दुनियाभर के अर्थशास्त्रियों का हो रहा मोहभंग, आईएमएफ ने भी उठाए सवाल
खबरों की दुनिया में एक बार फिर यह चर्चा गरम है कि भारत ने तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था में चीन को पछाड़ दिया है। आर्थिक विकास को सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी के रूप में मापा जाता है। यह एक आर्थिक टर्म है जिससे सभी परिचित हैं और इसके बारे में बातें करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार के तीन साल पूरा होने का जश्न मना रहे हैं। यह उनके लिए भी राहतभरी खबर है। प्रधानमंत्री के लिए इसके राजनीतिक और निजी फायदे हो सकते हैं। रिकॉर्ड के तौर पर देखें तो कहा जा सकता है कि भारत चीन के मुकाबले तेजी से विकास कर रहा है, लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था से पांच गुणा बड़ी है। इसलिए चीन की अर्थव्यवस्था से तुलना करने से पहले काफी कुछ किया जाना बाकी है। हालांकि मोदी के लिए आर्थिक विकास का पैमाना सिर्फ जीडीपी है। इसका सारा दारोमदार उनके प्रदर्शन पर होगा। नव उदारवाद के युग में जीडीपी एक पवित्र मंत्र बन गई है।
लेकिन दुनियाभर में जीडीपी पर सवाल उठाए जा रहे हैं, भले ही कुछ हिचकिचाहट के साथ। जानकार भारतीय जीडीपी की विकास दर को ही शक की नजरों से देख रहे हैं। बहुतों ने जीडीपी पर सवाल उठाने के बाद विकास दर को 3.5 प्रतिशत (सितंबर 2016) के आसपास रखा है जो भारत में हिंदुओं की विकास दर से कुछ अधिक है। भारत सरकार और मुख्य सांख्यकीयकारों ने अप्रत्याशित रूप से इसका बचाव भी किया है। मीडिया में आई उनकी प्रतिक्रियाओं के बावजूद कहा जा सकता है कि हमारे पास विकास को मापने का कोई स्वस्थ सिस्टम नहीं है। भारत के शीर्ष सांख्यकी विशेषज्ञ टीसीए अनंत ने भी माना है कि जीडीपी की जानकारी अधूरी है। इससे बेहतर इसकी कोई सूचना ही न हो। उन्होंने मीडिया से सवाल किया है कि आप बिना चश्मे के चलना पसंद करेंगे या ऐसा चश्मा पहनेंगे जो गंदा है। इसका जवाब भी उन्होंने दिया कि आप ऐसे चश्मे से काम चलाएंगे जो गंदा है।
दुनिया लगातार अर्थव्यवस्था के इस गंदे इंडीकेटर पर सवाल उठा रही है। यूएस के अर्थशास्त्री एरिक जेंसी जीडीपी के बजाय जेनुइन प्रोग्रेस इंडीकेटर (जीपीआई) पर जोर देते हैं। उनका कहना है कि हम आर्थिक रूप से क्या कर रहे हैं, यह मापने के लिए जीडीपी एक बेवकूफी भरा इंडीकेटर है। यह अर्थव्यवस्था में महज मौद्रिक लेन-देन को ही मापता है। धन कहां खर्च हो रहा है, इसका उससे कोई लेना-देना नहीं है। जीडीपी हमारी आर्थिक भलाई की भी परवाह नहीं करती। बिना पैसों के हमें किस चीज में खुशी मिलती है, इसकी जानकारी भी जीडीपी नहीं देती।
अब यह मांग उठने लगी है कि अर्थव्यवस्था की विकास दर तोलने वाली जीडीपी से लगाव कम किया जाए। यह मांग भी किसी और ने नहीं बल्कि मुक्त अर्थव्यवस्था के पैरोकार इंटरनैशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) ने उठाई है। अपनी रिपोर्ट नियोलिबरेलिज्म: ओवर सोल्ड? में आईएमएफ ने कहा है कि यह मॉडल आर्थिक विकास को मापने में पूरी तरह फेल हो गया है। इसने असमानता में और इजाफा किया है। यह दृष्टिकोण इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि यह विकास को तय करने के नए उपायों पर जोर देता है। जीडीपी जब इस्तेमाल में नहीं रहेगी, तभी असली तस्वीर उभरकर आएगी।
इस मुद्दे पर पर्याप्त बहस की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर 2011 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान स्वीकार किया था कि राज्य की जीडीपी में जंगलों से घिरे इस राज्य की असल तस्वीर दिखाई नहीं देती। दुनिया भर में चलन है कि पर्यावरण के फैक्टर को भी जीडीपी में शामिल किया जाए। इस पैमाने पर भी दोषपूर्ण जीडीपी खरी नहीं उतरती। अमेरिका के बहुत से राज्य, मसलन मैरीलैंड और वेरमोंट जीडीपी के विकल्प के रूप में जीपीआई को गंभीरता से ले रहे हैं।
यह जरूरी हो गया है कि हम भी नए आर्थिक इंडीकेटर का इस्तेमाल करें। भारत में भूमि और जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधन 60 प्रतिशत लोगों की जिंदगी पर असर डालते हैं। जीडीपी इसे अपनी गणित में शामिल नहीं करती। पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी इससे बाहर है। शायद यही कारण है कि गरीब अब तक विकास का स्वाद नहीं चख पाया है।
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