Environment

पर्यावरण मंजूरी की सही प्रक्रिया ही समाधान

भारत ने औद्योगिक समूहों में प्रदूषण स्तरों का आकलन करने के लिए एक नए सूत्र की घोषणा की है, यह किसी औद्योगिक क्षेत्र के प्रदूषित हो जाने की मुख्य समस्या को रोकने में असफल है।

 
By Sanjeev Kumar Kanchan
Published: Thursday 03 August 2017
उत्तर प्रदेश का सिंगरौली लंबे समय से प्रदूषित है (Photo: Meeta Ahlawat)

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) भारत के 100 प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों की निगरानी के लिए एक नये सूत्र का उपयोग करने को तैयार है। यह सूत्र मौजूदा व्यापक पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक (कांप्रेहेन्सिव एनवायरमेंटल पॉल्यूशन इंडेक्स, सीईपीआई) का एक संशोधित संस्करण है। हालांकि इस सूत्र से प्रदूषित औद्योगिक समूहों को साफ करने की संभावना न के बराबर है। कारण: यह मुद्दा कभी भी सूत्र का नहीं था, इसका कारण प्रदूषणकारी औद्योगिक इकायों को दंडित करने में एजेंसियों की विफलता है। नतीजतन प्रदूषण करने वाले समूहों का निरंतर आगे बढ़ना जारी है।

1989 में, सीपीसीबी ने पहली बार 24 गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों (क्रिटिकली पॉल्यूटेड एरिया, सीपीए) की पहचान की थी। इसके बाद प्रदूषण के स्तर को नियंत्रित करने के कई उपाय जारी किए गए। 2009 में सीईपीआई सूत्र का उपयोग करते हुए, इसमें दूसरी सीपीए सूची निकाली। तब तक सूची में औद्योगिक क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 43 हो गई थी। इस नई सूची में, 1989 में चिंहित 24 में से 18 सीपीए मौजूद थे, इसका मतलब है कि प्रदूषण नियंत्रण उपायों के बावजूद 20 वर्षों में स्थिति और भयावह हो गई है।

सीईपीआई शुरू होने से अब तक आठ साल हो गए है, लेकिन सीपीए के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। 2010 में, सीपीसीबी ने सभी 43 सीपीए में औद्योगिक विस्तार और नए उद्योग लगाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन एक साल के भीतर, औद्योगिक समूहों के दबाव के कारण यह प्रतिबंध हटा लिया गया। गुजरात के पर्यावरण कार्यकर्ता रोहित प्रजापति कहते हैं, "सीईपीआई कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं ला सका क्योंकि बिना जमीनीस्तर पर सुधार के ही प्रतिबंध को हटा लिया था।" उन्होंने आगे कहा कि गुजरात में वापी और अंकलेश्वर सीपीएज शीर्ष पर थे आज भी वैसे ही प्रदूषित हैं जैसे पहले थे।

प्रजापति कहते हैं, "निगरानी प्राधिकरण ने जमीनी सुधार को समझने के लिए स्थानीय लोगों से संपर्क तक नहीं किया और सिर्फ उद्योगों की कार्य योजना और रिपोर्टों पर भरोसा किया जो आमतौर पर बनावटी होते हैं।" उनके आरोप निराधार नहीं हैं। वर्तमान में, 43 सीपीए में से सिर्फ चार में नये उद्योगों को लगाने एवं विस्तार करने पर प्रतिबंधित कायम है, बावजूद इसके कि वो सबसे ज्यादा प्रदूषित सीपीए में से नहीं हैं। हालांकि 2009 की सूची में सबसे प्रदूषित सीपीए अंकलेश्वर, 2013 में 80.93 के प्रदूषण अंक (स्कोर) के बाद भी प्रतिबंध से मुक्त किया जाता है। जबकि जोधपुर जिसका प्रदूषण अंक (स्कोर) 78 था, उस पर प्रतिबंध लगा रखा है। इस बीच, वापी जो 2009 में दूसरे सबसे प्रदूषित सीपीए में था, 85.31 प्रतिशत अंक के साथ जो अंकलेश्वर अधिक प्रदूषित हो गया (देखें, ‘यह लगातार बद से बदतर होता जा रहा है’)। 

यहां तक कि सूत्र के मौजूदा संशोधन को उद्योग लॉबी की वजह से पेश किया गया है, जिन्होंने सीईपीआई को ‘’मूल्यांकन में सब्जेक्टिव होने की आलोचना की है। संशोधित सूत्र में, संकेतकों जैसे- आम लोगों और परिस्थितिकी – भूवैज्ञानिक (ईको-जियोलॉजिकल) लक्षणों पर प्रतिकूल प्रभाव के साक्ष्य को हटा दिया गया है क्योंकि इन मुद्दों पर सूचना, मीडिया, शोध रिपोर्टों और स्वयंसेवी संस्थाओं से एकत्रित की जाती थी। इसकी जगह, प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव की निगरानी हर दो साल में तीन से पांच अस्पतालों से एकत्र आंकड़ों के आधार पर की जाएगी।

