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“वे पहले से हमें कपटी मान बैठे थे”

जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने कोला ड्रिंक्स में कीटनाशक मिलने का अध्ययन जारी किया तब कोका कोला और पेप्सी जैसी कंपनियों ने अपनी प्रतिद्वंद्विता भुलाकर हाथ मिला लिया। 

 
By Sunita Narain
Published: Friday 15 December 2017
तारिक अज़ीज़ /सीएसई

अगस्त 2003 में भारत एक बेहद असामान्य लड़ाई का गवाह बना। यह लड़ाई एक गैर लाभकारी संगठन और विश्व की ताकतवर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बीच थी। उस वक्त जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने कोला ड्रिंक्स में कीटनाशक मिलने का अध्ययन जारी किया तब कोका कोला और पेप्सी जैसी कंपनियों ने अपनी प्रतिद्वंद्विता भुलाकर हाथ मिला लिया। लेकिन लोगों के स्वास्थ्य की जीत हुई। सुनीता नारायण की किताब “कॉन्फ्लिक्ट्स ऑफ इंट्रेस्ट” विस्तार से यह अनकही कहानी बताती है और यह भी कि लड़ाई कैसे जीती गई। किताब के विशेष उद्धरण

हम पूरी रात सोए नहीं थे। मुझे याद है कि मेरे साथी और मैंने कुछ हफ्तों तक रात को ठीक से आराम नहीं किया था। हम संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में अपना बयान दर्ज कराने की तैयारी कर रहे थे। सरकार ने समिति यह जांच करने के लिए बनाई थी कि कोला में कीटनाशक के अवशेष मिलने की हमारी पड़ताल सही थी या नहीं। हमारी परीक्षा चल रही थी। अग्निपरीक्षा। अगली सुबह हमें सांसदों की समिति के समक्ष अपने अध्ययन से संबंधित पक्ष रखना था कि यह हमने क्या और क्यों किया। हमें पता चला कि यह ऐसी चौथी जेपीसी है। पहली समिति ने बोफोर्स तोप घोटाला, दूसरी ने हर्षद मेहता स्टॉक मार्केट घोटाला, तीसरी ने केतन पारेख शेयर मार्केट घोटाले की जांच की थी। और अब अगस्त 2003 में सभी दलों के सदस्यों वाली और वरिष्ठ राजनेता शरद पवार की अध्यक्षता में चौथी जेपीसी गठित की गई थी।

लेकिन हम इस बारे में नहीं सोच रहे थे। हमारा पूरा ध्यान अपनी रिसर्च और हमें क्या स्पष्टीकरण देना है, इस पर था। हम थके हुए थे। आगे क्या होगा, यह धुंधला था। हममें से किसी ने लोकसभा सचिवालय में यह सुनिश्चित करने के लिए फोन किया कि वहां पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन का इंतजाम होगा या नहीं। मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकती कि हमने क्या और कैसे बातचीत की।

सितंबर 2003 की उस सुबह हम संसद भवन स्थित एनेक्सी में पहुंच गए। हमें प्रोटोकोल के बारे में समझा दिया गया था। हमें समिति के सामने कहां बैठना है और कैसे संबोधित करना है, यह बता दिया गया। यह डरावना था। मैं और मेरे सहयोगी चंद्र भूषण ने सर झुकाकर प्रवेश किया और हम बैठ गए। हमने वहां पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के बारे में पूछताछ की तो स्टाफ ने हमारी तरफ देखा और दीवार बिजली के सॉकेट की तरफ इशारा करते हुए बताया- हां, जिस पावर प्वाइंट के बारे में आपने बात की थी वह वहां है।

हम करीब 15 जोड़ी घूरती निगाहों के सामने थे। वे पहले से मान बैठे थे कि हम कपटी लोग हैं और हमने कोला में कीटनाशकों की अध्ययन सिर्फ इसलिए किया है ताकि हम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उगाही या कुछ और हासिल कर सकें। उन्हें संतुष्ट करने का हमारे पास एक मौका था लेकिन हम उन्हें प्रस्तुतिकरण नहीं दिखा सकते थे। वहां कोई स्क्रीन और प्रोजेक्टर नहीं था।  

