बोस द्वारा आविष्कार की गई सूक्ष्म तरंगों की तकनीक पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक प्रयोग की जा रही है।
वैज्ञानिक खोजें कई बार न केवल हैरान करती हैं, बल्कि अपने अनूठे गुणों के कारण अक्सर रोमांच से भर देती हैं। कुछ ऐसी ही हैरानी और रोमांच बार-बार महसूस होता है जब हम उस प्रयोगधर्मी वैज्ञानिक को याद करते हैं, जिसकी दोस्ती तरंगों से थी और जिसने पहली बार दुनिया को बताया कि पेड़-पौधों को भी अन्य सजीव प्राणियों की तरह दर्द होता है। कई महत्वपूर्ण खोजों के लिए मशहूर उस वैज्ञानिक को हम जगदीश चंद्र बसु के नाम से जानते हैं।
भारत के पहले आधुनिक वैज्ञानिक कहे जाने वाले जगदीश चंद्र बसु का जन्म (30 नवंबर) एवं पुण्य तिथि (23 नवंबर) दोनों एक ही सप्ताह में पड़ते हैं। उस महान वैज्ञानिक को इस वर्ष याद करना और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि उनकी याद में स्थापित किए गए कोलकाता स्थित बोस इंस्टीट्यूट या बोस विज्ञान मंदिर के भी 30 नवंबर, 2017 को 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। 30 नवंबर के दिन वर्ष 1917 में इस संस्थान को स्थापित किया गया था। बसु ने अपना अधिकांश शोध कार्य किसी प्रयोगशाला एवं उन्नत उपकरणों के बिना किया था और वह एक अच्छी प्रयोगशाला बनाना चाहते थे। बोस इंस्टीट्यूट उनकी इसी सोच का परिणाम है, जो विज्ञान में शोध-कार्य के लिए एक प्रसिद्ध केंद्र है।
रेडियो और सूक्ष्म तरंगों पर अध्ययन करने वाले जगदीश चन्द्र बसु पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। विभिन्न संचार माध्यमों, जैसे- रेडियो, टेलीविजन, रडार, सुदूर संवदेन यानी रिमोट सेंसिंग सहित माइक्रोवेव ओवन की कार्यप्रणाली में बसु का योगदान अहम है।आज पूरी दुनिया बोस को मार्कोनी के साथ बेतार संचार के पथप्रर्दशक कार्य के लिए रेडियो का सह-आविष्कारक मानती है।
जगदीश चन्द्र बोस का दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में योगदान रहा है। एक ओर जहां उन्होंने बहुत छोटी तरंगें उत्पन्न करने का तरीका दिखाया, वहीं दूसरी तरफ हेनरिक हर्ट्ज के रिसीवर को उन्होंने एक उन्नत रूप दिया। बोस द्वारा आविष्कार की गई सूक्ष्म तरंगों की तकनीक पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक प्रयोग की जा रही है।
कुछ समय पूर्व जब यह साबित हुआ कि मार्कोनी के वायरलेस या बेतार रिसीवर का आविष्कार जगदीश चन्द्र बोस ने किया था तो यह जानकर सभी हैरान थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि मार्कोनी ने इस रिसीवर का एक संशोधित वायरलेस यंत्र उपयोग किया था, जो मर्करी ऑटो कोहेरर था। इसी से पहली बार वर्ष 1901 में अटलांटिक महासागर के पार बेतार संकेत प्राप्त हुआ था। मार्कोनी के प्रदर्शन से पहले ही वर्ष 1885 में बोस ने रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन में जगदीश चंद्र बसु ने दूर से एक घंटी बजाकर बारूद में विस्फोट कराया, जो तरंगों की ताकत का एक नमूना ही था।
बोस ने ऐसे यंत्र का निर्माण किया, जिससे 25 मिलीमीटर से पांच मिलीमीटर तक सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न की जा सकती थीं। यह यंत्र इतना छोटा था कि उसे एक छोटे बक्से में कहीं भी ले जाया जा सकता था। उन्होंने दुनिया को उस समय एक बिल्कुल नई तरह की रेडियो तरंग दिखाई, जो एक सेंटीमीटर से पांच मिलिमीटर की थी, जिसे आज माइक्रोवेव या सूक्ष्म तरंग कहा जाता है। बोस ने ही सबसे पहले दर्शाया था कि विद्युत चुम्बकीय तरंगें किसी सुदूर स्थल तक हवा के सहारे पहुंच सकती हैं। ये तरंगें किसी क्रिया को दूसरे स्थान से नियंत्रित भी कर सकती हैं। उनकी यही धारणा बाद में रिमोट कंट्रोल सिस्टम का सैद्धांतिक आधार बनीं। उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए "इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स" ने जगदीश चन्द्र बोस को अपने "वायरलेस हॉल ऑफ फेम" में सम्मिलित किया है।
19वीं सदी के अंत तक जगदीश चन्द्र बोस की शोध रुचि विद्युत चुम्बकीय तरंगों से हटकर जीवन के भौतिक पहलुओं की ओर होने लगी। उनका मानना था कि सजीव और निर्जीव या निष्क्रिय पदार्थों के रास्ते कहीं न कहीं आपस में मिलते जरूर हैं और इस मिलन मे विद्युत चुम्बकीय तरंगे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अपने इसी विचार के आधार पर बोस ने पादप कोशिकाओं पर विद्युतीय संकेतों के प्रभाव का अध्ययन किया।
