दुल्हन रही, न दूल्हा रहा लेकिन उन्हें तोहफे में मिले पेड़ आज भी जीवित हैं। पेड़ ही चिरकाल तक प्रत्यक्ष और साक्षात रह सकते हैं। यही बात उनके पिता के दिल में घर कर गई थी। यहीं से उन्हें पेड़ लगाने की प्रेरणा मिली।

फिर क्या था, एक बंजर सी जमीन पर हरियाली की उम्मीद के रूप में धीरे-धीरे हरे पेड़ों की श्रृंखला बनती-बढ़ती चली गई। जिस समय विश्वेश्वर दत्त सकलानी पेड़ उगाने की अपनी धुन में रमे थे, उस समय में पर्यावरण नाम का शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं जन्मा था। यह आजादी के समय से पहले की बात है।

विश्वेश्वर सकलानी और उनके बड़े भाई नागेंद्र सकलानी ने आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। कई बार वे जेल भी गए। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान टिहरी रियासत में रहे नागेंद्र कीर्ति नगर में शहीद हो गए। भाई के शहीद होने पर विश्वेश्वर दत्त को गहरा सदमा लगा। इसके बाद उन्होंने जंगल का ही रुख कर लिया। इसके बाद वर्ष 1956 में उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया।

संतोष कहते हैं कि इसके बाद पिता बिलकुल टूट गए। फिर तो उनकी रातें भी जंगल में बीतने लगीं। पेड़ों के बीच उन्हें असीम शांति मिलती थी। पेड़ों से उनका हौसला बढ़ता था। वे जंगल में बीज इकट्ठा करते थे और पेड़ लगाया करते थे। जीवनभर यही सिलसिला चलता रहा। मरते दम तक उन्होंने पेड़ लगाए। संतोष बताते हैं कि विश्वेश्वर दत्त सकलानी ने टिहरी के सकलाना घाटी में करीब एक हजार हेक्टेयर में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाए। बांज, बुरांश और देवहार के पेड़ों से उन्हें विशेष लगाव था। उनके इस कार्य के लिए वर्ष 1986 में राजीव गांधी ने इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी नवाजा।

वृक्ष मानव कहा करते थे कि ये पेड़ ही मेरे भगवान हैं, यही मेरी संतान हैं। पेड़ों को बचाने के वास्ते उन्होंने कई बार लोगों की मार भी खाई, जिनके हित पेड़ों से जुड़े हुए थे। पेड़ों की रक्षा में वे खुद कई बार जख्मी हुए।

वृक्ष मानव ने पेड़ों के लिए सिर्फ अपना जीवन ही नहीं दिया, अपनी आंखों की रोशनी भी दे दी। वर्ष 1999 में उन्हें आई हैमरेज हुआ। चेन्नई में उनका इलाज चला। डॉक्टर ने कहा कि शारीरिक श्रम के चलते उनकी आंखों की नसें फट गई हैं। डॉक्टर ने उन्हें शारीरिक श्रम न करने की सख्त हिदायत दी। लेकिन आंखों की रोशनी गंवाने के बाद भी वृक्ष मानव ने पेड़ लगाना नहीं छोड़ा। वह फिर भी किसी तरह कुदाल लेकर जंगल की ओर जाते और बीज बोते। जैसे पेड़ों से उनका शरीर और आत्मा का नाता हो।

18 जनवरी को शुक्रवार सुबह आठ बजे संतोष पिता के पास चाय लेकर गए। वह गहरी नींद में थे। वो नींद अब नहीं टूटेगी। भर्रायी सी आवाज में संतोष बताते हैं कि एक दिन पहले तक पिता बिलकुल स्वस्थ थे। वृक्ष वंदना कर रहे थे। उनकी अंतिम इच्छा थी कि सकलाना घाटी के जंगल को सरकार अपने संरक्षण में ले। ये इच्छा अभी पूरी नहीं हुई है। वृक्ष मानव को हमारा नमन।

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