मुझे लगता है कि यह सबसे मुश्किल घड़ी थी। लेकिन मेरे सहयोगियों ने हार नहीं मानी और मुझे भी नहीं मानने दी। आधे घंटे के अंदर उन्होंने साजो-सामान का बंदोबस्त कर लिया और उसे स्थापित कर दिया। इस दौरान समिति की ओर से मुझे मुश्किल और बेहद कठिन सवालों का जवाब देना पड़ा। मुझे अच्छे से याद है कि कैसे एक सांसद (जो बाद में अच्छे मित्र बन गए) ने बेहद रुखाई के साथ सवाल किया कि क्या हमने यह अध्ययन कंपनियों से पैसे लेने के लिए किया है। उन्होंने डीजल के विरोध में चलाए गए अभियानों का उदाहरण दिया और पूछा कि क्या हमें इसके लिए टाटा से पैसा मिला है।

निष्कर्ष यह था कि हमने अपने अध्ययन के जरिए कंपनियों से पैसा लेने का दबाव बनाया है। इसे मैं उगाही कहूंगी। मुझे याद है कि मैं आग-बबूला हो गई थी। शायद मेरी इस प्रतिक्रिया से समिति के सदस्यों को यह समझने में मदद मिली थी कि हमारा यह उद्देश्य नहीं था। वहां हमने अपना बयान दर्ज कराया कि हमारा उद्देश्य भूजल में कीटनाशकों का पता लगाना और यह अध्ययन करना था कि इससे उत्पाद कैसे बनाए जाते हैं जिनका हम सेवन करते हैं और हमारी सेहत और शरीर के लिए इसके क्या मायने हैं।

वह फरवरी 2013 साल था। हमने बाजार में बेचे जा रहे बोतलबंद पानी में कीटनाशकों के अवशेषों के मिलने का अध्ययन जारी किया था। हमने बताया था कि कैसे कीटनाशक बोतलबंद पानी में मिले थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इन बोतलों में कीटनाशकों के स्तर का निर्धारित करने के लिए नियम इस तरह बनाए गए थे कि जिससे कीटनाशकों के अवशेषों का पता नहीं चलता था। 

अपने इस अध्ययन को आगे बढ़ाने और दूसरे उत्पादों के पड़ताल की हमारी कोई इच्छा नहीं थी। तब हमारे पाठकों ने हमें लिखा। वे जानना चाहते थे कि बोतलबंद पानी उद्योग के बारे में हमने जो कहा है अगर वह सच है तो सॉफ्ट ड्रिंक उत्पादकों के बारे में आप क्या कहेंगे? आखिर वे भी कच्चे माल के रूप में भूजल का इस्तेमाल करते हैं। उनके पानी का मुख्य स्रोत भूजल ही है। उन्होंने जो कुछ कहा, उसके बारे में बताना हमारी जिम्मेदारी थी।

उस वक्त बोलतबंद पानी उद्योग 1,000 करोड़ रुपए का था लेकिन सॉफ्ट ड्रिंक उद्योग 6,000-7,000 करोड़ रुपए का था। उस वक्त भारतीय हर साल सॉफ्ट ड्रिंक की 6.6 मिलियन(66 लाख) बोतल का इस्तेमाल कर रहे थे। हमेशा की तरह इसका औसत और व्यापार लगातार बढ़ रहा था। एक मिनट के लिए कल्पना कीजिए कि अगर बोतलबंद पानी के उद्योग को नियंत्रित किया जाता है तो इसके प्राण निकल जाते।

हम सब हैरान थे। सॉफ्ट ड्रिंक्स की जिन बोतलों का सीएसई की प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला में परीक्षण किया गया उन सबमें कीटनाशक पाए गए और ये मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित समझे जाने वाले तय मानकों से काफी अधिक थे। पेप्सीको ब्रांड के सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशकों की मात्रा 0.0180 mg/1 तक थी। यूरोपीय यूनियन की कुल कीटनाशकों के लिए तय मात्रा से यह 36 गुणा अधिक थी। कोका कोला के उत्पादों में कीटनाशकों की मात्रा 0.0150 mg/1 थी। यह तय मात्रा से 30 गुणा अधिक थी।

सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि पैसों के भूखे सभी उद्योग कम या अधिक अनियंत्रित थे। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के कुछ हद तक बोतलबंद पानी उद्योग के लिए अनिवार्य मानक हैं। इसकी तुलना में फूड इंडस्ट्री के लिए कुछ भी नहीं है। यह बहुत सी एजेंसियों और मानकों से संचालित होता है जिनमें से अधिकांश बेतमलब या बेकार हैं। उदाहरण के लिए हमने पाया कि सॉफ्ट ड्रिंक्स को फूड प्रोडक्ट ऑर्डर के तहत संचालित किया जाता है जो बाद में प्रिवेंशन ऑफ फूड अडल्ट्रेशन एक्ट 1954 के अधीन आ गया। इसके सभी गुणवत्ता मानक स्वैच्छिक थे।

