वैज्ञानिकों ने बनाया नकली दवाओं से बचाने वाला सुरक्षा टैग

भारत में बिकने वाली करीब 25 फीसदी दवाएं नकली होती हैं, ऐसे में लाखों लोगों का जीवन बचाने में यह टैग बड़ी अहम भूमिका निभा सकता है

By Lalit Maurya

On: Tuesday 21 January 2020
 
Photo: Flickr

नकली दवाओं का कारोबार दुनिया भर में तेजी से फल-फूल रहा है। अनुमान है कि इसके चलते हर साल फार्मा इंडस्ट्री को करीब 10 फीसदी का नुकसान हो जाता है, जबकि इससे बढ़कर दुनिया भर में हजारों लोग नकली दवाओं के चलते काल के गाल में समां जाते हैं। अब शोधकर्ताओं ने इस समस्या से निपटने का एक और हल खोज निकाला है। उन्होंने एक उन्नत सुरक्षा टैग बनाने में सफलता हासिल की है, जिसे सीधे दवाई में लगा सकते हैं, और उसके साथ ही खाया जा सकता है। इस टैग का मकसद नकली दवाओं की बिक्री को रोकना है।

दुनिया भर में दवाओं की नकल एक ऐसी पहेली है, जिसे हल करना आसान नहीं है। सामान्यतः असली और नकली दवाओं में इतनी समानता होती है, जो आमतौर पर आंखों से दिखाई नहीं देती है। एसोचैम द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 25 फीसदी दवाएं नकली या फिर घटिया क्वालिटी की होती हैं। देश में नकली दवाओं का सबसे बड़ा केंद्र राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है, जिसमें दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद और नोएडा शामिल हैं।

अनुमान बताते हैं कि एनसीआर में बेची जाने वाली लगभग एक तिहाई दवाएं नकली होती हैं। नकली दवाओं के मामले में अमरीका की ड्रग एनफोर्समेंट एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जारी रिपोर्ट ने भी माना है कि अलग-अलग चिह्नों, रंगों, आकृतियों या पैकेजिंग के बावजूद भी दवाओं की नकल को रोकना आसान नहीं है। यह सुरक्षा टैग पर्ड्यू विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा बनाया गया है और इसके बारे में विस्तारित जानकारी अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में छपी है।

स्टोर की जा सकती हैं जानकारियां

दवाओं को टैग करना न केवल नकली दवा के खतरे से बचाएगा, बल्कि फार्मेसियों को दवा की वैधता को बेहतर ढंग से सत्यापित करने में भी मदद करेगा। पर्ड्यू के वेल्डन स्कूल ऑफ बायोमेडिकल इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर यंग किम ने बताया कि "हर टैग दूसरे से अलग होता है, जिस कारण से वो नकल को रोकने में अधिक कारगर साबित होता है।" यह टैग हर कैप्सूल या टैबलेट के लिए एक डिजिटल फिंगरप्रिंट के रूप में कार्य करता है।

यह दवाओं के प्रमाणन के लिए फिजिकल अनक्लोनाबल फंक्शन (जिसकी नकल न बन सके) तकनीक का प्रयोग करता है, जिसका विकास मूल रूप से इनफार्मेशन और हार्डवेयर सिक्योरिटी के लिए किया गया था। जब भी इसे चलाया जाता है, पीयूएफ हर बार में एक नया और अलग कोड निर्मित करता है। इस वजह से उसकी नकल तैयार नहीं कि जा सकती। यहां तक कि निर्माता भी हर बार समान टैग नहीं बना सकते।

किम और उनकी टीम ने पहली बार ऐसा पीयूएफ टैग बनाया है जिसे खाया जा सकता है। यह एक एक पतली पारदर्शी फिल्म के रूप में होता है। जिसे रेशम और फ्लोरोसेंट प्रोटीन से मिलकर बनाया गया है। चूंकि यह टैग आसानी से पचने योग्य है और पूरी तरह से प्रोटीन से बना है| इसे गोली या टैबलेट के एक हिस्से के रूप में खाया जा सकता है। टैग पर एलईडी प्रकाश डालने से फ्लोरोसेंट रेशम सक्रिय हो जाता है और उससे हर बार एक अलग पैटर्न उत्पन्न होता है। फिर एक सुरक्षा कुंजी को डिजिटल बिट्स के रूप में इन पैटर्नों में अंकित किया जा सकता है, जिसका उपयोग दवा की प्रमाणिकता जांचने के लिए केमिस्ट या रोगी द्वारा किया जा सकता है।

वर्तमान में शोधकर्ता इस प्रक्रिया को मोबाइल के जरिये पढ़ने योग्य बनाने कि कोशिश कर रहें हैं, जिससे मोबाइल की मदद से दवाओं के बारे में सही जानकारी प्राप्त की जा सके। पर्ड्यू विश्वविद्यालय के शोधकर्ता जुंग वो लीम ने बताया कि "टैग ने केवल दवा की प्रमाणिकता बताने में कारगर है बल्कि इसके साथ ही वो ड्रग क्या है, उसकी खुराक क्या और उसकी समाप्ति की तारीख क्या है। जैसी अहम जानकारी भी स्टोर करने में सक्षम है।"

लीम ने बताया है कि यह टैग कम से कम दो महीने तक काम करता है, जब तक प्रोटीन नष्ट नहीं होने लगता। शोधकर्ता अभी इस विषय पर भी काम कर रहें हैं कि यह टैग तब तक चल सके, जब तक दवा की एक्सपायरी डेट नहीं आती, जिससे दवा लम्बे समय तक सुरक्षित रह सके।

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