Governance

“तराजू में एक तरफ नमक तो दूसरी तरफ मेवा”

आदिवासियों को उनके लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ट्राइफेड वन-धन याेजना शुरू कर रही है

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Wednesday 15 August 2018

लघु वनोपज (एमएफपी) पर आदिवासियों का एकाधिकार होने के बावजूद वे उसके उचित दामों से वंचित हैं। बस्तर क्षेत्र में आदिवासी चिरौंजी जैसे महंगे मेवे को नमक के भाव बेचते हैं। तराजू में एक तरफ नमक होता है तो दूसरी ओर मेवा (ड्राईफूड)। लघु वनोपज पर निर्भर आदिवासियों के शोषण की ये एक मिसाल है। शोषण की इस खाई को पाटने के लिए आदिवासियों को उनके लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ट्राइफेड (ट्राइबल कोआपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) अब वन-धन योजना शुरू कर रही है। उसका दावा है कि आदिवासियों को उनके वनोपज का सही दाम मिलेगा। सरकार अब तक लघु वनोपज का सही मूल्य नहीं दिला पाई है। सही मूल्य दिलाने में योजना कितनी कारगर होगी? ऐसे कई सवालों का जवाब ट्राईफेड के प्रबंध निदेशक प्रवीर कृष्ण ने अनिल अश्विनी शर्मा को दिए

लघु वनोपज पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का कितना प्रभाव पड़ेगा?संग्रहित वनोपज की संख्या और कितनी बढ़ाई जाएगी?

कायदे से देखा जाए तो इसका असर शून्य है। लघु वनोपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य केंद्र सरकार ने 2013-14 में लागू किया था। इसमें तब 10 लघु वनोपज शामिल थीं। जैसे इमली, महुआ, तोरा, आंवला आदि। इस आधार पर 2014-15 में 55 से 60 करोड़ रुपए की खरीद की गई। इसके बाद 2016-17 में 10 लघु वनोपज बढ़ाकर 23 कर दिया गया। इस पर लगभग 125 करोड़ रुपए की खरीदारी की गई, लेकिन हम मानते हैं कि यह बहुत ही कम है। इसकी क्षमता लगभग 1200 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष है। इससे अभी हम बहुत पीछे हैं।

इसकी क्षमता को बढ़ाने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा रहे हैं?

अब हमें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कम से कम 75 वनोपज को शामिल करना होगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य को बाजार मूल्य के आसपास रखना होगा। क्योंकि अभी लघु वनोपज के मूल्य वास्तविक रूप से कम हैं। इस बरसात बाद 75 वनोपजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर ग्रामीण हाट बाजारों से खरीदने की कार्य योजना तैयार की जा रही है। 27 राज्यों के साथ समझौते पत्रों पर हस्ताक्षर करने की तैयारी है। इस योजना से देश भर के ढाई करोड़ आदिवासी सीधे तौर पर जुड़ेंगे।

आदिवासियों को उनके लघु वनोपज का सही दाम मिले, इसके लिए वन-धन योजना कितनी कारगर सािबत होगी?

वन-धन योजना के तहत देशभर में 3000 वन-धन केंद्र स्थापित किए जाएंगे। हर केंद्र पर लगभग 300 आदिवासी अपनी लघु वनोपज लाएंगे व उनकी उपज को परिष्कृत करने की व्यवस्था होगी। योजना का उद्देश्य है लघु वनोपज को परिष्कृत करना। इस काम में जिलाधीश को शामिल किया गया है। जैसे सामान्य इमली 30 रुपए किलो बिकती है। लेकिन उसी इमली के बीज व रेशे निकाल दिए जाएं तो वह 120 रुपए किलो में बिकेगी।

आदिवासियों को इस कार्य में निपुण करना होगा। तभी उनका सतत विकास संभव होगा। यही नहीं, लगभग 20 से 25 लाख आदिवासियों को इस योजना के माध्यम से उद्यमी बनाया जाएगा। जब तक सरकार हाट बाजार में जाकर आदिवासियों के लघु वनोपज नहीं खरीदेगी तब तक उन्हें सीधे लाभ नहीं मिलेगा। अकेले क्रय से ही काम नहीं चलेगा बल्कि इसके बाद उस उपज का भंडारण, परिवहन, फिर विक्रय और आखिरी में मूल्य संवर्धन व परिष्कृत करना। प्राइमरी बाजार से लेकर मुख्य बाजार तक की कड़ी को देखना होगा।

आदिवासियों के विकास के लिए उनके जंगल की उपज को सही समर्थन मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार क्या उपाय कर रही है?

देशभर के जंगलों में लगभग 10 करोड़ आदिवासी रहते हैं। उनकी 40 से 60 फीसद आय वनोपज से होती है। यदि उनके वर्तमान मूल्य के मुकाबले सही समर्थन मूल्य दें तो उनकी आय में दो गुनी से अधिक वृद्धि होगी। अगर उनकी उपज को परिष्कृत (वैल्यू एडिशन) किया जाए तो उनकी आय तीन से चार गुण हो जाएगी।

आदिवासियों कल्याण के लिए योजनाएं तो बीते 7 दशकों में कई बनीं, लेकिन उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी क्या रह जाती है?

