विश्लेषण: खाद्य प्रणाली में सुधार से किसे पहुंचेगा फायदा?

23 सितंबर को आयोजित यूएन फूड सिस्टम्स समिट का उद्देश्य फंडिंग में कटौती किए बिना, इस सेक्टर से होने वाले भारी उत्सर्जन को कम करने के लिए खाद्य उत्पादन प्रणाली को बदलने पर आम सहमति बनाना था। लेकिन ऐसा कहना आसान है, करना मुश्किल

By Richard Mahapatra

On: Friday 29 October 2021
 
दुनियाभर के किसानों के संगठित समूहों और स्वदेशी आंदोलनों ने यून फूड सिस्टम्स समिट का बहिष्कार किया (फोटो सौजन्य: वायाकैम्पेसिना डॉट ओआरजी )

जब 23 सितंबर 2021 को वर्चुअल यूनाइटेड नेशंस (यूएन) फूड सिस्टम्स समिट शुरू हुआ, उस वक्त भी हमारी खाद्य प्रणाली असल में पृथ्वी के स्वास्थ्य को बाधित कर रही थी। 90 देशों ने खाद्य प्रणालियों में सुधार के लिए “प्रतिबद्धता” दिखाई। इन सुधारों में शामिल हैं कि हम किस तरह का भोजन उगाते हैं, कैसे उगाते हैं, हम क्या खाते हैं, सरकारें उत्पादकों का समर्थन कैसे करती हैं आदि। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि खाद्य प्रणाली 3.2 अरब लोगों की आजीविका का स्त्रोत भी है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

अक्टूबर 2019 में, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने 2021 में शिखर सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा की। उन्होंने 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को हासिल करने के लिए दृष्टिकोण में बदलाव का प्रस्ताव रखा। यह परिवर्तन वैश्विक खाद्य प्रणालियों को एसडीजी हासिल करने के हिसाब से तय किया गया है, क्योंकि इस सब के केंद्र में भूख और जलवायु परिवर्तन, गरीबी और असमानता जैसी वैश्विक चुनौतियां हैं।

खाद्य प्रणालियां 17 एसडीजी में से कम से कम 12 को प्रभावित करती हैं। संयुक्त राष्ट्र का दावा है कि समुदाय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बातचीत हुई है, जिसमें 1,00,000 से अधिक लोगों ने अपने विचार दिए हैं, जो अगले नौ वर्षों में एसडीजी को पूरा करने के लिए खाद्य प्रणालियों में सुधार करेंगे।

इस साल खाद्य प्रणालियों में सुधार के लिए दो अन्य वैश्विक कार्यक्रम भी आयोजित होने हैं। नवंबर में ग्लासगो, स्कॉटलैंड में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य से खाद्य और कृषि प्रणालियों पर भी बात किए जाने की उम्मीद है। 7-8 दिसंबर, 2021 को न्यूट्रीशन फॉर ग्रोथ (एन4जी) शिखर सम्मेलन की मेजबानी जापान करेगा, जो वैश्विक खाद्य प्रणालियों के भीतर पोषण में सुधार पर ध्यान केंद्रित करेगा।

इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन ही असल में खाद्य प्रणालियों में सुधार के संदर्भ मुहैया कराता है। यकीनन, हमारी खाद्य प्रणालियों के विघटनकारी परिणामों के लिए इस तरह से पहले कभी समीक्षा नहीं की गई थी। मांग को पूरा करने के लिए 10,000 वर्षों में खाद्य उत्पादन और खपत की प्रणाली इंजीनियरिंग प्रयोगों से गुजरी हैं। अब, पीछे मुड़कर देखने की जरूरत है, क्योंकि खाद्य प्रणालियों को पृथ्वी और उसके लोगों के बिगड़ते स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

क्या है पर्याप्त भोजन?

