बेटियों के स्वास्थ्य और भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है नेपाल में बेटों की चाह

रिसर्च से पता चला है कि बेटे की चाह में नेपाली माएं अपनी नवजात बेटियों को जल्द स्तनपान कराना बंद कर देती हैं, जिससे उनकी बेटा पाने की इच्छा पूरी हो सके

By Lalit Maurya

On: Friday 27 May 2022
 

नेपाल में बेटों की चाह बेटियों के स्वास्थ्य और भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। इस बारे में लैंकेस्टर विश्वविद्यालय द्वारा किए अध्ययन से पता चला है कि बेटे की चाह में नेपाली माएं अपनी नवजात बेटियों को जल्द से जल्द स्तनपान कराना बंद कर देती हैं, जिससे उनकी बेटा पाने की इच्छा पूरी हो सके।

अध्ययन के मुताबिक लड़कों की तुलना में लड़कियों को औसतन कम महीनों तक स्तनपान कराया जाता है, जिसका सीधा असर उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है। इतना ही नहीं जिन बच्चियों की बड़ी बहन है, लेकिन कोई भाई नहीं उनकी स्थिति कहीं ज्यादा बदतर है। जर्नल बीएमसी न्यूट्रिशन में प्रकाशित इस शोध में यह भी सामने आया है कि नेपाली शिशुओं को जितनी कम अवधि तक अपनी मां का दूध मिलता है, उनमें मृत्यु का जोखिम उतना ज्यादा होता है।

शोध के मुताबिक बेटे की चाह स्तनपान की अवधि को प्रभावित कर सकती है क्योंकि अगर किसी महिला को बेटा नहीं हुआ है, तो वह लड़का होने की उम्मीद में फिर से गर्भ धारण करने के लिए कहीं ज्यादा दबाव महसूस करती है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक जो महिलाएं दूसरा बच्चा पानी चाहती हैं वो पहले बच्चे को स्तनपान कराना जल्द बंद कर सकती हैं। शोध से पता चला है कि नेपाल में लड़कों की तुलना में बच्चियों को औसतन कम अवधि तक स्तनपान कराया जाता है।

वहीं किसी बच्चे को कितनी अवधि तक मां का दूध मिल पाएगा यह न केवल उस बच्चे के लिंग पर निर्भर करता है साथ ही इसके लिए उसके बड़े भाई-बहनों का भी लिंग मायने रखता है। इतना ही नहीं जिन बच्चियों की बड़ी बहने थी उनको इसका कहीं ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ता है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने नेपाल में राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े आंकड़ों का उपयोग किया है जिन्हें हर पांच साल में एकत्र किया जाता है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह जानने का प्रयास किया है कि क्या मृत्युदर पर बच्चे के लिंग का भी प्रभाव पड़ता है और समय और स्थान के आधार पर यह अंतर कितना अलग है, इसपर भी प्रकाश डाला गया है।

शोध के मुताबिक पिछले 20 वर्षों में नेपाल में शिशु मृत्यु दर में सुधार आया है। हालांकि यह सुधार लड़कियों की तुलना में लड़कों में कहीं ज्यादा तेज था। मतलब कि यह तो सच है कि समय में आते बदलाव के साथ बच्चों में मृत्युदर के जोखिम में गिरावट आई है। लेकिन इस मामले में लड़कों और लड़कियों के बीच का अंतर भी कहीं ज्यादा बढ़ गया है। देखा जाए तो जिन शहरी इलाकों की आर्थिक स्थिति बेहतर है, वहां मृत्यु दर के मामले में  बच्चियों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है।

कब बदलेगी मानसिकता

देखा जाए तो जीवन के शुरूआती पांच वर्षों में बच्चों के लिए पोषण बहुत महत्वपूर्ण होता है, जो उनके जीवन और विकास का आधार होता है। ऐसे में शोधकर्ताओं ने यह भी जानने का प्रयास किया है कि क्या बच्चियों को शैशवावस्था और बचपन के प्रारंभिक वर्षों में पोषित आहार से वंचित किया गया था। यदि हां तो क्या इसकी वजह से उनके स्वास्थ्य और मृत्यु दर पर असर पड़ा था।   

इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने बच्चों को देने वाले आहार को 16 श्रेणियों में बांटकर यह जानने का प्रयास किया था कि उसकी खपत पर लिंक का प्रभाव पड़ा था। इतना ही नहीं क्या जन्म के शुरुआती घंटे में उनको मां का दूध मिला था और उन्हें कितने समय तक स्तनपान कराया गया था। इसके साथ ही क्या उनके आहार में पर्याप्त विविधता थी। शोध में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार आहार की खपत और विविधता के मामले में लिंग अंतर का कोई सबूत नहीं मिला है। हालांकि  स्तनपान की अवधि पर लिंग अंतर का असर देखा गया था।

शोध के मुताबिक पहले बच्चों में जिनके बड़े भाई-बहन नहीं थे उनको दूसरे बच्चों की तुलना में कम अवधि के लिए मां का दूध नसीब हुआ था। देखा जाए तो ज्यादातर नेपाली महिलाएं एक से ज्यादा बच्चा चाहती हैं। ऐसे में यदि उनकी पहली बेटी होती है तो वो बेटे की चाह में बच्चे का स्तनपान जल्द बंद कर देती हैं।

इतना ही नहीं जिन बच्चियों के बड़े भाई थे उनकी स्थिति कहीं ज्यादा बेहतर थी, जबकि जिन बच्चियों की केवल बहने थी उनकी स्थिति सबसे ज्यादा खराब थी। इसके साथ ही शोध में यह भी सामने आया है कि स्तनपान की अवधि सीधे तौर पर शिशुओं की मृत्युदर से सम्बंधित थी।

देखा जाए तो यह समस्या केवल नेपाल तक ही सीमित नहीं है। दक्षिण एशिया में आज भी भारत जैसे देशों में परिवार बेटों की चाह रखते हैं, जिसका खामियाजा बेटियों को भुगतना पड़ता है। भले ही हम विकास की कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें करते हों लेकिन आज भी इस मामले में लोगों की मानसिकता में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है।

कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में तो आज भी बेटों को कई मामलों में बेटियों से वरीयता दी जाती है। बेटों की चाह में कन्या भ्रूण हत्या के मामले भी सामने आते रहे हैं। इतना है नहीं बच्चियों के साथ शिक्षा और आहार के मामले में भी भेदभाव किया जाता है, जो उनके शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करता है।

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