सड़कों पर गंदगी का ढेर जमाकर दृष्टिपत्र में सड़कों को साफ-सुथरा बनाने के लिए किया गया वादा क्या सचमुच खरा हो सकता है?
स्वच्छता, शौचालय, कूड़ा निस्तारण, पानी, पर्यावरण जैसे मुद्दों पर यदि देश में चुनाव होने लगें, सत्ता में आने के लिए जोर लगाने वाले और सत्ता चुनने वाले मतदाता दोनों इन मुद्दों को प्राथमिकता देने लगें, तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक हरा-भरा मुस्कुराता स्वच्छ लोकतंत्र कहलाता। स्वच्छता और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर सरकारें बनती या गिरतीं तो राफेल या बोफोर्स जैसे घोटालों की आशंका कुछ कम जरूर हो जाती। हमें अभी अपने मतदाताओं को ग्रीन वोटर्स में तब्दील करने की जरूरत है ताकि चुनी हुई सरकारें इन मुद्दों पर कार्य कर सकें।
उत्तराखंड अभी-अभी निकाय चुनाव प्रचार के दौर से निकला है। निकाय चुनाव में सड़कें, सफाई, नालियां कूड़ा निस्तारण जैसे मुद्दे ही अहम होते हैं। इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में स्वच्छ भारत अभियान का जुमला हर तरफ सुनाई दे रहा है। राज्य में निकाय चुनाव में सभी अहम दलों (बीजेपी, कांग्रेस, उत्तराखंड क्रांति दल और आप) ने अपने दृष्टिपत्र में स्वच्छता का मुद्दा प्रमुखता से उठाया। बाजारों में शौचालय बनाने के वादे किए। कूड़े के लिए डोर-टु-डोर कलेक्शन जैसी बातें लिखी गईं। चुनाव प्रचार के दौरान सड़कों को साफ-सुथरा बनाने के लिए गली-गली घूमकर लाउडस्पीकर की कानफोड़ू आवाज पर वादा किया जा रहा था। निकाय चुनाव के लिए स्वच्छता के मुद्दे पर इतना ज़ोर शायद पहली बार देखा गया। लेकिन जो स्वच्छता के दावे कर रहे हैं, वे खुद ही स्वच्छता का उल्लंघन करते दिख रहे हैं। चुनाव प्रचार के लिए देहरादून शहर के मुख्य बाज़ार, चौराहों से लेकर मोहल्लों की गलियों के अंदर और घर-घर तक प्रत्याशियों के पोस्टर-बैनर से पट गए। जगह-जगह भाजपा-कांग्रेस समेत अन्य दलों और निर्दलीयों के झंडे टंगे हैं। चुनाव प्रचार के कुछ दिनों में इतना सारा कचरा शहर में जमा हो गया। सड़कों पर गंदगी का ढेर जमाकर दृष्टिपत्र में सड़कों को साफ-सुथरा बनाने के लिए किया गया वादा क्या सचमुच खरा हो सकता है?
उत्तराखंड बीजेपी के मीडिया प्रभारी देवेंद्र भसीन कहते हैं कि हमने चुनाव प्रचार सामग्री में प्लास्टिक का प्रयोग कम किया है, हालांकि वह मानते हैं कि प्लास्टिक का इस्तेमाल किया गया है जो कि राज्य में प्रतिबंधित है। देवेंद्र कहते हैं कि यदि एक पार्टी के प्रत्याशी ने पोस्टर नहीं लगाए और दूसरे ने चार पोस्टर लगा दिए तो इससे जीत-हार प्रभावित हो सकती है, इसलिए प्रतिस्पर्धा में इस तरह के पोस्टर-बैनर का इस्तेमाल ज्यादा होता है। वह मानते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन इसके लिए चुनाव आयोग कोई गाइडलाइन जारी करे या इस तरह प्रचार प्रतिबंधित कर दे, तभी शायद ऐसा संभव है।
राज्य की कांग्रेस पार्टी की प्रवक्ता गरिमा माहरा दसौनी कहती हैं कि उन्होंने निकाय चुनाव में डोर-टु-डोर कैंपेनिंग ज्यादा की है। हालांकि राज्य की सड़कें इससे उलट गवाही दे रहीं हैं। स्वच्छता के मुद्दे पर कार्य कर रही देहरादून की मैड संस्था के अभिजय नेगी का कहना है कि सड़कों पर राजनीतिक दलों के बैनर-पोस्टर के मुद्दे पर उन्होंने मुख्य नगर आयुक्त विजय जोगदंडे से मुलाकात की थी। विजय जोगदंडे का कहना है कि यदि हम राजनीतिक दलों पर इसे लागू करते हैं तो हम पर पक्षपात के आरोप लगते हैं कि एक पार्टी को बैनर हटाने को कहा, दूसरे को नहीं कहा। इसलिए राजनीतिक दलों पर इसे लागू करना काफी मुश्किल है।
मैड संस्था का कहना है कि चूंकि कचरा फैलाने पर अब भी कोई ठोस कानूनी प्रतिबंध नहीं है। इसलिए आम लोग भी खूब कचरा फैलाते हैं। हालांकि राज्य विधानसभा ने वर्ष 2016 में एंटी स्पिटिंग और एंटी लिटरिंग एक्ट पास किया था। इसके तहत सड़क पर गंदगी फैलाना या दीवारों पर पोस्टर-बैनर लगाना कानूनन जुर्म है। स्वच्छता के लिए कानून तो बना लेकिन लागू नहीं हो सका। संस्था के अभिजय नेगी कहते हैं कि दीवारों के सौंदर्यीकरण अभियान के तहत जिस दीवार को उन्होंने पेंटिंग के ज़रिए ख़ूबसूरत बनाई, उसी पर एक पॉलीटिकल पोस्टर चस्पा कर दिया गया।
उत्तराखंड में आबादी का दबाव बढ़ने के साथ ही गंदगी का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। राज्य अपने कचरे का पूरा निस्तारण नहीं कर पा रहा। उत्तराखंड में वर्ष 2001 और 2011 के आंकड़ों के जनसंख्या आंकड़ों की तुलना करें तो राज्य की आबादी में करीब 16 लाख का इजाफा हुआ है। इनमें से 12 लाख से अधिक की आबादी सिर्फ देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर में बढ़ी है। जनसंख्या बढ़ने की रफ्तार की तुलना में मूलभूत सुविधाओं में विकास की रफ़्तार बेहद धीमी रही है। राजधानी देहरादून में ही सड़क पर जगह-जगह कूड़े के ढेर देखकर पूरे राज्य की स्थिति समझी जा सकती है। गांवों की तुलना में शहरों में ज्यादा गंदगी है। कूड़ा निस्तारण अब भी एक बड़ी समस्या है। स्वच्छता अब भी महज एक नारा है। न लोग इसे लेकर संवेदनशील दिखते हैं, न ही राजनीतिक दल।
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