हर साल दुनिया 10 अरब लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त उत्पादन करती है, जो वर्तमान विश्व जनसंख्या की तुलना में बहुत अधिक है। फिर भी दुनिया 2030 तक भूख, खाद्य असुरक्षा और कुपोषण को खत्म करने में सक्षम नहीं होगी। 2020 में लगभग 2.37 अरब लोग यानी दुनिया की आबादी की एक तिहाई पर्याप्त भोजन नहीं पा सकी। यह 2019 के आंकड़े से 32 करोड़ की वृद्धि थी। पर्याप्त और स्वस्थ भोजन तक पहुंच में असमानता बढ़ती जा रही है, जिससे कुपोषण जैसी महामारी फैल रही है। स्वस्थ आहार की कमी के कारण 69 करोड़ लोग कुपोषित अवस्था में हैं और 2 अरब व्यक्ति सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से पीड़ित हैं। विभिन्न अनुमानों के अनुसार, खराब गुणवत्ता वाले आहार के फलस्वरूप दुनियाभर में प्रति वर्ष 1.1 करोड़ मौतें हो रही हैं।

खाद्य उत्पादन और उपभोग की यह प्रणाली पृथ्वी के स्वास्थ्य पर भारी असर डालती है। स्विट्जरलैंड स्थित अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर के लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के अनुसार, अधिक कृषि उत्पादन के लिए अधिक भूमि इस्तेमाल से वैश्विक जैव विविधता का 70 प्रतिशत और सभी वृक्षों का 50 प्रतिशत नुकसान हुआ है। गहन कृषि, प्रसंस्करण और खाद्य उत्पादों की डिलीवरी सभी मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 25 प्रतिशत है। पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए मौजूदा खाद्य प्रणालियों की छिपी लागत 12 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष है, जो 2050 तक बढ़कर 16 ट्रिलियन डॉलर हो जाने की उम्मीद है। इस “छिपी हुई लागत” का 50 प्रतिशत से अधिक मोटापे, कम पोषण और प्रदूषण के प्रभावों के कारण है।

वैश्विक सुधार

वैश्विक सुधार कृषि को मिलने वाली सरकारी सहायता प्रणालियों की समीक्षा के साथ शुरू होने वाला है। संयुक्त राष्ट्र ने किसानों को वैश्विक समर्थन की व्यापक समीक्षा का आह्वान किया है। शिखर सम्मेलन से कुछ दिन पहले खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ), संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट “अ मल्टी-अरब डॉलर अपार्च्युनिटीज: रीपरपोजिंग एग्रीकल्चरल सपोर्ट टू ट्रांसफॉर्म फूड सिस्टम” सुधार के पहले लक्ष्य के रूप में किसानों और कृषि के लिए सरकारों की सहायता प्रणाली में बदलाव और सुधार की बात करती है। वर्तमान में किसानों को सहायता के रूप में 540 अरब डॉलर प्रति वर्ष सरकार दे रही है। यह 2030 तक तिगुना होकर 1.759 ट्रिलियन डॉलर होने की उम्मीद है। रिपोर्ट में कहा गया है, “फिर भी इस समर्थन का 87 प्रतिशत यानी लगभग 470 अरब डॉलर पर्यावरण और सामाजिक रूप से हानिकारक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।” कुल समर्थन में से 294 अरब डॉलर का भुगतान मूल्य प्रोत्साहन के रूप में किया जाता है और लगभग 245 अरब डॉलर किसानों को वित्तीय सब्सिडी के रूप में भुगतान किया जाता है। अधिकांश समर्थन और प्रोत्साहन एक विशिष्ट वस्तु के उत्पादन से जुड़े होते हैं।

रिपोर्ट के तीन निष्कर्ष हैं, जो खाद्य प्रणालियों को पृथ्वी और उसके लोगों के लिए हानिकारक बनाते हैं और सभी के लिए पर्याप्त रूप से स्वस्थ भोजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य को प्राप्त करने में भी विफल होते हैं। सबसे पहले, अधिकांश समर्थन कुछ वस्तुओं पर लक्षित है और सभी किसानों को लाभ नहीं मिलता। दूसरा, चीनी और बीफ उत्पादन जैसे सबसे अधिक उत्सर्जन वाले क्षेत्रों को समर्थन मिल रहा है। तीसरा, मौजूदा सपोर्ट सिस्टम हमेशा उत्पादकों की तुलना में कॉर्पोरेट को अधिक मदद करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र समर्थन खत्म करने की बात नहीं कहता, बल्कि इसे इस तरह से पुनर्व्यवस्थित करने की बात करता है, जिससे इसके प्रतिकूल प्रभावों को खत्म किया जा सके। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट, वाशिंगटन के वरिष्ठ शोधकर्ता जोसेफ ग्लौबर ने डाउन टू अर्थ को बताया, “ज्यादातर सरकारी समर्थन उन क्षेत्रों को है, जो अधिक उत्सर्जन करते हैं और पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। उदाहरण के लिए, बीफ क्षेत्र को भारी समर्थन मिलता है और यह अत्यधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार है।

