बाढ़ नियंत्रण के नाम पर शुरू की गई इस परियोजना का नाम है “ड्रेजिंग एंड रिवर चैनलाइजेशन” यानी नदियों की खुदाई कर उनकी नई धारा का निर्माण
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जनपद गोरखपुर से करीब 18 किमी़ दूर बेलीपार स्थित करजही गांव में 75 वर्षीय राम दरश अन्य ग्रामीणों के बीच चौपाल पर बैठे हैं। चौपाल से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर राप्ती नदी की धारा बह रही है। इस नदी के पास गौरी बरसाइत तटबंध है। दशकों पुराने इस तटबंध को बचाने के लिए नदी की धारा को नए रास्ते से मोड़ने का प्रस्ताव है। राम दरश क्रुद्ध होकर कहते हैं कि नई धारा उनके खेत खलिहान से मोड़ी गई तो वह प्राण त्याग देंगे।
राम दरश बताते हैं कि पूरी बांसगांव तहसील बाढ़ से प्रभावित है। बीते वर्ष बाढ़ के दौरान नाव न मिलने पर हमारे गांव में ही 45 वर्ष के सउरू हरिजन की इलाज और दवा बिना मौत हो गई। यदि नदी की धारा मोड़ी गई तो गांव वालों पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ेगा। गोरखपुर शहर से 19 किलोमीटर दूर सेवंई बाजार के रास्ते लहसड़ी रिंग बांध के पास राप्ती नदी के नए पथ का निर्माण जोर-शोर से जारी है। आसपास मौजूद लोग नई धारा के काम से भयभीत हैं। कई जगह अभी से नदी से छेड़छाड़ के शुरुआती दुष्परिणाम दिखने शुरू भी हो गए हैं।
गुप्त परियोजना
बाढ़ नियंत्रण के नाम पर शुरू की गई इस परियोजना का नाम है “ड्रेजिंग एंड रिवर चैनलाइजेशन” यानी नदियों की खुदाई कर उनकी नई धारा का निर्माण। इसकी देखरेख सिंचाई विभाग का यांत्रिक व बैराज खंड कर रहा है। शासन और विभाग का दावा है कि इस परियोजना से तटबंधों और बाढ़ प्रभावित आबादी को बचाया जाएगा। इस परियोजना की बुनियाद 2018 में बाराबंकी-गोंडा जिले के एल्गिन-चरसड़ी ब्रिज के पास घाघरा में ड्रेजिंग के पायलट प्रोजेक्ट के बाद रखी गई। परियोजना से पूर्व किसी तरह का पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) नहीं किया गया। परियोजना को प्रक्रिया और मंजूरी से बचाने के लिए छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा गया है। इस वर्ष पूर्वी यूपी में बाढ़ प्रभावित बाराबंकी, गोंडा, बस्ती, गोरखपुर और देवरिया जिले में बाढ़ लाने वाली तीन प्रमुख नदियों की चिन्हित धारा को मोड़ा जा रहा है (देखें, नदी से छेड़छाड़,)। इनमें पूर्वी यूपी की प्रमुख और नेपाल की सबसे बड़ी नदी घाघरा, राप्ती (गुर्रा) नदी शामिल हैं। घाघरा को कई जिलों में सरयू भी कहते हैं। इसके साथ ही अयोध्या में सरयू किनारे घाटों को न सिर्फ पक्का किया जा रहा है बल्कि मशीनों से बालू की खुदाई कर गुप्तार घाट के पास एक नई धारा का भी निर्माण किया गया है।
गोरखपुर जिले में राप्ती नदी में तीन स्थानों पर कुल 9 करोड़ 97 लाख रुपए के बजट से धारा को मोड़ा जाना था। हालांकि करजही गांव के पास विरोध के बाद काम रुक गया है। लहसड़ी रिंग बांध के पास 3 किलोमीटर नए पथ और गोरखपुर शहर से करीब 12 किलोमीटर दूर झंगहा-रुद्रपुर मार्ग पर स्थित बरही पाथ बांध के गांव भगने के पास एक किलोमीटर नदी की नई धारा बनाई जा रही है। इन दोनों कामों की लागत करीब 7 करोड़ रुपए है, जबकि करजही में यह काम 3.55 करोड़ रुपए में होना है। वहीं बस्ती जिले में सरयू (घाघरा) की धारा को कटारिया चांदपुर के पास मोड़ दिया गया है। बाराबंकी में एल्गिन-चरसड़ी ब्रिज के पास घाघरा नदी में इस वर्ष दोबारा ड्रेजिंग की जा रही है। टुकड़ों में बंटी होने के कारण परियोजना की लागत का एकमुश्त हिसाब नहीं है।