इस बार हमारा लक्ष्य यही है कि योजना के क्रियान्वयन पर अधिक जोर रहेगा। कारण कि कागजों पर तो योजना बहुत अच्छी होती है, लेकिन सही क्रियान्वयन नहीं होने से वे बस कागजों में ही रह गईं। जमीनी क्रियान्वयन के लिए सही मूल्य का निर्धारण, हाट बाजारों में खरीद-बिक्री की व्यवस्था, बाजार में क्रय करने वाली समितियों को सही मात्रा में भुगतान, एडवांस भुगतान को स्थयी रूप से निर्धारित कर, दिशानिर्देश बना कर उसे राज्य सरकार व जिला कलक्टरों के माध्यम से क्रियान्वयन किए जाने की योजना है।

यह काम कब से शुरू हो रहा है?

बस, इस बरसात के बाद यह योजना शुरू हो जाएगी। क्योंकि बरसात में वनोपजों का संग्रहण कार्य ठीक से नहीं हो पाता। आगामी नवंबर-दिसंबर में लघु वनोपज का मौसम आएगा। हम 27 राज्यों के लगभग 5000 हाट बाजारों में इस योजना को अमल में लाएंगे।

आपने बस्तर क्षेत्र में काम किया है और वहां दशकों से नक्सलवाद का असर है। क्या ट्राइफेड की योजनाओं के माध्यम से नक्सलवाद के दुष्प्रभावों का इलाज संभव है?

हां, बस्तर में मैंने काम किया है और इसके आधार पर मैंने मंत्रालय के सामने प्रस्ताव रखा है। आदिवासियों के लघु वनोपज व हस्तशिल्प का व्यापार 20-25 करोड़ रुपए का नहीं है बल्कि इसके 2000 करोड़ रुपए तक के बढ़ने की क्षमता है। आज 2 लाख करोड़ रुपए की लघु वनोपज देश में उपलब्ध है। और, हम इसके माध्यम से प्रतिवर्ष दो से तीन हजार करोड़ रुपए का व्यापार कर सकते हैं। और यदि इसमें वैल्यू एडिशन जोड़ दिया तो यह 10 हजार करोड़ रुपए का व्यापार तक बढ सकता है। आज आदिवासी 20 से 50 रुपए कमा रहा है। यदि उसके हाथ में 200 रुपए रोज के आएंगे तो वह दिनभर काम करेगा। उसका ध्यान नक्सलवाद की ओर जाएगा ही नहीं। आदिवासी क्षेत्रों में बिचौलिए शोषण करते हैं। ये आदिवासियों से चिरौंजी नमक के भाव खरीदते हैं। अभी 2000 रुपए के सामान पर आदिवासी के हाथ में 100 रुपए आता है जबकि उसे 1200 रुपए मिलने चाहिए। क्योंकि दुनिया की कोई ऐसी तकनीक नहीं विकसित हुई है, जिसके माध्यम से जंगलों से आदिवासियों को छोड़ कोई दूसरा समुदाय लघु वनोपज संग्रहित कर सके। उसकी इस दक्षता को थोड़ा और परिष्कृत कर आदिवासियों का एक जनाआंदोलन खड़ा करने की तैयारी है।

बांस आदिवासियों के लिए अहम वनोपज है, इनके उपयोग पर आदिवासियों को उत्पीड़न झेलना पड़ता है। इस संबंध ट्राईफेड क्या कर रहा है?

यह एक अच्छी बात हुई है कि जिस बांस को पहले लकड़ी की श्रेणी में रखा जाता था, अब यह ग्रास (झाड़ियों) की श्रेणियों में आ गया है। इससे अब कोई भी व्यक्ति अपने निजी क्षेत्र में लगाए गए बांस को बिना किसी सरकारी अनुमति के खरीद व बेच सकता है। अब आदिवासी समुदाय बांस का व्यवसायिक उपयोग भी कर सकेगा।

आदिवासी हस्तशिल्प कला उत्पादों के लिए ट्राइफेड की क्या योजना है?

आदिवासी हस्तशिल्प कला के अंतर्गत लगभग 5000 किस्म की चीजें बनाते हैं। काठ, लोहे, मिट्टी के सामान व आभूषण आदि को हम “ट्राइब्स इंडिया” ब्रांड के तहत विक्रय करते हैं। अभी हमारे पास 100 दुकानें हैं और इसे 3000 तक बढ़ाने की योजना है। इसके माध्यम से 20 से 25 करोड़ रुपए का विक्रय हो रहा है। इसे 100 करोड़ रुपए तक पहुंचाने का लक्ष्य है। इससे लगभग ढाई लाख आदिवासी परिवारों की आजीविका जुड़ेगी।

ट्राइफेड की योजनाओं से कितने आदिवासी परिवारों को रोजगार मिलेगा?

लघु वनोपज के माध्यम से लगभग 25 लाख आदिवासी परिवारों का सीधा लाभ पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। जबकि उनके द्वारा तैयार किए गए हस्तशिल्प उत्पाद से लगभग ढाई लाख आदिवासी परिवारों की आय में दोगुनी वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है।

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