इस सेक्टर को मिल रहा अत्यधिक समर्थन निश्चित ही कम किया जाना चाहिए। मूलरूप से समर्थन प्रणाली का पुनर्व्यवस्थित किए जाने की जरूरत है।” संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उच्च आय वाले देशों को मांस और डेयरी उद्योग को दिए जा रहे भारी समर्थन को दूसरे सेक्टर में स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। 2020 में वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 14.5 प्रतिशत हिस्सेदारी मांस और डेयरी उद्योग से था। इसी तरह कम आय वाले देशों के लिए रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि सरकारों को रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के समर्थन पर पुनर्विचार करना चाहिए और मोनोकल्चर को भी हतोत्साहित करना चाहिए। एफएओ के एग्रो-फूड इकोनोमिक्स के उप-निदेशक मार्को वी सांचेज ने डाउन टू अर्थ को बताया, “समर्थन प्रणाली किसानों की मदद नहीं कर रही है जैसा कि उसे करना चाहिए था। बल्कि, यह हमें एसडीजी और पेरिस समझौते से दूर रखे हुए है।”

सुधारों को शुरू करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र ने सरकारों के लिए छह चरण की सिफारिश की है। यह सुझाव है- प्रदान की गई सहायता को मापना, इसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को समझना, पुनर्प्रयोजन विकल्पों की पहचान करना, उनके प्रभावों का अनुमान लगाना, प्रस्तावित रणनीति को परिष्कृत करना, इसकी कार्यान्वयन योजना का विवरण देना और कार्यान्वित रणनीति की निगरानी करना। लेकिन देशों के लिए यह एक कठिन कार्य होने जा रहा है, क्योंकि सिस्टम में सुधार खाद्यान कीमतों, भोजन सेवन का स्तर और खाद्य व्यापार तय करते हैं और खाद्य व्यापार पर किसान निर्भर करते हैं। साथ ही, सभी देश एक समान सुधार नहीं ला सकते।

विभिन्न देशों ने अपने कृषि उत्पादों को विपणन योग्य बनाने के लिए इन समर्थन प्रणालियों का विकास किया है। शिखर सम्मेलन से पहले रिपोर्ट जारी करने के दौरान, यूएनडीपी प्रशासक अचिम स्टेनर ने टिप्पणी की, “कृषि-खाद्य प्रणालियों को हरियाली, अधिक टिकाऊ दिशा में स्थानांतरित करने के लिए कृषि समर्थन को फिर से तैयार करना होगा, जिसमें स्थायी खेती और बेहतर जलवायु दृष्टिकोण प्रथाओं को पुरस्कृत करना शामिल है। इससे उत्पादकता और पर्यावरणीय दोनों में सुधार कर सकते हैं।”

किसानों से अरबों डॉलर की लूट

भारत में कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसानों के प्रदर्शन के बीच संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों की एक ताजा रिपोर्ट दर्शा रही है कि भारत ऐसा अजीब देश है, जिसकी सरकार बाकी देशों की सरकारों की तरह अपने किसानों को प्रोत्सााहित करने की बजाय उन्हें दंडित कर रही है।

23 सितंबर 2021 को विश्व खाद्य सम्मेलन से पहले संयुक्त राष्ट्र की तीन एजेंसियों, एफएओ, यूएनडीपी और यूएनईपी ने “अ मल्टी-अरब डॉलर अपार्च्युनिटीज: रीपरपोजिंग एग्रीकल्चरल सपोर्ट टू ट्रांसफॉर्म फूड सिस्टम” रिपोर्ट जारी की। इसमें खेती में सुधार के लिए पूरी दुनिया में एक सहयोगी तंत्र विकसित करने की मांग की गई है। उम्मीद की जा रही है कि वैश्विक स्तर पर खाद्य प्रणाली में सुधार के लिए आयोजित विश्व खाद्य सम्मेलन में साहसी कदम उठाए जाएंगे। ऐसा संयुक्त राष्ट्र के 17 सतत विकास लक्ष्यों को गति देने के प्रयासों के तहत किया जाएगा।

