कुपोषण मुक्त होने में भारत को लगेंगे कई दशक
अगर वर्ष 2000 से विश्व भूख सूचकांक का विश्लेषण करें तो भयावह तस्वीर उभरती है। इस अवधि में भारत सुधार के मामले में नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से पीछे है
On: Wednesday 12 February 2020
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन और गैर लाभकारी संगठन पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने सितंबर 2019 में संयुक्त रूप से एक रिपोर्ट जारी कर कहा गया कि राज्यों में पांच साल तक के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण कुपोषण होगा। भारत में 2017 में पांच साल तक के 10.4 लाख बच्चे कुपोषण की भेंट चढ़ गए। कुपोषण के कारण 68.2 प्रतिशत से अधिक मौतें हुई। द लांसेट में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, यह हालात तब हैं जब 1990 से 2017 के बीच पांच साल तक के बच्चों में समय पूर्व जन्म, निमोनिया, डायरिया, जन्मजात असंगति और संक्रमण से होने वाली मौतों में 65 प्रतिशत की कमी आई है और कुपोषण से होने वाली मौतें केवल 3 प्रतिशत रह गई हैं। अक्टूबर 2019 में भूख को दूर करने की दिशा में हुई प्रगति और बाधाओं का आकलन करने वाले वैश्विक भूख सूचकांक (डब्ल्यूएचआई) ने 117 देशों में भारत को 102 पायदान पर पाया। सूचकांक में भारत को 100 में से 30.3 अंक ही हासिल हो सके जो गंभीर स्थिति के सूचक हैं। अल्प पोषण, वेस्टिंग, स्टंटिंग और शिशु मृत्युदर के आधार पर हासिल अंक बताते हैं कि भारत में भूख की स्थिति बेहद खतरनाक है।
अगर वर्ष 2000 से विश्व भूख सूचकांक का विश्लेषण करें तो भयावह तस्वीर उभरती है। इस अवधि में भारत के अंकों में केवल 21.9 प्रतिशत का ही सुधार हुआ है, जबकि ब्राजील ने 55.8 प्रतिशत, घाना ने 51.2 प्रतिशत, मालावी और इथियोपिया ने 48.3 प्रतिशत, नेपाल ने 43.5 प्रतिशत, बांग्लादेश ने 28.5 प्रतिशत और पाकिस्तान ने 25.6 प्रतिशत सुधार किया है। देश में 1975 से कुपोषण से निपटने के लिए दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेस (आईसीडीएस) चल रहा है। सभी राज्यों में जन वितरण प्रणाली है ताकि गरीबों और पहुंच से दूर इलाकों में भी सस्ती दरों पर अनाज मिल सके। इन सबके बावजूद यह प्रश्न बना हुआ है कि क्या भारत इस गति से संयुक्त राष्ट्र के भूख और कुपोषण से संबंधित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को 2030 तक प्राप्त कर पाएगा?
