पोषक तत्वों का अहम स्रोत हैं दूध, मांस और अंडे, लेकिन लाल मांस है खतरनाक: एफएओ

इन खाद्य उत्पादों में उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन और आवश्यक फैटी-एसिड सहित आयरन, कैल्शियम, जिंक, विटामिन बी12, कोलीन, सेलेनियम और बायोएक्टिव कम्पाउंड जैसे कार्निटीन, क्रिएटिन और टॉरिन होते हैं

By Lalit Maurya

On: Thursday 27 April 2023
 
तमिलनाडु में अपनी गाय से दूध दोहता एक किसान; फोटो: आईस्टॉक

आहार को लेकर सब की अपनी पसंद - नापसंद हो सकती है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) का कहना है कि दूध, मांस और अंडे, आहार में आवश्यक पोषक तत्वों का अहम स्रोत हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भले ही आप शाकाहारी हों या मांसाहारी लेकिन आहार में इन उत्पादों के बिना पर्याप्त पोषक तत्व नहीं मिल सकते।

इस बारे में एफएओ द्वारा जारी नई रिपोर्ट के अनुसार कुछ पोषक तत्व ऐसे हैं जिनका पौधों पर आधारित आहार से मिलना आमतौर पर मुश्किल होता है। एफएओ द्वारा जारी इस रिपोर्ट के अनुसार इनसे मिलने वाले पोषक तत्व गर्भावस्था, बचपन, किशोरावस्था एवं वृद्धावस्था जैसे जीवन के अहम पड़ावों के दौरान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार एक गिलास दूध, मांस या अंडे प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट्स के साथ-साथ अन्य महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करते हैं, जिनका स्वास्थ्य के लिए आवश्यक गुणवत्ता और मात्रा में मिल पाना मुश्किल होता है।

जानकारी मिली है कि उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन और आवश्यक फैटी-एसिड सहित आयरन, कैल्शियम, जिंक, विटामिन बी12, कोलीन, सेलेनियम और बायोएक्टिव कम्पाउंड जैसे कार्निटीन, क्रिएटिन और टॉरिन इन मवेशियों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों से प्राप्त होते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य और विकास के लिए बहुत जरूरी होते हैं।

इतना ही नहीं रिपोर्ट में इस तथ्य को भी उजागर किया गया है कि वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा आयरन और विटामिन ए, जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी विशेष रूप से बच्चों और गर्भवती महिलाओं में पाई जाती है।

यदि भारत से जुड़े आंकड़ों को देखें तो देश में 15 से 49 वर्ष की आयु की करीब 53.1 फीसदी महिलाएं और युवतियां ऐसी हैं जो खून की कमी या एनीमिया का शिकार हैं। देखा जाए तो भारत में जितनी फीसदी महिलाएं एनीमिया से ग्रस्त है वो वैश्विक औसत से भी ज्यादा है। देखा जाए तो भारत में खान-पान में पोषण की कमी इसकी एक प्रमुख वजह है।

पर्याप्त पोषण से वंचित है एशिया और अफ्रीका की बड़ी आबादी

वहीं अंतराष्ट्रीय जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक स्कूल जाने योग्य आयु से छोटा हर दूसरा बच्चा सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से जूझ रहा है। इन बच्चों का आंकड़ा करीब  37.2 करोड़ है। इनमें से तीन चौथाई बच्चे दक्षिण और पूर्वी एशिया के साथ प्रशांत और उप-सहारा अफ्रीका में रह रहे हैं। वहीं 15 से 49 वर्ष की आयु की 120 करोड़ से ज्यादा महिलाएं तीन महत्वपूर्ण पोषक तत्वों आयरन, विटामिन ए या फिर जिंक में से किसी न किसी एक की कमी से पीड़ित हैं।

रिपोर्ट के अनुसार पशुओं से मिलने वाले इन उत्पादों की खपत के मामले में दुनिया के अलग-अलग देशों में भारी अंतर है। उदाहरण के लिए जहां डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में एक व्यक्ति को औसतन हर साल केवल 160 ग्राम दूध नसीब हो रहा है वहीं दूसरी तरफ मोंटीनेग्रो में औसतन हर वर्ष प्रति व्यक्ति द्वारा 338 किलोग्राम दूध की खपत होती है।

इसी तरह अण्डों को देखें तो जहां दक्षिण सूडान में प्रति व्यक्ति औसतन केवल दो ग्राम अंडे मिल पाते हैं वहीं हांगकांग में यह आंकड़ा 25 किलोग्राम है। इसी तरह बुरुंडी में प्रति व्यक्ति मांस की खपत हर वर्ष औसतन तीन किलोग्राम है जबकि हांगकांग में प्रति व्यक्ति 136 किलोग्राम मांस का सेवन कर रहा है।

ऐसे में एफएओ के अनुसार पोषक तत्वों से भरपूर इन उत्पादों का सेवन सतत विकास के पोषण सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करने में मददगार हो सकते हैं। पता चला है कि इनके सेवन से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण, नाटेपन, जन्म के समय कम वजन वहीं 15 से 49 वर्ष की आयु की महिलाओं में रक्त की कमी और वयस्कों और बच्चों में बढ़ते मोटापे और गैर-संचारी रोगों की समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है।

