230 सालों में खत्म होगा एनीमिया

सीएनएनएस रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा को छोड़कर शेष राज्यों में बच्चों को विविधतापूर्ण न्यूनतम भोजन नहीं प्राप्त हो रहा है

By Sachin Kumar Jain

On: Wednesday 12 February 2020
 
Photo: commons.wikimedia

कुपोषण का एक उपेक्षित कारण दोषपूर्ण भोजन है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2016 से 2018 के बीच यह जानने के लिए एक सर्वेक्षण किया था कि क्या बच्चे ठीक भोजन खा रहे हैं। कॉम्प्रिहेंसिव नेशनल न्यूट्रिशन सर्वे (सीएनएनएस) 2016-18 कहता है कि 42 प्रतिशत बच्चों को ही मिनिमम मील फ्रीक्वेंसी (एमएमएफ) के अनुसार भोजन प्राप्त हो रहा है। 6 से 23 महीने के 79 प्रतिशत बच्चों को विविधतापूर्ण भोजन नहीं मिल रहा है। इसका अर्थ है कि इन बच्चों को चिन्ह्ति किए गए आठ आहार समूहों में चार भी नसीब नहीं हो रहे हैं।

इन आहार समूहों में दूध और दूध से बने उत्पाद, विटामिन ए युक्त भोजन और सब्जियां, अनाज, अन्य फल व सब्जियां, अंडा, मांस, मछली, फलियां, मटर, दालें या नट्स, घी से बना भोजन, तेल, वसा अथवा मक्खन शामिल है। सीएनएनएस रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा को छोड़कर शेष राज्यों में बच्चों को विविधतापूर्ण न्यूनतम भोजन नहीं प्राप्त हो रहा है। 90 प्रतिशत से अधिक बच्चों को आयरन युक्त भोजन नहीं मिल रहा. जो मुख्य रूप से मांसाहार से प्राप्त होता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि केवल 6.4 प्रतिशत बच्चों को ही न्यूनतम स्वीकार्य भोजन प्राप्त हो रहा है।

वर्तमान दर को देखते हुए नौ राज्यों को इससे भी अधिक समय लग सकता है (स्रोत: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस))

तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले दशक में देश ने पोषक तत्वों में कमी की बड़ी वजह एनीमिया पर बेहद धीमी प्रगति की है। पांच साल तक 58 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से ग्रस्त हैं। 2005-06 से इसमें केवल 1.2 प्रतिशत की कमी आई है। अगर यही गति जारी रहती है तो बच्चे 53 साल में एनीमिया से मुक्त हो पाएंगे। मध्य प्रदेश को एनीमिया मुक्त होने में 135 साल जबकि झारखंड को 1,747 साल लगेंगे। महिलाओं का खराब स्वास्थ्य बच्चों के कुपोषण और शिशु मृत्युदर का बड़ा कारण होता है। छत्तीसगढ़ और ओडिशा को छोड़कर किसी भी राज्य ने इस मामले में एक प्रतिशत का भी सुधार नहीं किया है।

छह राज्यों- उत्तर प्रदेश, दिल्ली, केरल, पंजाब, हरियाणा और तमिलनाडु में तो 15 से 49 साल की महिलाओं में एनीमिया की स्थिति और बुरी हुई है। अगर यही प्रगति जारी रहती है तो देश में एनीमिया को खत्म करने में 230 साल लग सकते हैं। महाराष्ट्र को एनीमिया मुक्त होने में 1,200 साल, गुजरात को 1,372 और पश्चिम बंगाल को 892 साल लगेंगे। इन तमाम संकेतों को देखकर एसडीजी और पोषण अभियान का लक्ष्य हासिल करना बेहद मुश्किल प्रतीत होता है।

स्टंटिंग क्रोनिक अल्प पोषण अथवा बीमारी का संकेत है। एनएफएचएस-3 व एनएफएचएस-4 का विश्लेषण बताता है कि कोई भी राज्य 2030 तक स्टंटिंग से संबंधित एसडीजी लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएगा। इसमें कमी की वार्षिक दर 0.96 प्रतिशत है। अगर यही दर बरकरार रहती है तो एसडीजी लक्ष्य दूर हो जाएगा (देखें, स्टंटिंग का एसडीजी लक्ष्य 40 साल में पूरा होगा)। वेस्टिंग भी गंभीर अल्प पोषण का प्रतीक है।

पांच साल तक के करीब 21 प्रतिशत बच्चे इससे जूझ रहे हैं। चिंता की बात यह है कि 2005-06 से इसमें 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ऐसे में अनुमान लगाना मुश्किल है कि भारत कब तक वेस्टिंग का एसडीजी लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा। हालांकि सामान्य से कम वजन के बच्चों से संबंधित कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है लेकिन यह घटकर शून्य होना चाहिए।

भारत के लिए यह लक्ष्य हासिल करना बहुत दूर की बात है। हालांकि राज्य एसडीजी लक्ष्य 3.2 के प्रति प्रगति कर रहे हैं। केरल ने प्रति 1,000 जन्म पर शिशु मृत्यु दर 12 कर ली है और उसमें क्षमता है वह भविष्य में यह दर शून्य कर सकता है। महाराष्ट्र, दिल्ली, केरल, पंजाब और तमिलनाडु ने पांच तक के बच्चों की मृत्युदर से संबंधित लक्ष्य हासिल कर लिया है लेकिन मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ को यह लक्ष्य हासिल करने में नौ से दस साल लगेंगे। सालाना दर में कमी लाने के लिए तुरंत हस्तक्षेप की जरूरत है।

आंगनवाड़ी केंद्रों को क्रश में बदलकर, मातृत्व कल्याण के लिए सार्वभौमिक मदद देकर, भोजन और पोषण सुरक्षा को मौलिक अधिकार मानकर और कुपोषण को दूर करने के लिए समुदाय आधारित प्रबंधन की वचनबद्धता इन लक्ष्यों को हासिल करने में बेहद मददगार साबित हो सकती है।

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