गोरखपुर में करजही गांव के रमेश शुक्ला बताते हैं कि यदि राप्ती की धारा मोड़ी गई तो करजही और आसपास के गांवों के करीब एक हजार किसान और 150 दलित आवंटी की कृषि योग्य जमीन परियोजना की भेंट चढ़ जाएगी। करजही के पूर्व प्रधान ओपी शुक्ला का कहना है कि नदी की धारा मोड़ने का कोई औचित्य नहीं है। जिस गौरी बरसाइत और अन्य तटबंध को बचाने की बात कही जा रही है वह आजादी के समय से जस का तस खड़ा है। गांव के ही रवि शुक्ला कहते हैं कि “23 मार्च, 2019 को उनके खेतों में लाल झंडे गाड़े गए थे। इसके बाद 26 मार्च को नदी की खुदाई के लिए मशीनें आईं। इसका ग्रामीणों ने जमकर विरोध किया। अप्रैल में जलपुरुष राजेंद्र सिंह आए। उस दिन प्रशासन ने हमारे यहां काम रोक दिया लेकिन यह रोक कितनी स्थायी है, पता नहीं।”
लहसड़ी डैम के पास राप्ती नदी के तीन किलोमीटर नए रास्ते का काम करा रहे सिंचाई विभाग के यांत्रिक खंड के इंजीनियर ने नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया, “यह स्थायी समाधान है। गांव वाले बाढ़ ही चाहते हैं ताकि उन्हें फायदा हो और राहत सामग्री मिलती रहे।” इंजीनियर के दावे से उलट धारा मोड़ने से सिर्फ नदी और उसके भीतर मौजूद प्राकृतिक संपदा को ही नुकसान नहीं होगा बल्कि ग्राम पंचायत कलानी बुजुर्ग के फरसही जोत, भिलोरैही, भाटजोत व अन्य गांवों में बसे करीब 200 परिवारों को खामियाजा उठाना होगा। इन गांवों में ज्यादातर निषाद समाज के लोग ही रहते हैं। इनकी आजीविका भी खतरे में पड़ जाएगी।
करजही गांव की तरह लहसड़ी रिंग बांध के पास भी इस नदी का नया मार्ग तैयार करने के लिए 23 मार्च को खेतों में लाल झंडे गाड़कर जमीन कब्जे में ली गई। ग्रामीणों के विरोध और चुनाव को देखते हुए काम रोक दिया गया लेकिन चुनाव खत्म होते ही 2 जून से पुलिस की मौजूदगी में काम शुरू कराया गया।
इस घटना को बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश मिश्रा कोसी नदी पर तटबंध निर्माण से जोड़ते हैं। उन्होंने बताया, “1957 में बिहार में चुनाव से पहले सिंचाई मंत्री केदार पांडेय ने कहा था कि जैसे ही चुनाव खत्म होंगे कोसी की धारा को सीधा करने या बांधने का काम शुरू कर दिया जाएगा।” वह बताते हैं कि इस परियोजना को तैयार करने वालों ने अमेरिका के मिसिसिपी नदी के अंजाम का अध्याय शायद नहीं पढ़ा है। अन्यथा नदी के साथ यह व्यवहार न होता।
इस पूरी परियोजना की देख-रेख कर रहे सिंचाई विभाग के वरिष्ठ अधिकारी सीएम का ड्रीम प्रोजेक्ट का हवाला देकर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, “इस परियोजना में पर्यावरणीय नुकसान का कोई अध्ययन नहीं कराया गया है। नदी किनारे फर्जी पट्टे शासन से जारी करवाए गए थे।” पट्टे की जमीन पर आश्रित किसान इस कदम से बिल्कुल टूट गए हैं।