दूसरे शब्दों में कहें तो इस बड़े उद्योग को बड़े पैमाने पर छूट दी गई थी। दुखद यह है कि किसी भी कानून में इस तथ्य का भी उल्लेख नहीं है कि 90 प्रतिशत पानी वाले उत्पाद को जांचने की जरूरत है। सॉफ्ट ड्रिंक्स में जानलेवा आर्सेनिक और लेड की मात्रा बोतलबंद पानी और पीने के पानी के मुकाबले 50 गुणा ज्यादा तय की गई है। क्या निगम बनाने वाले इन तथ्यों को भूल गए हैं? या ऐसा जानबूझकर किया गया है?

जब हम अपना अध्ययन जारी करने के लिए तैयार हुए तब हमें पता था कि यह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही छोटी कंपनियों से संबंधित नहीं है। नियामक जानते थे कि नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यह मामला दो बड़ी कंपनियों से जुड़ा था जो संयोग से दुनिया के बाजार को नियंत्रित भी करती थीं। सबसे जरूरी बात यह है कि नियंत्रण की कमी में फूड इंडस्ट्री भी शामिल था। यह हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालता है।

अगस्त 2003 को हमने तथ्यों से लैस होकर कोला में कीटनाशकों पर अध्ययन जारी कर दिया। इसके बाद कहर टूट पड़ा।

हमारी रिपोर्ट के जारी होने के कुछ घंटों बाद चिर प्रतिद्वंद्वी पेप्सीको और कोका कोला ने हमारी रिपोर्ट को नकारने और जांच प्रयोगशाला की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस की। मुझे याद है कि उस दिन की शाम मुझे एक टेलिविजन चैनल में बुलाया गया था। कंपनी के प्रमुख ने उस पैनल में शामिल होने से इनकार कर दिया जिसमें मैं भी शामिल थी। उन्होंने कहा था कि हम उनका कीमती समय लेने के कािबल नहीं हैं।

लेकिन अगले दिन की सुबह तक स्थितियां उनके और हमारे नियंत्रण से बाहर हो गईं। लोग बेहद गुस्से में थे। हमें पता चला कि बोतलें तोड़ी गई हैं, सॉफ्ट ड्रिंक्स की बिक्री घट गई है और चारों तरफ गुस्सा है। राज्य सरकारों ने कोला पर प्रतिबंध लगा दिया है, संसद से भी बोतलें फेंक दी गई हैं। मीडिया भी आक्रोशित था। इसका मतलब था कि कंपनियों के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। लोगों ने उन्हें खुले में आकर जवाब देने पर विवश कर दिया था।

फिर आक्रामक जनसंपर्क शुरू हुआ। फिल्म स्टार शाहरुख खान और आमिर खान लोगों को यह समझाने के लिए सामने लाए गए कि हम गलत हैं। दोनों प्रयोगशाला का सफेद कोट (शायद पहली और आखिरी बार) पहनकर लोगों को ध्यान से बता रहे थे कि ड्रिंक्स बिलकुल सुरक्षित है। लोग इन “स्थापित भगवानों” के आगे हम पर भरोसा कहां करने वाले थे!

इन सबके पीछे रणनीति सामान्य थी- रिपोर्ट, संस्थान और उसमें काम करने वाले लोगों को बदनाम कर दो। इसमें हैरानी की बात नहीं है, न ही यह नया है और कल्पना से परे भी नहीं है। कारपोरेट की रणनीतियों को समझने के बाद पता चलता है कि यह तय और अनुमानित तरीके हैं।

लेकिन इसमें नयापन यह था कि कम से कम भारत में गैर सरकारी संस्थानों की ओर से जनहित के मुद्दे उठाने पर होने वाली कटु आलोचना। पेप्सीको ने अदालत में याचिका दायर कर यह दलील दी कि सीएसई एक गैर सरकारी संस्था है इसलिए उसका कोई कानूनी अधिकार या मान्यता नहीं है इसलिए निजी व्यक्ति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट की कानून की नजर में वैद्यता नहीं है। अपनी याचिका में पेप्सीको अदालत से निर्देश चाहता था ताकि सीएसई के बयानों को छपने से रोका जा सके और वेबसाइट से समस्त सामग्री हटाई जा सके। दूसरे शब्दों में कहें तो वह एक ऐसा आदेश चाहता था जिससे संस्थान का गला घोंटा जा सके और उसके निष्कर्ष को दबाया जा सके।