रिपोर्ट इसी प्रक्रिया की दिशा में उठाया गया एक कदम है, जिसमें खाद्य प्रणाली में सुधार के लिए विशेष प्रयासों की मांग की गई है। खासकर उन देशों के लिए जहां सरकारों ने किसानों के लिए कृषि उत्पादों के मूल्यों से छेड़छाड़ की है और ऐसी खेती को बढ़ावा दिया है, जो उत्सर्जन बढ़ाकर वैश्विक तापमान में सहयोग कर रही है। साथ ही, जिसने छोटे किसानों के लिए वैश्विक कृषि व्यापार को असमान बना दिया है।

रिपोर्ट ने इन आयामों के आधार पर किसानों के लिए सरकारों द्वारा किए जा रहे प्रयासों और उनके प्रभावों का विश्लेषण किया है। रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारें कृषि में सुधार के नाम पर सालाना 540 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च करती हैं। इनमें से आधे से ज्यादा राशि मूल्य कम करने के नाम पर इस्तेमाल की जाती है, जिसका पर्यावरण पर गहरा नकारात्मक असर पड़ता है।

हालांकि कृषि में सुधार का तरीका दुनिया के देशों में अलग-अलग तरह का है। विकसित देश अपने किसानों को वैश्विक स्पर्धा में भाग लेने के लिए उन्हें अपनी उपज का बेहतर मूल्य पाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जबकि विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश भी अपने किसानों को कई तरह से सहयोग करते हैं। दूसरी ओर कम आय वाले उप-सहारा अफ्रीकी देशों में किसानों को सरकार से मिलने वाला सहयोग नकारात्मक है। इसकी वजह इन देशों के पास आर्थिक संसाधनों की कमी होना है, जिसके चलते सरकारें खाद्यान्नों की कीमतें कम करने के लिए कृषि उत्पादों का मूल्य बढ़ने से रोकती हैं। इससे उत्पादन करने वाले किसान अपनी फसल का उचित मूल्य कभी नहीं पा पाते। सही मायनों में यह उनके लिए एक सजा है। नीतियों की भाषा में इसे किसानों से लिए जाने वाले ‘टैक्स’ के तौर पर जाना जाता है।

मध्यम-आय वाले देशों में भारत एक अपवाद देश है। रिपोर्ट के मुताबिक, “पिछले 20 सालों से भारत में कृषि की नीतियां इस तरह की रही हैं, जिससे खाद्य पदार्थों के दाम न बढ़ाकर उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा की जा सके। इसका खामियाजा किसानों को सजा के तौर पर झेलना पड़ता है।”

रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि किस तरह से दुनिया के दूसरे मध्यम-आय वाले देशों ने अपने किसानों को सहयोग देकर उनकी मदद की है। यह और बात है कि इसके लिए उन्होंने अलग-अलग उपाय अपनाए। जबकि भारत, अर्जेंटीना और घाना के रास्ते पर चलकर किसानों पर टैक्स लगाने और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने में भरोसा करता रहा है। वह इस नीति पर इसलिए चलता रहा है कि ताकि खाद्य पदार्थों की महंगाई न बढ़े और वे आम जनता की पहुंच से बाहर न जाएं।

इतना ही नहीं, ये देश मध्यम-आय वाले उन देशों का विरोध भी करते रहे हैं, जो समर्थन मूल्य बढ़ाकर अपने किसानों को सहयोग देते रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, “मध्यम-आय वाले देशों में किसानों को लेकर नजरिया नकारात्मक से सकारात्मक होने का सिलसिला पिछली सदी के अंत में शुरू हुआ। इससे पहले ये देश भी अपने गरीब उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के लिए घरेलू चीजों के दाम कम रखते थे और कृषि क्षे़त्र पर टैक्स लगाते थे। दूसरी ओर भारत और कुछ अन्य मध्यम-आय वाले देशों ने पिछले दो दशकों में खाद्य पदार्थों के दामों पर नियंत्रण रखना और इस तरह से किसानों को दंडित करने की नीति पर तेजी से बल देना शुरू किया।”