नदी के नए रास्ते से डेढ़ किलोमीटर दूर ही भिलोरैही गांव हैं। यहां रहने वाले सिकंदर निषाद ने बताया कि राप्ती की धारा के बाईं ओर मलौनी तटबंध को बचाने और लहसड़ी रिंग बांध पर पानी का दबाव करने के नाम पर राप्ती की जिस धारा को मोड़ा जा रहा है वह उनके घर से करीब दो से तीन किलोमीटर दूर है। धारा को बीच से काटकर सीधा कर दिया जाएगा जिससे नदी उनके घर के नजदीक आ जाएगी। इसकी विभीषिका समूचे गांव को झेलनी होगी। सिंकदर निषाद कहते हैं कि हमें मालूम है कि नदी के नए रास्ते के लिए उनका जो भी खेत कब्जा किया गया है, उसके बदले उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। वह बताते हैं कि जब धारा नहीं मुड़ी थी तो भी हम हर वर्ष बाढ़ झेलते हैं लेकिन जब नदी की नई धारा बनेगी तो इर्द-गिर्द के सारे गांव बह जाएंगे। गोरखपुर में ही गुर्रा नदी की धारा भी मोड़ी गई है। दलील है कि बरही पाथ बांध को बचाना है। नदी की धारा मोड़ने के दौरान ही जोगिया गांव के लोग बेमौसम बाढ़ से प्रभावित हो गए। ड्रेजिंग कर नदी की धारा बनाने के दौरान बाराबंकी में भी कई गांव प्रभावित हुए। शासन और प्रशासन ऐसे नुकसान को दबाने या टालने की कोशिश में जुटा है।
अब सवाल है कि नेपाल से आने वाली इन सर्पीली नदियों के प्राकृतिक घुमाव को किस आधार पर तोड़ा-मोड़ा जा रहा है। डाउन टू अर्थ ने अपनी पड़ताल में पाया कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने याची एमसी मेहता के गंगा सफाई मामले में 13 जुलाई, 2017 को 543 पृष्ठों का फैसला सुनाया था। इसमें तमाम शर्तों व पूर्व अध्ययन और प्रभाव आकलन के बाद ही ड्रेजिंग पर विचार करने को कहा गया था। सिंचाई विभाग के यांत्रिक खंड के अधिकारी इसी आधार पर यह काम कर रहे हैं। एमसी मेहता के गंगा फैसले से जुड़े एनजीटी के पूर्व जस्टिस ने बताया कि उन्होंने नदियों में खनन रोकने और मशीनों से ड्रेजिंग पर प्रतिबंध लगाने को कहा है, नदियों की धारा मोड़ने को नहीं। प्रीकॉशनरी ड्रेजिंग की बात की गई है जो नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखने के लिए है।
बिना पर्यावरणीय अध्ययन पूर्वी यूपी में नदियों की नई धारा के निर्माण की इस ड्रीम परियोजना की शुरुआत बीते वर्ष (2018) में कर दी गई थी। इसकी निगरानी गुजरात में सूरत स्थित सरदार वल्लभभाई नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एसवीएनआईटी) के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष एसएम यादव ने की। उन्होंने कहा कि यह देश के इतिहास का एक लैंडमार्क काम साबित होगा। बाढ़ विशेषज्ञ एसएम यादव बताते हैं कि नेपाल के रास्ते राप्ती और घाघरा जब पहाड़ से उतरकर यूपी के मैदानी भागों में पहुंचती हैं तो इनकी रफ्तार बहुत कम हो जाती है क्योंकि यहां इन्हें बहने के लिए गहराई बेहतर नहीं मिलती। यूपी में इनका स्लोप बेहद कम (दो से तीन सेंटीमीटर) हो जाता है। इस प्रक्रिया में बहुत सारी गाद नदी पथ पर जमा हो जाती है। फिर नदी दूसरा रास्ता बनाती है। लिहाजा बाढ़ कभी दाहिने तो कभी बाएं पथ पर नुकसान करती है। इस परियोजना से बाढ़ नियंत्रण संभव है। हालांकि इसमें एक ही खामी है कि नदियों में खुदाई और चैनल का काम हर वर्ष करना होगा, तभी यह सफल होगा। वे पर्यावरण के नुकसान की बात को नकारते हैं लेकिन यह स्वीकार करते हैं कि पुराने तटबंध बेहद सावधानी और दूरदृष्टि से तैयार किए गए थे।