पेप्सीको के प्रमुख ने अखबारों में लेख लिखे और कहा कि हमारा अध्ययन लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग का एक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि एनजीओ के कोड ऑफ कंडक्ट पर नियम बनाने की ओर ध्यान देने की जरूरत है। यह स्लैप केस था जिसमें लोगों को आलोचनाओं के जरिए चुप कराने की कोशिश की जाती है। वे लोगों और संस्थानों के जनहित में बोलने और अपने विचार सरकारी अधिकारियों तक पहुंचाने के अधिकार पर सवाल उठाते हैं। जब टीवी कार्यक्रम की प्रस्तोता ओपरा विन्फ्रे ने अपने कार्यक्रम में “मैड काऊ डिसीज” पर चर्चा की और कहा कि इस बीमारी के डर से उन्होंने खुद को एक और बर्गर खाने से रोक दिया तो उन पर जानवरों के अपमान का मुकदमा कर दिया गया। अदालत से दोषमुक्त होने में उन्हें चार साल लगे और करीब एक मिलियन डॉलर उनके खर्च हो गए।

लेकिन ये स्लैप हमेशा काम नहीं करता। यह तथ्य है कि पेप्सीको के वकील हरीश साल्वे (प्रदूषण के मामले में हमारे अमाइकस) ने आश्वासन दिया कि स्लैप बंद हो जाएगा। उन्होंने अदालत में कहा कि उनके मुवक्किल मेरे और सीएसई के खिलाफ सारे व्यक्तिगत हमले बंद कर देंगे।

अब सारी लड़ाई बहसों और तर्कों पर आधारित थी। पेप्सीको की दलील थी कि कंपनी उच्च गुणवत्ता मानकों से बंधी है जो वैश्विक स्तर पर सर्वक्षेष्ठ हैं। उन्होंने अदालत में यह भी कहा कि उनके आंतरिक मानक यूरोपीय यूनियन और यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन से भी सख्त हैं। उन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।

हमने कहा कि मामला इतना भर नहीं है। कीटनाशक जहर हैं और कंपनियों ने अपने उत्पादों में इस्तेमाल किए गए पानी को साफ करने की चिंता नहीं की है।


इस मामले में यह प्रमाण है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपने दावे के अनुरूप उच्च वैश्विक मानकों का पालन नहीं किया। हमने ऐसा इसलिए ही नहीं कहा कि हमें परीक्षण के दौरान भारत और अमेरिका में तैयार की गई बोतलों में अंतर मिला था बल्कि इसलिए भी कहा कि कंपनियों के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं मिला था जिससे साबित हो कि वे अपने उत्पाद में कीटनाशकों की मात्रा की निगरानी के लिए नियमित निगरानी करती हैं। वे जांच नहीं करतीं क्योंकि भारत में उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी।

यह उनका सबसे कमजोर पहलू था जो यह स्थापित करता है कि ग्लोबल कारपोरेशंस भारत में कमजोर मानक अपना रहे हैं। इससे विकासशील देशों की सरकारों का कर्तव्य बनता कि वे अपने नियम सख्त करें। हमने छानबीन की तो इस बात का पता चला कि दुनिया के कई हिस्सों में इस उद्योग में कोई मानक नहीं हैं। बड़े कारपोरेशंस पर सरकारें या तो भरोसा कर रही हैं या कमजोर और रीढ़विहीन हैं। हमारे लिए यह पेप्सीको या कोका कोला से लड़ाई नहीं थी बल्कि अपनी सरकारों से थी। हम चाहते थे कि वे खाद्य उत्पादों के लिए नियम बनाएं।


11 अगस्त 2006 को दिल्ली उच्च न्यायालय हमसे सहमत हो गया। वर्तमान में यह स्थिति है कि भारत में सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशकों की उपस्थिति के संबंध में कोई मानक नहीं हैं। यही वजह है कि प्रतिवादियों (सीएसई और मैं) ने लोगों के सामने यह मामला ला दिया है कि भारत में ऐसे कोई मानक नहीं हैं जबकि दूसरे देशों में यूएस एनवायरमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी और यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन हैं।

इस आदेश के मद्देनजर हमने जवाबी याचिका दाखिल की और न्यायालय से कहा कि वह सरकार को उत्पादों के लिए सर्वोत्तम और सुरक्षित नियम बनाने को कहे। जैसे ही हमने जवाब दाखिल किया वैसे ही पेप्सीको ने चुपचाप केस वापस ले लिया।