इससे पहले आर्थिक सहयोग और विकास संगठन द्वारा “कृषि नीतियों की निगरानी और विकास 2020” नामक रिपोर्ट में भी यह पाया गया था कि भारत में खाद्य पदार्थों की कीमतें कम रखने की सजा किसानों को भुगतनी पड़ती है।

किसी सरकार द्वारा बजट और दूसरी सब्सिडी के जरिए उत्पादकों को सहयोग देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “उत्पादक समर्थन आकलन” पद्धति का इस्तेमाल किया जाता है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन द्वारा विकसित इस पद्धति के जरिए वैश्विक स्तर पर सालाना यह जानने का प्रयास किया जाता है कि किसानों को मदद देने के लिए दुनिया भर की सरकारें क्या कदम उठा रही हैं।

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने पाया कि भारतीय किसानों के लिए “उत्पादक समर्थन आकलन” 5.7 फीसद नकारात्मक है। इसके चलते 2019 में किसानों को 23 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन में कृषि-खाद्य आर्थिकी के उपनिदेशक मार्को वी सांचेज कहते हैं, “हां, यह सही है, जैसा कि रिपोर्ट बता रही है कि भारत जैसे देशों में किसानों को दंडित किया जाता है। इसके बावजूद कैश ट्रांसफर जैसी योजनाओं से खुश होते हैं। भारत में पीएम-किसान योजना के तहत साल में छह हजार रुपए किसानों के खाते में भेजे जाते हैं।”

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट कृषि उत्पादक समर्थन को किसानों को निजी तौर पर मदद देने को समेकित प्रयास के तौर पर परिभाषित करती है। इसमें उन्हें कृषि उत्पादों के मूल्य पर मिलने वाला लाभ और सब्सिडी दोनों शामिल है। यही वजह है कि रिपोर्ट के लिए संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने किसानों को मिलने वाले सहयोग के लिए “नाममात्र की सहायता” शब्दावली का इस्तेमाल किया है।

अगर कृषि को मिल रहा सरकारी समर्थन वापस ले लिया जाए...

कृषि के लिए सरकारी समर्थन ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में माना जाता है। क्या होगा अगर इसे 2030 तक वापस ले लिया जाए या फिर से तैयार किया जाए? “अ मल्टी-अरब डॉलर अपार्टयूनिटीज: रीपरपोजिंग एग्रीकल्चरल सपोर्ट टू ट्रांसफॉर्म फूड सिस्टम रिपोर्ट” में संयुक्त राष्ट्र ने इस स्थिति में कुछ परिदृश्य बनाया है कि यह कृषि और जीएचजी उत्सर्जन को कैसे प्रभावित करेगा:

अगर सभी कृषि सहायता हटा दी जाती है

जीएचजी उत्सर्जन में 78.4 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर कमी आएगी। साथ ही फसल उत्पादन, पशुधन उत्पादन और कृषि रोजगार में क्रमशः 1.3, 0.2 और 1.27 प्रतिशत की कमी आएगी। उभरते हुए ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत और चीन) में कृषि रोजगार में 2.7 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।

अगर सिर्फ सीमा उपायों (जैसे आयात शुल्क और निर्यात कर) को समाप्त कर दिया गया

जीएचजी उत्सर्जन में 55.7 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर गिरावट, फसल और पशुधन उत्पादन में वृद्धि, कम वनों की कटाई, कुपोषित लोगों की संख्या में 0.2 प्रतिशत की गिरावट आएगी।

अगर सिर्फ कृषि वित्तीय सब्सिडी को समाप्त कर दिया गया

जीएचजी उत्सर्जन में 11.3 मिलियन कार्बन डाईऑक्साइड के बराबर गिरावट, कृषि उत्पादन में कमी, स्वस्थ आहार के लिए उच्च खाद्य लागत, कृषि आय को नुकसान, कुछ विकासशील देशों में अत्यधिक गरीबी में वृद्धि।

आगे पढ़ें - संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन से उठते सवाल

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