एसडीजी के 17 लक्ष्यों में दो लक्ष्य भूख को खत्म करने और स्वस्थ जीवन व कल्याण को प्रोत्साहित करने से संबंधित हैं। एसडीजी लक्ष्य 2.2 के अनुसार, सभी प्रकार के कुपोषण को 2030 तक खत्म करना है। इसमें 2025 तक अंतरराष्ट्रीय सहमति से निर्धारित पांच साल के बच्चों में स्टंटिंग (उम्र के अनुसार कम लंबाई) और वेस्टिंग (लंबाई के अनुसार कम वजन) के लक्ष्य के साथ ही किशोर लड़कियों, गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बुजुर्गों की पोषण की जरूरतों को हासिल करने का लक्ष्य भी शामिल है। एसडीजी लक्ष्य 3.2 के मुताबिक, 2030 तक नवजातों और पांच साल तक के बच्चों की रोकी जा सकने वाली मौतों पर लगाम लगाना है। सभी देशों को प्रति 1,000 नवजात बच्चों पर मृत्युदर को 12 और पांच साल के बच्चों की मृत्युदर को 25 पर लाना है। भारत उन वार्ताओं का प्रमुख साझेदार जिनके फलस्वरूप एसडीजी की शुरुआत हुई, इसलिए उसे एसडीजी लक्ष्य को हासिल करना होगा।
हालात में सुधार के लिए प्रधानमंत्री ने 2018 में एक महत्वाकांक्षी मिशन “पोषण अभियान” की शुरुआत की थी। इसके मुताबिक, भारत को 2022 तक कुपोषण से मुक्त करना है। बच्चों में स्टंटिंग और अल्प पोषण साल में दो प्रतिशत कम करना है। साथ ही महिलाओं, युवा बच्चों व बच्चियों में एनीमिया में साल में 3 प्रतिशत की कमी लानी है। जन्म लेने वाले बच्चों के कम वजन में भी साल में दो प्रतिशत का सुधार करना है। इस लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार ने तीन सालों के लिए 2,849.54 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया है। 2017-18 से इस बजट की शुरुआत हो चुकी है और मुख्य रणनीतियां भी तय कर दी गईं हैं। इसमें बच्चों को पहले छह महीने और उसके बाद दो साल तक स्तनपान, नवजात की बेहतर देखभाल और कम वजन के नवजातों पर विशेष ध्यान देने का प्रावधान है। साथ ही प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना के तहत महिलाओं को सुरक्षा देने और कानूनी उम्र से पहले विवाह न होने देने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
स्तनपान से वंचित शिशु
भारत में भोजन की कमी के कारण पर्याप्त स्तनपान नहीं हो पाता। कई बार जन्म लेने के एक घंटे बाद ही शिशु स्तनपान से वंचित हो जाता है। छह महीने तक विशेष स्तनपान और उसे दो साल तक बरकरार रखना, छह महीने के बाद शिशु को ठोस आहार देना और उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसे बढ़ाना भी भोजन की कमी से संभव नहीं हो पाता। बच्चों को विविधतापूर्ण भोजन भी दिया जाना चाहिए ताकि बढ़ती उम्र में उसे जरूरी पोषक तत्व मिल सकें, लेकिन दुर्भाग्य है कि स्तनपान का अभ्यास जमीन पर नहीं दिखता। 2015-16 में जारी ताजा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-4) कहता है कि 40 प्रतिशत से कुछ अधिक शिशुओं को ही जन्म लेने के तुरंत बाद मां का दूध नसीब होता है।
तमिलनाडु व उत्तराखंड में स्थिति बहुत खराब है जबकि महाराष्ट्र, दिल्ली और केरल में 2005-06 के एनएफएचएस-3 के मुकाबले साल में एक प्रतिशत से कम का ही सुधार हुआ है। इस आधार पर गणना करें तो भारत को सार्वभौमिक शुरुआती स्तनपान के लक्ष्य को हासिल करने में 32 साल लगेंगे। कुछ राज्यों को तो और समय लगेगा। अगर छह महीने तक विशेष स्तनपान की बात करें तो एनएफएचएस-4 बताता है कि केवल 55 प्रतिशत शिशुओं को ही यह हासिल होता है। पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश और हरियाणा में इसमें उल्लेखनीय सुधार हुआ है लेकिन छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में इसमें कमी आई है। अगर यही दर जारी रहती है तो सभी शिशुओं को 53 सालों में विशेष स्तनपान सुनिश्चित हो पाएगा (देखें, कम वजन की समस्या से निपटने में 53 साल लगेंगे)। अधिकांश राज्यों में इसमें दशकों लगेंगे जबकि महाराष्ट्र में 120 साल, गुजरात में 55 साल और झारखंड में 50 साल लगेंगे। एनएफएचएस-4 के आंकड़े बताते हैं कि केवल 43 प्रतिशत शिशुओं को ही पूरक आहार मिलता है। 2005-06 में यह 52.6 प्रतिशत था।
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(लेखक विकास संवाद के संस्थापक सचिव एवं अशोका फेलो हैं)