फिर हमले चालू हो गए। पहला हमला हमारी प्रयोगशाला पर था। उन्होंने आंकड़ों के परीक्षण, हमारी क्षमताओं, हमारे उपकरण पर सवाल उठाए। इसके बाद व्यक्तिगत और हमारी मंशा पर हमले किए। उन्होंने हमें यूरोपियन षड्यंत्र का शिकार बताकर खारिज कर दिया और कहा कि हमने अमेरिकी कंपनियों को बदनाम करने के लिए ऐसा किया है। इतना काफी नहीं था। हमने अफवाहें सुनीं कि शक्तिशाली यूएस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट कॉलिन पावेल ने प्रधानमंत्री कार्यालय से इस मुद्दे पर बात की है। हमने सुना कि वाशिंगटन स्थित महंगे वकील (लॉबिस्ट) सत्ता को मनाने आ रहे हैं। हमें उनकी गहन गतिविधियों की सूचनाएं मिलीं।

हमें पता था कि हालात हमारे प्रतिकूल हो जाएंगे। हमें पता था कि हमारे यहां खूफिया ब्यूरो के खाकी वर्दीधारी जांच के लिए पहुंचने लगेंगे। हमें पता था कि हमसे 20 सालों के हमारे खातों, 20 सालों की हमारी फंडिंग के आंकड़ों, 20 साल से हमारे साथ काम कर चुके और काम रहे स्टाफ की जानकारी मांगी जाएगी और उनका वर्तमान पता पूछा जाएगा। हमें पता था कि हमें किसी तरह फंसाने की रणनीतियां बनेंगी।

जैसा कि मैं पहले बता चुकी हूं कि यह वह दौर था जब विज्ञापन के जरिए छवि चमकाने का काम किया गया। आमिर खान और शाहरुख खान को भुगतान करके हमारे अध्ययन का मजाक उड़ाया गया और लोगों को कोला के प्रति आकर्षित करने के जतन किए गए। यह उनका काम है। आखिर वे पैसे लेकर काम करने वाले अदाकार हैं जो कीमत चुकाने पर मेरे भी हो सकते हैं। समस्या यह थी कि सरकार ने अपने दायित्व से मुंह मोड़ लिया था।

मैं आपको 5 अगस्त 2003 के उस हफ्ते में लेकर चलती हूं। जैसे ही हमारी रिपोर्ट प्रकाशित हुई जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, कहर टूट पड़ा।

6 अगस्त को प्रेस कॉन्फ्रेंस में आंकड़े देने के एक दिन बाद गुस्साए सांसदों ने सॉफ्ट ड्रिंक्स पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। उस दिन से संसद भवन की कैंटीन में भी कोला परोसना बंद कर दिया था। तब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री (अभी विदेश मंत्री) सुषमा स्वराज ने सदन को बताया था कि उन्होंने रिपोर्ट पर विस्तृत जांच के आदेश दिए हैं। मैसूर स्थित सरकारी प्रयोगशाला द सेंट्रल फूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट और कोलकाता स्थित द सेंट्रल फूड लेबोरेटरी को ताजा नमूने लेने और उनमें कीटनाशकों को जांचने को कहा गया।


करीब 15 दिन बाद 21 अगस्त 2003 को स्वास्थ्य मंत्री निष्कर्षों के साथ संसद पहुंचीं। उन्होंने कहा कि सरकारी प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए भेजे गए 12 बोतलों के नमूनों में से 7 में कीटनाशक मिले हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह थी कि जो स्तर सरकारी जांच में पाया गया था वह हमारे नतीजों से कम था। उन्होंने बताया कि कुछ नमूनों में यूरोपीय यूनियन की ओर से तय मानकों से भी कम स्तर है। हमने यूरोपीय यूनियन द्वारा तय कीटनाशकों के अवशेष 11-70 गुणा अधिक पाए थे जबकि सरकारी प्रयोगशाला में महज 1.5-5 गुणा अधिक कीटनाशक पाए गए। पेय पदार्थ सुरक्षित थे क्योंकि इनमें बोतलबंद पीने के पानी के मुकाबले कीटनाशकों का स्तर कम था। जिस सरकारी प्रयोगशाला ने नमूनों का परीक्षण किया था उसे मालाथियोन के कोई अवशेष नहीं मिले। सरकारी परीक्षण साबित करता था कि हमारा अध्ययन सही और भरोसेमंद नहीं।