 

मुख्य समस्या

विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार की प्राथमिकता अनुपयुक्त है। सीईपीआई का दृष्टिकोण सिर्फ पोस्टमार्टम करने जैसा है जिसमें अधिकारी ध्यान तब देते है जब औद्योगिक क्षेत्र गंभीर रूप से प्रदूषित हो चुका होता है। मौलिक समस्या यह नहीं है कि प्रदूषण का स्तर कैसे बेहतर मापा जा सके ब्लकि यह है कि प्रदूषण के होने के पहले ही कैसे रोका जा सके। यह औद्योगिक परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया (एन्वाइरन्मेंटल क्लियरेन्स ) को सुदृढ़ करके किया जा सकता है।

सरकार को पहले ज़ोनिंग एटलस (क्षेत्रीय मानचित्र)  तैयार करना चाहिए, जिसमें  प्रशासनिक विभागों, भौतिक लक्षण, भूमि, जलवायु, पर्यावरण और पानी की गुणवत्ता, पानी की उपलब्धता और प्रवाह के आधार पर जिला स्तरीय ज़ोनिंग एटलस तैयार होगा। इससे सरकार को एक खाका मिल जायेगा कि कहां विकास कार्य किया जा सकता है और इन स्थानों की प्रदूषण-अवशोषण क्षमता कितनी है। क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों, हवा और पानी के प्रदूषण स्तर की संवेदनशीलता के आधार पर, उद्योगों के लिए संभावित और वैकल्पिक स्थान तय किए जा सकते हैं। इस तरह का अध्ययन पुडुचेरी में सन 1988 में किया गया था।

1995 में सीपीसीबी ने देश के लिए एक जिला-स्तरीय ज़ोनिंग एटलस  पर कार्य शुरू किया था। परंतु संसाधनों की कमी के कारण यह कार्यक्रम 2008 में बंद कर दिया गया। टाटा स्टील के पर्यावरण और स्वास्थ्य विभाग के पूर्व प्रमुख आर पी शर्मा कहते हैं, "पर्याप्त क्षमता की कमी के कारण जिला-स्तरीय ज़ोनिंग एटलस के अध्ययन में राज्य भी असफल रहे हैं।"

सरकार को 1994 से जारी ईआईए आधारित पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। ईआईए का उद्देश्य एक परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव की पूर्वसूचना देना, प्रभाव को कम करने के तरीके खोजना, परियोजना को स्थानीय पर्यावरण के अनुरूप आकार देना, पूर्व-आकलन और विकल्प प्रस्तुत करना है। यद्यपि एक मजबूत कानूनी और विनियामक संरचना ईआईए ढांचे के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन यह केवल एक नौकरशाही आवश्यकता के रूप रह गई है। वर्तमान ईआईए ढांचे के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह केवल एक परियोजना के पर्यावरण पदचिह्न (फुटप्रिंट) के आकलन के आधार पर उस परियोजना को मंजूरी देता है। परिणामस्वरूप सरकार एक ही क्षेत्र में कई परियोजनाओं, जिसका प्रदूषण स्तर अपने-अपने मानक स्तर के अंदर होता है, को पर्यावरण मंजूरी दे देती है। लेकिन सभी उद्योगों का समग्र प्रभाव क्षेत्र की क्षमता के परे हो जाता है जिससे सीपीए की तरह अत्यधिक प्रदूषण की स्थिति हो जाती है।

ईआईए व्यवस्था में विभिन्न भागीदारों के सहयोग के लिए व्यवस्थित दृष्टिकोण की कमी है, जो बड़ी परियोजनाओं में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसके बजाय, स्थान-विषयक (स्पेशियल प्लॅनिंग) योजना को आगे बढ़ाना चाहिए। इसमें जिला या क्षेत्रीय स्तर पर परियोजना का विकास करना शामिल है।

दूसरों से सीखना

जीआईजेड (जो कि जर्मन विकास एजेंसी है) के शहरी और भू-उपयोग योजना विशेषज्ञ जॉर्ज जेंन्सन का कहना है कि "जर्मनी ने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के सभी सम्बंधित लोगों और विशेषज्ञों को शामिल कर पर्यावरण के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपनी महायोजना (मास्टर प्लान) को विकसित करने की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक मानकीकृत किया है।" न केवल जर्मनी अपितु संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और यहां तक कि जापान ने एक स्थान-विषयक या क्षेत्र-आधारित योजना अपनाई है, इसके पूर्व वे भी समस्याओं का सामना कर रहे थे जो कि भारत वर्तमान में कर रहा है।