उनके प्रयोग इस तथ्य की ओर संकेत कर रहे थे कि संभवत: सभी पादप कोशिकाओं में उत्तेजित होने की क्षमता होती है। ठंडक, गर्मी, काटे जाने, स्पर्श और विद्युत उद्दीपन के साथ-साथ बाहरी नमी के कारण भी पौधों में क्रिया स्थितिज यानी एक्शन पोटेंशल उत्पन्न हो सकती है। उनके इस चिन्तन का आधार उनके द्वारा वायरलेस पर किया गया शोध था। उन्होंने जब देखा कि वायरलेस बार-बार संकेत प्राप्त करते-करते थक जाते हैं तो उनकी दक्षता में कमी आ जाती है। जीवों में भी ठीक ऐसा ही होता है। उन्होंने ऐसे संवेदनशील यंत्र बनाए, जो पौधों में भौतिक, रासायनिक, यांत्रिक या विद्युतीय स्तर की अति सूक्ष्म जैविक क्रियायों को भी दर्ज कर सकते थे।
वर्ष 1901 से बोस ने पौधों पर विद्युतीय संकेतों के प्रभाव का अध्ययन किया और इस कार्य के लिए उन्होंने ऐसे पौधों का चयन किया, जो उद्दीपन से पर्याप्त-रूपेण उत्तेजित हो सकते थे। बोस ने अपने प्रयोग के लिए छुई-मुई यानी मिमोसा पुडिका और शालपर्णी यानी डेस्मोंडियम गाइरेंस का उपयोग किया। छुई-मुई को लाजवन्ती भी कहते हैं, अगर इसकी पत्तियों को छुएं तो वे एक दूसरे की ओर झुकने लगतीं हैं। बोस ने डिसमोडियम गायरेन्स के विद्युतीय स्पंदन को जीवों की रिकॉर्ड की गई हृदय गति से तुलना करने के लिए स्पन्दन रिकॉर्डर का प्रयोग किया।
जगदीश चन्द्र बसु ने बताया कि पौधों में उद्दीपन का प्रभाव कोशिकाओं के फैलाव से भी संबंधित होता है। पौधों में स्वतः गति के अध्ययन के अलावा बसु जब पाया कि पौधों में धीमी गति से हो रहे विकास को भी दर्ज किया जा सकता है दो वह और भी आश्चर्यचकित हुए। पौधों में धीमी गति से हो रही वृद्धि को मापने के लिए बोस ने खुद ही एक अत्यन्त संवेदी यंत्र बनाया। उन्होंने इस यंत्र को क्रेस्कोग्राफ नाम दिया। यह उपकरण पौधे की वृद्धि को स्वतः दस हजार गुना बढ़ाकर दर्ज करने की क्षमता रखता था।
बसु ने दर्शाया कि पौधों में हमारी तरह ही दर्द का एहसास होता है। अगर पौधों को काटा जाए या फिर उनमें जहर डाल दिया जाए तो उन्हें भी तकलीफ होती है और वह मर भी सकते हैं। उन्होंने एक सभागार में इस बात को प्रयोग के माध्यम से सार्वजनिक रूप से दर्शाया तो लोग दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो गए। बसु ने एक पौधे में जहर का इंजेक्शन लगाया और वहां बैठे वैज्ञानिकों से कहा- “अभी आप सब देखेंगे कि इस पौधे की मृत्यु कैसे होती है।”
उन्होंने प्रयोग शुरू किया और जहर का इंजेक्शन पौधे को लगाया। पर, पौधे पर कोई असर नहीं हुआ। अपनी खोज पर उन्हें इतना दृढ़ विश्वास था कि उन्होंने भरी सभा में जहरीले इंजेक्शन की परवाह किए बिना कह दिया कि “अगर इस इंजेक्शन का इस पौधे पर कोई असर नही हुआ तो दूसरे सजीव प्राणी, यानी मुझ पर भी इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।” बसु खुद को इंजेक्शन लगाने ही जा रहे थे कि दर्शकों के बीच से एक आदमी खड़ा हुआ और कहा, ''मैं अपनी हार मानता हूं, मिस्टर जगदीश चन्द्र बोस, मैंने ही जहर की जगह एक मिलते-जुलते रंग का पानी डाल दिया था।'' बोस ने फिर प्रयोग शुरू किया और पौधा सभी के सामने मुरझाने लगा।
एक अन्य अध्ययन क्षेत्र, जिसने बसु को आकर्षित किया, वह था पौधों में जड़ों से तने और पत्ते और फुन्गियों तक पानी का ऊपर चढ़ना। पौधे जो पानी सोखते हैं, उसमें अनेक प्रकार के कार्बन तथा अकार्बनिक तत्व भी होते हैं। यह जलीय मिश्रण का पौधों में ऊपर चढ़ना “असेन्ट ऑफ सैप” कहलाता है। पौधों की वृद्धि और अन्य जैविक क्रियाओं पर समय के प्रभाव के अध्ययन की बुनियाद जगदीश चंद्र बसु ने डाली थी, जो आज विज्ञान की एक शाखा क्रोनोबायोलॉजी के नाम से प्रसिद्ध है।
एक छोटे से गांव से शिक्षा प्राप्त करने वाले जगदीश चंद्र ने अपने आविष्कारों से पूरी दुनिया से परिचित कराया था। जगदीश चंद्र बसु की लिखित वैज्ञानिक कथाएं आज भी आधुनिक वैज्ञानिकों को प्रेरित करती हैं। उन्हें बंगाली विज्ञान कथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।
(इंडिया साइंस वायर)
We are a voice to you; you have been a support to us. Together we build journalism that is independent, credible and fearless. You can further help us by making a donation. This will mean a lot for our ability to bring you news, perspectives and analysis from the ground so that we can make change together.
Comments are moderated and will be published only after the site moderator’s approval. Please use a genuine email ID and provide your name. Selected comments may also be used in the ‘Letters’ section of the Down To Earth print edition.