इससे पहले कि हम जवाब देते, संसद में यह मुद्दा भड़क गया। संसद के सदस्यों ने मांग की कि हमारे परीक्षणों की वैद्यता और तकनीक की जांच करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित की जानी चाहिए।

अब कंपनियां जश्न मना रही थीं। अखबारों में रिपोर्ट छपीं कि उनकी छवि फिर से बनने लगी है। दोनों कंपनियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि सरकार की ओर से उनके उत्पाद को क्लीन चिट मिलने के बाद वे खुश और राहत महसूस कर रही हैं। तब पेप्सीको के चेयरमैन राजीव बख्शी ने मीडिया को कहा था कि सरकार ने हमारे उत्पाद को सुरक्षित माना है, ऐसे में हमारे पक्ष की पुष्टि होती है। वह और उनके चिर प्रतिद्वंद्वी कोका कोला इंडिया के अध्यक्ष संजीव गुप्ता लगातार हमें और हमारे काम को नकार रहे थे। उनका कहना था कि 100 साल पुराने ब्रांड के लिए विवाद पैदा करने वाले फोर्टनाइट का कोई महत्व नहीं है। हमें हमारी जगह दिखा दी गई थी।

22 अगस्त को मंत्री ने सदन को संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की जानकारी दी। इसमें 15 सदस्य शामिल थे। दस सदस्य लोकसभा और 5 सदस्य राज्यसभा से थे। संयुक्त संसदीय समिति को हमारी जांच करनी थी, कोला की नहीं। समिति का कहना था कि वह इस बात की जांच करेगी कि सॉफ्ट ड्रिंक्स में कीटनाशकों के अवशेषों की मौजूदगी की सीएसई के निष्कर्ष सही हैं या नहीं। वह सॉफ्ट ड्रिंक्स, फलों के जूस और पानी पर आधारित अन्य पेय पदार्थों के लिए जरूरी सुरक्षा मानकों के बारे में भी सुझाव देगी।  

जेपीसी की अग्निपरीक्षा

जेपीसी के साथ हुई पहली मीटिंग की शुरुआत के बारे में मैं पहले ही बता चुकी हूं। भीषण दुर्घटना के तौर पर यह शुरू हुई थी। लेकिन इसका अंत बेहतर था, काफी बेहतर क्योंकि सांसदों ने हमारी चिंताएं समझी थीं। समिति को हमारे निष्कर्षों की सच्चाई का पता लगाना था। लेकिन इसके लिए विश्लेषणात्मक अध्ययन के विज्ञान को समझना जरूरी था। साथ ही खाद्य और पेय पदार्थों के सुरक्षा निर्धारण के विज्ञान को भी समझना आवश्यक था। यह जानना जरूरी था कि यह कितना सुरक्षित है और कितना कानून की नजरों में सुरक्षित है?

दूसरे शब्दों में कहें तो जेपीसी के लिए खाद्य सुरक्षा, मानकों का निर्धारण और कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए नियमों को समझना जरूरी था। सदस्यों के लिए नियमों के क्रियान्वयन के लिए सांगठनिक रूपरेखा की समझ भी जरूरी थी। इन्हें समझने के लिए दूसरे देशों की सर्वोत्तम कार्यप्रणाली का पता लगाने की जरूरत थी ताकि सुधार का रोडमैप सुझाया जा सके। सभी के लिए यह मुश्किल काम था, खासकर उस वक्त जब सांसदों की व्यस्तता को बढ़ाने वाले चुनाव सिर पर थे। यह सितंबर 2003 था और जनवरी 2004 में चुनाव होने थे।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि हमारी पहली भेंट पारंपरिक थी। कारपोरेट का दुष्प्रचार उन तक पहुंच चुका था। हम यूरोपीय यूनियन के नियमों की वकालत कर रहे थे जिससे भारतीय उद्योगों को खतरा था। हम बिना विज्ञान के प्रचार चाह रहे थे। हम भरोसेमंद नहीं थे।

लेकिन उनकी प्रतिक्रिया में तब बदलाव आने लगा जब हमने अपना पक्ष रखा। जानकारी हासिल करने की उनकी ललक ने हमें हैरान कर दिया। उनके हाथ में जरूरी मुद्दे थे। उन्होंने हमसे मुश्किल सवाल पूछे लेकिन उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भी गंभीरता से लिया। वे खुले दिमाग से सूचनाओं को हासिल करने के लिए तैयार थे।

उन्होंने हमसे सवाल किया कि हम पानी में कीटनाशकों के अवशेष पर क्यों इतने सख्त मानक चाहते हैं? क्या इससे भारतीय उद्योग और इसकी प्रतियोगिता पर असर नहीं पड़ेगा?