गंगा बेसिन में रिवर चैनलाइजेशन और घाटों के सौंदर्यीकरण जैसे कामों का प्रभाव घातक हो सकता है। इसे 2018 में “इंपैक्ट ऑफ रिवर चैनलाइजेशन एंड रिवरफ्रंट डेवलपमेंट ऑन सर्वाइवल हैबिटेट : एविडेंस फ्रॉम गोमती रिवर, ए ट्रिब्यूटरी ऑफ गंगेस इंडिया” शीर्षक के शोध में बताया गया है। इस शोध को लखनऊ स्थित बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के पर्यावरण विभाग के वेंकटेश दत्ता और डीएसटी सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च विभाग की उर्वशी शर्मा और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया की काशीफा इकबाल व आईसीएआर नेशनल ब्यूरो ऑफ फिश जेनेटिक रिसोर्स लखनऊ के अदीबा खान ने तैयार किया था। शोध पत्र का निचोड़ बताता है कि गंगा बेसिन में पहले से ही नदियों पर बहुत से दबाव हैं। ऐसे में नदी का रास्ता बदलने से न सिर्फ उसका जलीय जीवन प्रभावित होता है बल्कि नदी को भी नुकसान है। बिना पारिस्थितिकी सिद्धांतों और ईआईए के इस तरह के काम को नहीं किया जाना चाहिए।
गोरखपुर के करजही गांव में राप्ती किनारे मिले राम सिंह बताते हैं कि वह मछुआरे हैं और उनके परबाबा भी इसी नदी से जुड़े थे। वह कहते हैं कि इस नदी में प्रचुरता में विभिन्न प्रजातियों की मछलियां मिलती हैं। दुर्लभ घड़ियाल भी मौजूद हैं। इसके अलावा 50 से 60 की संख्या में सूंस (गंगा डॉल्फिन) भी मौजूद हैं। यदि नदी से छेड़छाड़ की गई तो जलीय जीवन प्रभावित होगा।
13 जुलाई, 2017 को एनजीटी ने गंगा के फैसले में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के हवाले से कहा है कि गंगा नदी में 1970 में जहां 70 देशी प्रजातियों वाली मछलियां थीं, वहीं अब 53 तरीके की देशी प्रजाति वाली मछलियां लुप्त हो चुकी हैं। इस वक्त व्यावसायिक मकसद वाली प्रजातियां ही मौजूद हैं। इस परियोजना के बाद गंगा और उसकी सहायक नदियों के जीवन पर संकट और गहरा हो सकता है।
गंगा मामले के प्रमुख याची व पर्यावरण मामलों के कानूनी विशेषज्ञ एमसी मेहता ने कहा कि जब उत्तराखंड में टिहरी बांध का निर्माण किया गया तो उसे विकास का मंदिर कहा गया था। आज वह विनाश का मंदिर बन चुका है। नदियों से छेड़छाड़ उचित नहीं है। यमुना जिये अभियान के संयोजक मनोज मिश्रा कहते हैं कि एनजीटी के किसी विशिष्ट आदेश का गलत इस्तेमाल करके उसे पूरी तरह गंगा बेसिन में लागू कर देना ठीक नहीं है। गंगा बेसिन बेहद जटिल है। एनजीटी का आदेश यह नहीं कहता कि नदियों का रास्ता बदल दिया जाए या फिर उनमें मशीनों से ड्रेजिंग की जाए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व डीन और पारिस्थितिकी विशेषज्ञ सीके वार्ष्णेय कहते हैं कि रिवर चैनलाइजेशन से किसी भी नदी के किनारे मौजूद नमभूमि (राइपेरियन वेटलैंड) प्रभावित हो सकती है। चैनलाइजेशन की प्रक्रिया में पानी बहुत तेज गति से गुजरता है। ऐसे में यह भी संभावना होती है कि खुदाई कर तैयार किया गया चैनल फिर से भर जाए।
यूपी के बाराबंकी जिले में नदी की धारा मोड़ने का पायलट प्रोजेक्ट में ऐसा ही हुआ। 2018 में एल्गिन-चरसड़ी ब्रिज के पास जहां चैनल बनाई गई थी, वह फिर पट गई। बाराबंकी में सिरौली-गौसपुर तहसील में घाघरा का बाढ़ प्रभावित सोनावां राजस्व ग्राम है। यहां के निवासी विनोद सिंह ने बताया कि बीते वर्ष नदी के बीचोंबीच खुदाई कर एक गहरा चैनल बनाय गया था। वह फिर से भर गया। इससे पानी फिर चारों तरफ फैल गया। इस वर्ष फिर उसी स्थान के पास ड्रेजिंग की जा रही है। इस दौरान नजदीकी गांव टेपरा और आसपास के इलाके में पानी भर गया है। विनोद कहते हैं कि मनमौजी घाघरा को नियंत्रित करने का सपना ही गलत है। हर वर्ष नई धारा की खुदाई कहां-कहां की जाएगी?
