औषधीय व गुणकारी पानी दाहशमनी के बारे में जानते हैं आप?

औषधियां, जो सामान्य पानी को खुशबूदार और स्वास्थ्यवर्धक पेय में बदलकर जीवन में नई स्फूर्ति पैदा करती हैं

By Vibha Varshney

On: Wednesday 09 September 2020
 
फोटो: विकास चौधरी / सीएसई

आयुर्वेद कहता है कि हर खाद्य पदार्थ अपने आप में एक औषधि है। इसी को मूल मंत्र मानते हुए केरल के लोगों ने सामान्यत: पानी को भी औषधीय गुणों से परिष्कृत करने के लिए एक तरीका ढूंढ निकाला है। सामान्यतः केरल जैसे तटीय राज्यों में पानी को उबाल कर पीने की परम्परा रही है, जिससे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से बचा जा सके। इस क्षेत्र के लोग पानी को उबालने के क्रम में कुछ औषधियां (जड़ी-बूटी) डाल देते हैं, ताकि पानी में उस औषधि के गुण घुल-मिल जाएं। जड़ी-बूटी मिश्रित इस पानी को दाहशमनी के नाम से जाना जाता है।

यह सर्वविदित है कि मनुष्य के शरीर को प्रतिदिन दो से तीन लीटर पानी की आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि पेयजल औषधीय गुणों को भी धारण करता हो, तो यह सोने पे सुहागा जैसा हो जाता है। दाहशमनी में प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है, जो वर्तमान के प्रदूषित वातावरण में एक वरदान से कम नहीं है। हालांकि, मौजूदा वक्त में स्पार्कलिंग (कार्बोनेटेड) वाटर, हर्बल चाय और फलों को भिगोकर बना पानी (इनफ्यूज्ड वाटर) स्वास्थ्य के प्रति सचेत लोगों में काफी लोकप्रिय हैं। इनके सामने केरल के इस औषधीय व गुणकारी पानी को जितना महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है।

दाहशमनी को तैयार करने के लिए कई प्रकार की जड़ी-बूटियों और मसालों का इस्तेमाल किया जाता है, जिनमें सोंठ (सूखी अदरख), इलाइची, लौंग, धनिया, जीरा, खस और चंदन की लकड़ी शामिल हैं। जीरे के साथ तैयार पानी को जीरका वेला और धनिया से तैयार पानी को मल्ली वेला कहा जाता है। इस गुणकारी पानी को तैयार करने के लिए इसमें अपनी पसंद की जड़ी-बूटियों या मसालों का उपयोग किया जा सकता है।

हालांकि, आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानों में कुछ तैयार मिश्रण भी मिल जाते हैं। जड़ी-बूटियों के इन पैकेटों में एक औषधि ऐसी भी होती है जो पानी के रंग को गुलाबी बना देती है। इस औषधीय जल का सेवन मैंने पहली बार तब किया था, जब मैं चिकनगुनिया की रिपोर्टिंग करने केरल के कई गांवों में गई थी। वहां मुझे गांव के लोगों ने पीने के लिए यही गुलाबी पानी दिया था।

दाहशमनी में यह गुलाबी रंग हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले पेड़ की लकड़ी से आता है, जिसे पदिमुखम के नाम से जाना जाता है। यह पेड़ हिमालय के जंगलों में पाया जाता है, इसलिए इसे जंगली हिमालयन चेरी (प्रूनस सेरासोइड्स) भी कहा जाता है। यह रोजेसी परिवार का पेड़ है। सेब भी इसी परिवार का हिस्सा है। केरल फाॅरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक पी सुजनपाल बताते हैं कि केरल में यह पेड़ नहीं पाए जाते हैं। हिमालय के जंगलों से यहां तक पहुंचने में इसकी कीमत काफी बढ़ जाती है, इसलिए केरल के कई गांवों में दाहशमनी बनाने के लिए पदिमुखम के स्थान पर झाड़ीदार पेड़ सिसलपीनिया सप्पन की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। सुजनपाल बताते हैं, “इंडो-मलेशियन क्षेत्र का यह झाड़ीनुमा पेड़ केरल के जलवायु में पनपने के लिए बिल्कुल मुफीद है। कभी-कभी इसका इस्तेमाल जंगल के चारों तरफ बाड़ के तौर पर भी किया जाता है, ताकि जंगली जानवरों को बचाया जा सके।”