यह एक अच्छा सवाल था। हमारा जवाब था कि हम सख्त नियम इसलिए चाहते हैं क्योंकि दुनिया भर के नियामक इस बात पर सहमत हैं कि पानी में कीटनाशकों के अवशेष का कोई औचित्य नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि भोजन में कीटनाशक स्वीकार्य हो सकते हैं (लेकिन एक तय सीमा में) लेकिन इसे पानी में स्वीकार नहीं किया जा सकता। कीटनाशक आर्थिक जहर हैं जिसका खाद्य उत्पादन में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इसकी एक तय मात्रा ही भोजन में मिलाई जानी चाहिए लेकिन पानी में कीटनाशक से वह प्रदूषित हो जाता है।

कीटनाशकों के अवशेषों का साफ करने की तकनीक मौजूद है। इसकी लागत निषेधात्मक नहीं है। हमारी दलील थी कि भारत इस पानी की गंदगी को वहन नहीं कर सकता क्योंकि इसे साफ करने की लागत बहुत अधिक है। इसलिए भविष्य में पानी को सुरक्षित रखने के लिए सावधानी भरे कदम उठाने की जरूरत है।

हम सभी उद्योगों के लिए सख्त नियमों (यूरोपीय यूनियन के नियम) की मांग नहीं कर रहे थे। हमने कहा कि पेय (बेवरेजेस) उद्योग के लिए एक ही नियम हास्यापद हैं। इससे केवल नियमों के बीच दूरी बढ़ेगी और वे कमजोर होंगे। हम सख्त नियम चाहते थे। अलग-अलग श्रेणी के उत्पादों के लिए अलग नियम जरूरी थे क्योंकि सबकी तकनीक और काम करने की तरीका अलग था। दूसरे शब्दों में कहें तो आप सॉफ्ट ड्रिंक्स और फलों के जूस या माल्ट पेय को एक ही तराजू में नहीं तौल सकते।

हमने जेपीसी से कहा कि पोषण वाले और जहरीले पेय पर अलग-अलग नियमों पर विचार करें। पोषण देने वाले जरूरी पदार्थों जैसे जूस, दूध, फल और सब्जियां और गैर जरूरी और गैर पोषण वाले पदार्थों में फर्क करना जरूरी है। दोनों के लिए कीटनाशकों के नियम एक समान नहीं हो सकते।

यह स्पष्ट था कि हम सभी भोज्य पदार्थों में यूरोपीय यूनियन के नियम की मांग नहीं कर रहे थे। इसका कोई औचित्य भी नहीं था। हमें वो काम करना था जो यूरोपीय यूनियन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया कर रहे थे। कहने का मतलब है कि अपनी डाइट और व्यापारिक हितों को मद्देनजर रखते हुए कीटनाशकों के अवशेषों के अपने मानक तय करना। लेकिन हमारे मानक कमजोर और स्वास्थ्य के लिहाज से बेकार थे। इस बात की तत्काल जरूरत थी कि पूरे तंत्र में खाद्य सुरक्षा मानकों को लागू किया जाए। हमने बताया कि वर्तमान तंत्र में व्यापारिक और किसानों दोनों के हित बराबर खतरे में हैं।

हमारे लिए यह मुश्किल समय था। काफी मुश्किल। मुझे लगता है कि हम उन सवालों के साथ सोते, खाते और पीते थे जो हमसे पूछे जा सकते थे। हमने उस विज्ञान की तरफ उम्मीदों के साथ देखा जिसे चुनौती दी जा सकती थी और जिससे उत्तर भी मिल सकता था।

उदाहरण के लिए मालाथियोन एक ऐसा ही मुद्दा था। हम जानते थे कि इस मुद्दे को आगे ले जाने की जरूरत है। सरकारी प्रयोगशाला में परीक्षण करने वाले वैज्ञानिकों ने समिति को बताया था कि उनके निष्कर्षों में कीटनाशकों का स्तर कम मिला है लेकिन सबसे अहम था कि उन्हें मालाथियोन नहीं मिला जो एक कीटनाशक था। यह हमारे लिए अच्छा नहीं था क्योंकि इससे हमारे निष्कर्षों पर सवाल उठाए जा रहे थे।