रिपोर्ट के मुताबिक यदि सतत विकास के पोषण सम्बन्धी लक्ष्यों को देखें तो अभी भी हम उनसे काफी दूर हैं। उदाहण के लिए पांच वर्ष से कम आयु के बच्चे में नाटेपन की समस्या को 2030 तक 12.8 फीसदी पर सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है जो 2020 में 22 फीसदी दर्ज किया गया था। इसी तरह इस आयु वर्ग के 5.7 फीसदी बच्चे मोटापे से ग्रस्त हैं जिन्हें 2030 तक तीन फीसदी पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है।  

वहीं 2020 में 6.7 फीसदी बच्चे उम्र के लिहाज से बहुत ज्यादा पतले हैं जिसे 2030 तक तीन फीसदी पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है। ऐसे ही कुछ एनीमिया की स्थिति है, दुनिया में 15 से 49 वर्ष की करीब 30 फीसदी महिलाऐं खून की कमी से ग्रस्त है। 2030 तक स्थिति में सुधार करके इस आंकड़े को 14.3 फीसदी पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है।

जन्म के समय कम वजन भी एक गंभीर समस्या है जो सीधे तौर पर पोषण से जुड़ी है। 2015 के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में करीब 14.6 फीसदी शिशु इस समस्या से ग्रस्त हैं जिसे 2030 तक 10.5 पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया है।

अपने इस अध्ययन में खाद्य एवं कृषि संगठन ने पशुओं से प्राप्त होने वाले खाद्य उत्पादों के सेवन के फायदों और जोखिमों का अब तक का सबसे व्यापक विश्लेषण किया है। यह रिपोर्ट 500 से ज्यादा साइंटिफिक पेपर्स और करीब 250 पॉलिसी डॉक्यूमेंट के आंकड़ों और साक्ष्यों पर आधारित है।

स्वास्थ्य के लिए खतरा है 'लाल मांस'

रिपोर्ट में भले है मांस के सेवन की बात कही है लेकिन साथ ही लाल मांस को लेकर चेताया भी है। रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि प्रोसेस किए हुए लाल मांस के बहुत कम हिस्से के सेवन से भी मृत्यु की सम्भावना और पुराने रोगों के बढ़ने का खतरा हो सकता है। इसमें हृदय रोग और कोलोरेक्टल कैंसर जैसी बीमारियां शामिल हैं।

एफएओ के अनुसार स्वस्थ वयस्कों द्वारा दूध, अंडों और पोल्ट्री उत्पादों का सेवन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक नहीं है। रिपोर्ट से पता चला है कि इन उत्पादों और ह्रदय रोग, स्ट्रोक एवं उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं देखा गया है।

साथ ही विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इसके लिए पशुधन से जुड़ी अनगिनत चुनौतियों से भी निपटना जरूरी है। इनमें पर्यावरण से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं जिनमें वनों का होता विनाश, बढ़ता कार्बन उत्सर्जन, अनियंत्रित तरीके से जल और भूमि का होता दुरूपयोग, और प्रदूषण शामिल हैं।

कीटनाशकों और एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर कसनी होगी लगाम

रिपोर्ट में विशेष तौर पर मवेशियों में जुड़े रोगों और रोगाणुरोधी प्रतिरोध क्षमता में होती वृद्धि पर भी चिंता जताई गई है। रिपोर्ट के मुताबिक यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन उत्पादों के जरिए यह बीमारियां हमारी खाद्य श्रंखला का भी हिस्सा बन रही है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा हैं।

आंकड़ों की मानें तो दुनिया भर में खाद्य से जुड़ी बीमारियों के जितने मामले सामने आते हैं उनके करीब एक तिहाई हिस्से के लिए स्थलीय पशुओं से प्राप्त उत्पादों की खपत जिम्मेवार है। यह मुख्य रूप से जीवाणुओं और दस्त से जुड़ी समस्या है।

इसी तरह कृषि में इस्तेमाल हो रहे पेस्टिसाइड और हर्बीसाइड वापस हमारी खाद्य श्रंखला में आ रहे हैं। मवेशियों में बढ़ता एंटीबायोटिक अपने आप में एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। जो बढ़ते एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के लिए जिम्मेवार है। आज जिस तरह से कृषि और मवेशियों में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है वो गंभीर चिंतन का विषय है।

जानवरों को दी जा रही एंटीबायोटिक दवाएं लौटकर इंसानों के शरीर में पहुंच रही हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में भारत के पोल्ट्री फार्मों में बढ़ते एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को लेकर चिंता जाहिर की थी। रिपोर्ट में खाद्य एवं कृषि संगठन ने कृषि और मवेशियों पर बदलते जलवायु परिवर्तन के खतरे को लेकर भी आगाह किया है।

इस रिपोर्ट में भारत के बुंदेलखंड पर किए अध्ययन का भी जिक्र किया गया है, जिसके अनुसार अध्ययन किए गए चारे के 533 नमूनों में से 56.5 फीसदी में कीटनाशकों का पता चला था। इसी तरह दूध के 325 नमूनों में से 63.4 फीसदी में इसकी मौजूदगी दर्ज की गई थी। इसी तरह भारत के पांच राज्यों के शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों पर किए एक अन्य अध्ययन में दूध में 6.3 से 11.2 फीसदी की दर से कीटनाशकों के अवशेषों का प्रसार पाया गया था। 

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