अनिल अग्रवाल डायलॉग 2020: बच्चों पर जहर जैसा काम करता जंक फूड

राजस्थान के अलवर में चल रहे अनिल अग्रवाल डायलॉग 2020 के दूसरे दिन जंक फूड पर विशेषज्ञों ने चर्चा की  

By Manish Chandra Mishra

On: Monday 10 February 2020
 
विकास संवाद भोपाल के सचिन जैन, अनिल अग्रवाल डायलॉग को संबोधित करते हुए। फोटो: भागीरथ

जंक फूड बच्चों के ऊपर जहर की तरह काम करता है। इसके लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बड़े स्तर और कदम उठाए हैं। यह बात अनिल अग्रवाल डायलॉग 2020 के दौरान चर्चा करते हुए आयोग के अध्यक्ष आरजी आनंद ने कही।

उन्होंने कहा कि आयोग में सूचना और प्रसारण मंत्रालय,  स्कूली शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विभाग और स्वास्थ्य विभाग को जंक फूड के बारे में योजनाएं बनाने को कहा। केरल ने रेस्टोरेंट पर फैट टैक्स लगाने शुरू किया है। इसके अलावा, आयोग दूसरे राज्यों में जंक फूड को लेकर हो रहे प्रयासों पर भी नजर रख रहा है।

इस सत्र में खाद्य सुरक्षा और विषाक्त पदार्थ, सीएसई के कार्यक्रम निदेशक अमित खुराना ने पैकेज्ड खाने पर लेबल की सच्चाई को लेकर कई जानकारियां साझा की।  अमित खुराना ने कहा कि बड़ी फास्ट फूड कंपनियां पैकिंग का लेबल लगाने में ईमानदारी नहीं बरतते। फास्ट फूड की दुकानों पर इन खानों में पाए जाने वाले तत्वों का जिक्र नहीं दिखता। उन्होंने कहा कि भारत जैसे देश में लोग खाने के लेबल को सिर्फ अंग्रेजी भाषा में दिया जाना भी उचित नहीं है। इससे एक बड़े वर्ग के लिए यह महज एक नंबर रह जाता है। वह नमकीन, चिप्स, फास्ट फूड जैसे खानों जिसमें नमक और वसा की अधिक मात्रा रहने की वजह से इसे जंक फूड मानकर इसपर लाल निशान लगाने की वकालत करते हैं।

कैसे प्रसंस्कृत खाद्य पारंपरिक आहार को बदल रहा है
विकास संवाद भोपाल के सचिन जैन ने ग्रामीण और बच्चों के खान पान के बदलते स्वरूप पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि जब हम पोषण की बात करते हैं तो सिर्फ आंगनबाड़ी से मिलने वाला पोषण नहीं आता, साथ ही जब खाद्य सुरक्षा की बात करते हैं तो बात पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम तक ही सीमित नहीं रहती। यह सब हमारे जीवन और स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। खानपान की बदली आदत की वजह से जो नुकसान होता है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। जैसे अगर खानपान की वजह से डायबिटीज हो जाए तो उसे ठीक नहीं किया जा सकता।

वह कहते हैं कि पारंपरिक खानपान की आदत में बदलाव के पीछे कई वजह सामने हैं। इसमें खाना बनाने की बड़ी समस्या सामने आ रही है और यह हर वर्ग तक है। पलायन पर आए मजदूरों के बच्चों का दिन भर का खाना बिस्किट या चिप्स का पैकेट बनता जा रहा है। तीसरी बड़ी चुनौती खाने तक पहुंच की है। मसलन, वन अधिकार कानून जैसे अधिकार दिलाने वाले कानून का ठीक से पालन न होने की वजह से लोग पारंपरिक खाना नहीं जुटा पा रहे हैं। इसके अलावा, मोटे अनाज से हमारी दूरी भी पारंपरिक खाने से लोगों को दूर कर रही है।

बच्चों के खाने में बाजार की घुसपैठ
सचिन जैन ने उत्तरप्रदेश के कौशाम्बी के गांव का उदाहरण देते हुए कहा कि गांव में स्तनपान के बजाय लोग बच्चों को बाजार में मिलने वाले पैकेज्ड फूड देने लगे हैं। गांव में गरीबी के हालात होने के बावजूद लोग बाजार के तंत्र की वजह से स्तनपान से दूर हो रहे हैं। उन्होंने गणना कर बताया कि 2 साल का एक बच्चा अपने जीवनकाल में 40 हजार तक का बाहरी खाना खाता है। इस वजह से मां के स्तन में इंफेक्शन की समस्या भी आती है। बाहरी खाने की वजह से बच्चों में गंभीर कुपोषण और डायरिया की शिकायत देखी गई है।

मांसाहार और सियासत
पर्यावरणविद और सीएसई की डायरेक्टर सुनीता नारायण ने मांसाहार के ऊपर अपनी राय जाहिर करते हुए कहा कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि मांसाहार के लिए पशुपालन का संबंध जलवायु परिवर्तन से है, लेकिन भारतीय परिपेक्ष में यह पूरी तरह से सच नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में प्रति व्यक्ति मांस की खपत 1 से 2 किलो प्रति वर्ष है, जो कि अमेरिका के 122 किलो प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष से काफी कम है। दूसरी बात यहां के किसान पशुपालन को अपनी खेती से जोड़कर करते हैं जबकि अमेरिका में केवल मांस के लिए पशुपालन बड़े पैमाने पर होता है। वो पशुओं को हार्मोन, एंटीबायोटिक देकर और चारागाह की जमीन उजाड़कर उत्पादन करते हैं। सुनीता नारायण ने वैश्विक सियासत के बारे में बताते हुए कहा कि अमेरिका जैसे देश गलत आंकड़ों का उपयोग कर हमारे किसानों को पशुपालन से दूर करना चाहते हैं।

Subscribe to our daily hindi newsletter