हम अपने निष्कर्षों को दोबारा जांचने के लिए अलग प्रयोग कर रहे थे। हमने ये सब जेपीसी को दिखाए और उन तमाम सवालों का सामना किया जो सरकारी वैज्ञानिकों ने उठाए थे। यह जरूरी था क्योंकि इससे साबित होता था कि जिन तथ्यों पर हमारे अध्ययन ने रोशनी डाली थे, वे मजबूत थे।

कोला कंपनियों की रणनीति अलग थी। उनके कारपोरेट की चाल अन्य दस्तावेजों और रिपोर्टों के जरिए समिति के काम में रुकावट डालने की थी। उनका मानना था कि समिति उनके विज्ञान को मानने से इनकार नहीं करेगी और उनके लिए रास्ता बन जाएगा या समिति उनकी 100 साल पुरानी वैश्विक साख का खयाल रखेगी।

अचानक अंत

हमारी उम्मीद से पहले जेपीसी का अंत हो गया। जनवरी 2004 में चुनावों के सिर पर आने की अफवाहें थीं। उस वक्त एनडीए सरकार जल्दी चुनाव की मांग कर रही थी। संसदीय नियम है कि रिपोर्ट चुनाव से पहले जमा हो जानी चाहिए। ऐसा न हाने पर बिना रिपोर्ट के समिति भंग हो जाती। हमें लगता है कि समिति के अध्यक्ष शरद पवार चाहते थे कि ऐसा किसी भी सूरत में नहीं होना चाहिए।

26 जनवरी 2004 के आसपास सभी सदस्यों को मसौदा रिपोर्ट दी गई। रिपोर्ट से हमें नुकसान और फायदा दोनों हुआ। हमारा यह कहकर बलिदान दे दिया गया कि रिपोर्ट के नतीजे सही नहीं हैं। इससे हमारी और हमारी विश्वसनीयता की हार तो हुई लेकिन हमें स्वीटनर(झुनझुना)भी दे दिया गया। हमने कीटनाशकों से लेकर पानी तक में जिन मानकों और खाद्य नियामक संस्था की बात की थी, वह संभव हो सकी।

हमें नहीं पता था कि समिति की आखिरी बैठक में क्या हुआ था। लेकिन यह बताती है कि उम्मीद बाकी है। जब हमने बोलना शुरू किया तब हमें कह दिया गया कि हम एक बंद गली में पहुंच गए हैं।

हमें बताया गया था कि सांसदों की अब दिलचस्पी नहीं है। मुद्दे बेहद विवादित और टेक्निकल हैं। आलोचकों ने कहा कि चुनाव के मद्देनजर समिति के नतीजे अकूत दौलत और ताकतवर कारपोरेशंस के पक्ष में हैं।

लेकिन हमारी हार नहीं हुई। समिति की अंतिम रिपोर्ट में खाद्य सुरक्षा के लिए मजबूत और प्रगतिशील एजेंडा निर्धारित था। रिपोर्ट में सरकार से मांग की गई कि वह इस दिशा में सुधार के कदम उठाए। समिति ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था करीब अपरिवर्तनशील है, उसकी मांग है कि बदलाव किया जाए। उस दिन हमने बहुत जरूरी सबक सीखा। वह यह कि लोकतंत्र की कामयाबी के लिए इसे काम भी करना चाहिए। हमारे लिए जेपीसी ने इससे भी ज्यादा काम किया। उसने कहा कि प्रयोगशालाओं के निष्कर्षों में अंतर इसलिए आया है कि उसमें समरूप नमूने नहीं जांचे गए। नमूनों की उत्पादन की तारीखें और लोकेशन भी अलग थी। इसलिए परिणाम संबंधी दोनों के निष्कर्षों की तुलना नहीं की जा सकती। इसके बाद असली पुरस्कार मिला। हमारे काम की तारीफ की गई और हमारे निष्कर्षों को प्रमाणित किया गया।

“संयुक्त संसदीय समिति ने पाया है कि कोर्बोनेटेट पानी में कीटनाशकों के अवशेषों पर सीएसई की ओर से 12 ब्रांड के 26 नमूनों पर किए गए परीक्षण के निष्कर्ष सही हैं। समिति खाद्य सुरक्षा, नीति निर्धारण, नियामक ढांचा व मनुष्यों व पर्यावरण के प्रति गंभीर मुद्दे पर देश का ध्यान खींचने और सावधान करने के सीएसई के कदम की सराहना भी करती है।”

(मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद भागीरथ ने किया है)

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