बाराबंकी जिले से करीब 107 किलोमीटर दूर अयोध्या के गुप्तार घाट पर सरयू में मशीनों से ड्रेजिंग कर घाटों के सौंदर्यीकरण और उन्हें पक्का करने का काम तेजी से चल रहा है। यहां नदी की एक नई धारा का निर्माण कर घाट के करीब पानी लाया गया है। गुप्तार घाट पर बीते 15 वर्षों से नाव चलाने वाले और गोताखोर बाबू निषाद बहुत पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन वे सहज तरीके से बताते हैं कि जब नदी एक तरफ रोकी जाएगी तो दूसरी तरफ वह कटान करेगी। नदी को बिल्कुल छेड़ा नहीं जाना चाहिए। जब नदी अयोध्या के गुप्तार घाट में मोड़ी गई तो इसका असर दूसरी ओर पांच किलोमीटर दूर गोंडा के नवाबगंज में जयपुर माझा गांव में दिखा। नदी ने डेढ़ किमी़ कटान किया और बहुत से खेत जलमग्न हो गए।
अयोध्या में गुप्तार घाट से गोलाघाट तक नदियों से 18 लाख घन मीटर बालू (करीब एक करोड़ ट्रॉली) की खुदाई हुई है। यह इस वक्त की यूपी में बालू की बाजार कीमत (1,300 रुपए प्रति ट्रॉली) के हिसाब से करीब 1,170 लाख रुपए का बालू है। यह सिर्फ एक घाट पर नदी की खुदाई और नए मार्ग के निर्माण का हिसाब-किताब है। स्थानीय लोग बालू के अवैध इस्तेमाल का जिक्र भी करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की सैंड एंड सस्टेनिबिलिटी : फाइंडिंग न्यू सॉल्यूशन फॉर एनवारमेंटल गवर्नेंस ऑफ ग्लोबल सैंड रिसोर्सेज शीर्षक वाली हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि बालू और बजरी की वैश्विक मांग 40 से 50 अरब टन प्रतिवर्ष है, जो 2030 तक बढ़कर 60 अरब टन प्रतिवर्ष हो जाएगी। रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि गलत तरीके से नदियों से हो रहे खनन के भयंकर दुष्परिणाम होंगे। यह प्रदूषण, बाढ़, जलीय जीवों की कमी और सूखे के हालात पैदा कर सकता है।
अयोध्या में ही गुप्तार घाट से गोलाघाट की तरफ बढ़ने के क्रम में रेत का समुंदर दिखाई देता है। यहां एक छप्पर की कुटिया में रहने वाले राम प्रसाद निषाद बताते हैं कि जहां भी रेत है, वहां पहले खेत थे। नदी की खुदाई से सारा रेत निकला है। छह महीनों में अब उनके सामने नदी की नई धारा चल निकली है जो अयोध्या तक जाएगी। वह बताते हैं कि जब नेपाल का पानी नदियों में आएगा तो यह नई धारा कौन सी डगर पकड़ेगी, यह कहना मुश्किल है। वह बताते हैं कि इस परियोजना के पीछे सरकार की क्या मंशा है, उन्हें नहीं पता। सरयू मैया तो प्रार्थना पर एक चूल्हा काट कर दूसरा चूल्हा बचा देती थीं। जाने अब क्या होगा?
राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद में पर्यावरण विभाग के सहायक प्रोफेसर विनोद कुमार चौधरी बताते हैं कि दुनिया में ऐसी मिसाल कहीं नहीं है जहां लोगों ने पारिस्थितिकी तंत्र बनाया हो, सिर्फ बिगाड़ा ही है। यह बहुत संभव है कि हमारे बच्चे किताबों में पढ़ें कि यहां कभी सरयू बहती थी। विश्वविद्यालय के ही एग्जीक्यूटिव काउंसलर ओम प्रकाश बताते हैं कि स्मार्ट अयोध्या बनाने की बात हो रही है लेकिन सरयू को संरक्षित करना इसमें शामिल नहीं है। सरयू से छेड़छाड़ और बंधा बनाने का काम सिर्फ जमीनों को हासिल करने की कवायद है।
अयोध्या में जमीनों की खुदाई कर जो भी मिट्टी या बालू निकला है उसका निस्तारण नहीं हुआ है। बाढ़ आने ही वाली है। संभव है कि कागजों में इस बालू को बाढ़ के साथ बहा हुआ दिखा दिया जाए।
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