जीवन भक्षक अस्पताल-2: एनआईसीयू तक में नहीं है ऑक्सीजन की व्यवस्था

राजस्थान के कोटा ही नहीं, बल्कि ज्यादातर अस्पतालों में भर्ती बच्चों की मौत बताती है कि इन अस्पतालों में बच्चों को बचाने के पर्याप्त इंतजाम नहीं हैं  

On: Friday 17 January 2020
 

राजस्थान के उदयपुर स्थित महाराजा भूपोल सिंह राजकीय अस्पताल का बाहरी दृश्य। फोटो: माधव शर्मा

दिसंबर 2019 में राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत के बाद देश में एक बार फिर से यह बहस खड़ी हो गई कि क्या बड़े खासकर सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए भर्ती हो रहे बच्चे क्या सुरक्षित हैं? डाउन टू अर्थ ने इसे न केवल आंकड़ों के माध्यम से समझने की कोशिश की, बल्कि जमीनी पड़ताल करते हुए कई रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की है। सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि अस्पतालों में औसतन हर मिनट में एक बच्चे की मौत हो रही है। इसके बाद जमीनी पड़ताल की पहली कड़ी में पढ़ें, राजस्थान के कुछ अस्पतालों की दास्तान कहती माधव शर्मा की ग्राउंड रिपोर्ट -  

राजस्थान के उदयपुर जिले में तीन साल के दौरान 5153 नवजातों ने दम तोड़ दिया। यहां के महाराणा भूपाल अस्पताल में 2017 में 16783 बच्चे भर्ती किए गए। इनमें से 1421 बच्चों की मौत हो गई। 2018 में 18,616 बच्चे भर्ती किए गए और 1804 बच्चों ने संसाधनों की कमी के कारण दम तोड़ दिया। 2019 में 18,735 बच्चे इस अस्पताल में भर्ती कराए गए जिनमें से 1928 नवजातों को मौत के मुंह में जाना पड़ा।

महाराणा भूपाल अस्पताल में कुल 1400 बेड हैं. इसके अलावा बाल चिकित्सालय के आईसीयू में 160 बेड हैं. अस्पताल के पीआईसीयू और तीन एनआईसीयू में भर्ती रहने वाले गंभीर नवजातों के 26 वॉर्मर बेड पर ऑक्सीजन की सेंट्रलाइज्ड सप्लाई नहीं होती है। कुल भर्ती होने वाले बच्चों में से 10 प्रतिशत यानी करीब दो हजार मासूम विभिन्न बीमारियों से दम तोड़ देते हैं। उदयपुर में आस-पास के करीब 6 जिलों से हजारों लोग इलाज के लिए आते हैं. इनमें राजसमंद, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर शामिल हैं.

अस्पताल के पीडियट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (पीआईसीयू) में इसमें 29 दिन से 18 साल तक के विभिन्न बीमारियों से ग्रसित गंभीर बच्चों को भर्ती किया जाता है। यहां 16 बेड हैं। इनमें से सिर्फ 10 पर ही ऑक्सीजन की सेंट्रलाइज्ड सप्लाई है। शेष मासूमों को सिलेंडर से ही ऑक्सीजन मिलती है। यहां 8 वेंटिलेटर, 11 सिरिंज पंप, 1 डीफ्रिब्रीलेटर आदि उपकरण हैं।

अस्पताल के चार नियो-नटल इंटेंसिव केयर यूनिट (बच्चों का गहन चिकित्सा केंद्र) यानी एनआईसीयू हैं। पहले एनआईसीयू में 28 दिन तक के नवजातों को भर्ती किया जाता है। यहां 18 बेड हैं, लेकिन सेंट्रल ऑक्सीजन सप्लाई सिर्फ 9 बैड पर ही है। यहां धड़कन बंद होने जैसी स्थिति में शॉक देने वाला डीफ्रिब्रीलेटर ही नहीं है। जरूरत पर पीआईसीयू से लाते हैं। यहां 4 मशीन फोटो थैरेपी और 7 वेंटिलेटर हैं।

एनआईसीयू-7 में 25 बेड हैं और सभी 25 प्वाइंट पर ऑक्सीजन की सेंट्रल सप्लाई है, लेकिन यहां 0 से 28 दिन तक के 2-2 नवजात कई बार भर्ती रहने पर यह व्यवस्था भी नाकाफी साबित हो जाती है। यहां 8 वेंटिलेटर, 4 सीपीएपी मशीन आदि उपकरण हैं।