औषधीय गुणों से भरपूर

पदिमुखम के पेड़ शुष्क मिट्टी पसंद करते हैं और किसी अन्य पेड़ों की छाया में अच्छी तरह से पनपते हैं। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में इस पेड़ के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल कई प्रकार की दवाओं के निर्माण में किया जाता है, जिनमें दशमूलारिष्ट, द्रक्षादि क्वाथ चूर्ण, कुंकुमादी तेल और चंदनादि तेल शामिल हैं। कई नए अध्ययनों के परिणाम भी पदिमुखम की लकड़ी के औषधीय गुणों की पुष्टि करते हैं। हाल ही में फायटोथेरेपी रिसर्च नामक जर्नल में जून 2020 में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है, जिसमें पदिमुखम के पेड़ के विभिन्न हिस्सों में प्रचुर मात्रा में फ्लावोनेस और आइसोफ्लावोनेस पाए जाने की पुष्टि की गई है। ये दोनों तत्व महिलाओं में रजोनिवृत्ति के बाद शुरू होने वाले लक्षणों को सुस्त करने में मदद कर सकते हैं। यह अध्ययन दक्षिण कोरिया, अमेरिका और चीन के शोधकर्ताओं ने किया है।

पानी को शुद्ध करने की पेड़ों की क्षमता को गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के माइक्रोबायोलॉजी विभाग द्वारा किये गए शोध के परिणामों से भी आंका जा सकता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पेड़ों के घटकों की जांच कर इनके एंटीमाइक्रोबियल व्यवहार को जानने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि इथाइल एसिटेट का उपयोग कर इस पेड़ की लकड़ी से निकाले गए रस में ऐसे बैक्टीरिया को मारने की क्षमता मौजूद है, जिन पर अन्य एंटीबायोटिक रसायनों का असर नहीं होता। अगस्त 2019 में एप्लाइड बायोकेमिस्ट्री एंड बायोटेक्नोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध के परिणाम बताते हैं कि जंगली हिमालयन चेरी के तत्व बहुऔषधि प्रतिरोधी कीटाणुओं (मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट बैक्टीरिया) को मारने के लिए बनाई जाने वाली दवाई के लिए संभावित स्रोत हो सकते हैं।

मिजोरम में पारंपरिक तौर पर इस पेड़ की छालों का इस्तेमाल चर्म रोगों, सूजन और घावों के उपचार के लिए किया जाता रहा है। सितंबर 2014 में एशियन पेसिफिक जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, यूनिवर्सिटी ऑफ मिजोरम, आइजोल के शोधकर्ताओं ने इस पेड़ की लकड़ी में आयरन, जिंक, कॉपर, मैंगनीज, कोबाल्ट और वेनेडियम की मौजूदगी की पुष्टि की है, जिसके कारण यह चर्म रोगों के उपचार में कारगर है।

कई शोध बताते हैं कि इस पेड़ की लकड़ी का रस श्वसन तंत्र और पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के साथ ही शरीर को भी स्वस्थ रखने में मदद करता है। हालांकि इस पेड़ के नए कोंपल और बीज में साय्नोजेनिक ग्लायकोसाइड्स (एक विषैला रसायन) पाया जाता है, जिसका अत्यधिक मात्रा में इस्तेमाल घातक साबित हो सकता है।

सप्पल की लकड़ी है विकल्प

दाहशमनी में पारंपरिक तौर पर इस्तेमाल होने वाली सामग्री में सप्पन की लकड़ी का इस्तेमाल भले ही ज्यादा प्रचलित न हो, लेकिन यह अपने आप में अनेक गुणों को धारण करता है। सप्पन की लकड़ी में लाल रंग का एक रंजक पाया जाता है, जिसका इस्तेमाल कपड़ों को रंगने के लिए और पेंट एवं स्याही बनाने के लिए किया जाता है। इससे बनने वाले रंजक का इस्तेमाल आज भी सूती, रेशमी और ऊनी कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता है। हालांकि कृत्रिम रसायनों से बने रंजकों के सस्ता होने के कारण अब इस प्राकृतिक रंजक के इस्तेमाल में बेहद गिरावट दर्ज की जा रही है। तमिलनाडु के शोधकर्ताओं के अनुसार, सप्पन के पेड़ से निकलने वाले रंजक अन्य रसायनों की तुलना में विषैले नहीं होते हैं, इसलिए इसका इस्तेमाल खाद्य रंगों के तौर पर भी मनुष्यों के लिए सुरक्षित है।

व्यंजन 

दाहशमनी

सामग्री:
पानी: 2 लीटर
पदिमुखम: एक चौथाई छोटा चम्मच
अदरक: 1 इंच (बारीक कटा हुआ)
विधि: एक बड़े भगोने में पानी लेकर उसमें पदिमुखम का चूर्ण और बारीक कटा हुआ अदरक डालें। अब इस पानी को 15 मिनट तक उबालें। उबाल आने पर इस पानी को ठंडा करें और मिट्टी के बर्तन में संरक्षित करें।

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