आदर्श स्वरूप  भारत को भी ईआईए ढांचे को संचयी प्रभाव आकलन (क्युम्युलेटिव इंपॅक्ट असेसमेंट, सीआईए) दृष्टिकोण से बदलन देना चाहिए। यह न केवल प्रस्तावित उद्योग के पर्यावरण, सामाजिक और जैव विविधता के प्रभावों का हिसाब रखता है बल्कि अन्य विकास परियोजनाओं का भी, जो संबंधित क्षेत्र में पहले से थे, है और आ सकते हैं। सीआईए दृष्टिकोण क्षेत्र में सभी उद्योगों और अन्य परियोजनाओं का ध्यान रखता है, इसलिए यह प्रदूषण और संसाधन उपलब्धता के बेहतर मूल्यांकन में मदद करता है तथा संसाधनों के तनाव और अत्यधिक प्रदूषण से बचने के लिए उचित उपचारात्मक उपायों की ओर ले जाता है। कुछ सीआईए अध्ययन भारत में किए गए हैं लेकिन उनमें से अधिकतर न्यायिक हस्तक्षेप के कारण ही हुए है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले में कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्र (थर्मल पावर प्लांट) के निर्माण के बारे में 'टी मुरुगनंदम और अन्य बनाम एमओ ई एफ’  के 2012 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सीआईए अध्ययन का आदेश दिया था।

किसी भी विकासात्मक परियोजना को पर्यावरण मंजूरी देने से पहले, सरकार को क्षेत्र के कैरिंग केपेसिटी का अध्ययन करना चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन से क्षेत्र की सहायक क्षमता (उपलब्ध संसाधन) और समावेशिय क्षमता (प्रदूषण को झेलने की क्षमता) की पहचान हो जाती है। यह आर्थिक विकास के लिए भौतिक सीमा प्रदान करता है और बिना उपलब्ध संसाधनों को प्रभावित किए और क्षेत्र की प्रदूषण फैलाने क्षमता को पार किए, अधिकतम स्तर तक औद्योगिकीकरण प्राप्त करने का लक्ष्य करता है। यह अध्ययन प्रौद्योगिकी में परिवर्तन, पर्यावरण प्रणालियों में परिवर्तन, विस्तार पर नियंत्रण या परियोजना पर प्रतिबंध लगाने जैसी सभी संभव विकल्पों को देखते हुए क्षेत्र के लिए उपयुक्त और पसंदीदा व्यावसायिक परिदृश्यों का सुझाव दे सकता है। इस प्रक्रिया में उपलब्ध संसाधनों, आधारभूत पर्यावरणीय जानकारी (डेटा), प्रबंधन योजना, व्यापार के सामान्य और पसंदीदा परिदृश्य का विस्तृत विश्लेषण शामिल हैं। यह सतत विकास सुनिश्चित करने हेतु नकारात्मक प्रभाव को कम करने वाली योजना को दर्शाता है। 

भारत ने कई परियोजनाओं में कैरिंग केपेसिटी अध्ययन से क्षेत्र के उपलब्ध संसाधनों और प्रदूषण झेलने की क्षमता का अध्ययन कर लाभ पाया है। उच्च लागत, तेजी से भूमी के उपयोग में बदलाव और बहुत सारे हितधारकों में से असली उल्लंघन करने वालों की पहचान करने में कठिनाई जैसे संभावित कारण है इसलिए सरकार ने कैरिंग केपेसिटी अध्ययन को नहीं अपनाया।" शर्मा कहते हैं, जो 1992 में जमशेदपुर टाटा स्टील की पहली कैरिंग केपेसिटी का अध्ययन करने वाली टीम का हिस्सा थे।

भारत ने प्रायोगिक आधार पर ज़ोनिंग एटलस, कैरिंग केपेसिटी और सीआईए का अध्ययन किया है। सरकार को अब मौजूदा कानूनी ढांचे में संशोधन तथा इन अध्ययनों को पूरा करने के लिए उचित दिशा-निर्देश और संलेख (प्रोटोकॉल) तैयार करने की जरुरत है। इसमें जानकारी (डेटा) के संचालन के लिए केंद्रीकृत प्रणाली विकसित करने, संबंधित विभागों के बीच समन्वय में सुधार करने और हितधारकों की क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है। ये सुधार एक बड़ी जीत हो सकती है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि: क्या सरकार सही दृष्टिकोण अपनायेगी, या देश के निरंकुश विकास के लिए पर्यावरण की अनदेखी करना जारी रखेगी?

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