एनआईसीयू-14  में तीन दर्जन बेड हैं, लेकिन 9 बेड पर ऑक्सीजन की सेंट्रल सप्लाई नहीं है। कई बार यहां भी 1-1 बेड पर 2-2 बच्चे भर्ती रहते हैं।

 एनआईसीयू-बी  में 16 बेड की इस नर्सरी में 14 बैड पर ही ऑक्सीजन की सेंट्रल सप्लाई होती है। शेष दो बेड पर भर्ती नवजातों को सिलेंडर के जरिए ही ऑक्सीजन दी जाती है।

बाल चिकित्सालय की इमरजेंसी इकाई में भी सेंट्रलाइज्ड ऑक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था नहीं हैं। हालांकि यहां एक वेंटिलेटर और 5 मॉनिटर लगे हैं।

बाल चिकित्सालय ये उपकरण चाहिए

तय मानकों के मुताबिक, नवजात शिशु की हियरिंग स्क्रीनिंग करने के लिए 4 ऑटो अकोस्टिक एमीशन मशीनों की सख्त जरूरत है. धड़कन बंद होने की स्थिति में तुरंत शॉक देने के लिए 5 डीफ्रिबीलेटर, नवजातों की फोटो थैरेपी के लिए 20 एलईडी फोटो थैरेपी मशीन, नवजात शिशु की जॉन्डिस स्क्रीनिंग के लिए 10 ट्रांसक्यूतीनियस बिलीरूबीनोमीटर और 50 पल्स ऑक्सीमीटर की बाल चिकित्सालय को जरूरत है।

यहां भी हैं हालात खराब

बांसवाड़ा में 2019 में 180 बच्चों की मौत हुई है। सबसे ज्यादा 25 बच्चों की मौत मई माह में  हुई थी। बांसवाड़ा के महात्मा गांधीअस्पताल में 2017 में भी दो महीने में 90 नवजातों की मौत हुई थी।  इस बार भी 92 दिनों में 36 नवजातों की मौत हो चुकी है। इन तीन महीनों में 665 बच्चे एमजी अस्पताल में इलाज के लिए लाए गए थे और इनमें से 108 बच्चों को बड़े अस्पतालों में रैफर किया गया है।  

बूंदी में भी हालात अलग नहीं हैं। बीते 6 साल में यहां के जनाना अस्पताल में 9803 नवजात भर्ती किए गए और इनमें से 540 नवजातों की मौत हो गई। 2014 में 117, 2015 में 100, 2016 में 70, 2017 में 83, 2018 में 85 और 2019 में 82 नवजात बच्चों ने दम तोड़ दिया। इस साल अब तक 13 बच्चे अस्पताल में भर्ती हुए हैं इनमें से शुक्रवार को एक बच्चे की मौत हो गई।  लापरवाही का आलम यह है कि यहां चार साल पहले लगे 20 हीट वार्मर में से 13 पर तो मॉनिटर ही नहीं लगे हैं। मॉनिटर के कारण बच्चे की पल्स, ऑक्सीजन, एक्सप्रेशन और तापमान का पता चलता है।

भीलवाड़ा का महात्मा गांधी अस्पताल भी बच्चों का कब्रगाह बना हुआ है। 2019 में इस अस्पताल में 435 नवजात बच्चों की मौत हुई है। यानी हर माह करीब 39 बच्चों की मौत जिला अस्पताल में हो रही है। पिछले पांच साल में 2175 बच्चे मौत की नींद सोए हैं। भीलवाड़ा के महात्मा गांधी जिला अस्पताल में 35 लोगों का स्टाफ होना चाहिए लेकिन यहां सिर्फ 12 लोग ही कार्यरत हैं। जिले में 168 डॉक्टरों की कमी है। सहायक विशेषज्ञ के 98 पदों में से 76 और वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी के 35 में से 22 पद खाली हैं।

बाड़मेर मेडिकल कॉलेज के अंतर्गत आने वाले राजकीय जिला अस्पताल में 2014 से 2019 तक 49, 650 बच्चों को विभिन्न सरकारी अस्पतालों में भर्ती कराया गया। इनमें से 1358 बच्चों की मृत्यु हो गई। 2014 में जिले में 7922 बच्चे भर्ती हुए। इनमें से 231 बच्चों की मौत हुई। 2015 में 7961 भर्ती बच्चों में से 230 की मृत्यु हुई। 2016 में 8013 में से 189, 2017 में 8521 भर्ती बच्चों में से 240, 2018 में 8498 में से 218 और 2019 में 8735 बच्चे भर्ती किए गए। इसमें से 250 बच्चों की मौत हो गई।

जारी.. 

Subscribe to our daily hindi newsletter