इम्युनिटी के बारे में कितना जानते हैं आप?

हकीकत यह है कि हम प्रतिरक्षा (इम्युनिटी) के बारे में बेहद कम जानकारी रखते हैं और इसका सही आभास हमें अब जाकर हुआ है, जब हम एक वैश्विक महामारी की चपेट में हैं।

By Vibha Varshney

On: Wednesday 20 January 2021
 
इलास्त्रेशंस: रितिका बोहरा / सीएसई

प्रतिरक्षा यानी इम्युनिटी - आज के पहले यह शब्द जनमानस में कभी इतना लोकप्रिय नहीं हुआ है। कहते हैं कि पिछले एक वर्ष के दौरान पूरी दुनिया में नोवेल कोरोना विषाणु को हराने में सफल हुए करीब 2.8 करोड़ लोगों की कामयाबी के पीछे भी प्रतिरक्षा की अहम भूमिका है। यहां तक कि सरकारों ने लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था को वापस संभालने के लिए इस जादुई शब्द पर ही अपनी आशाओं को टिकाना शुरू कर दिया है। लेकिन “प्रतिरक्षा” के प्रति इस आस्था के कारण ही हाल के महीनों में इस शब्द का सबसे अधिक दुरुपयोग किया गया है।

भारत में लॉकडाउन की ढील के तुरंत बाद इमामी एग्रोटेक ने जुलाई, 2020 में ‘अब बनेगा हर निवाला, इम्युनिटी वाला’ टैगलाइन के साथ अपना हेल्दी एंड टेस्टी स्मार्ट बैलेंस ऑयल बाजार में पेश किया। कंपनी ने इन तथ्यों के आधार पर दावा किया कि उनके तेल में विटामिन ए, सी, डी, ई और ओमेगा 3 है जो कि प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत कर सकते हैं।

वहीं, सितंबर महीने में केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने सस्ते दर पर आम लोगों को दवा मुहैया कराने वाली योजना प्रधान मंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (पीएमबीजेपी ) के तहत आठ प्रतिरक्षा बढ़ाने वाले उत्पादों को लांच किया। कई तरह के विटामिन और सूक्ष्मपोषण (माइक्रोन्यूट्रिएंट्स) से युक्त यह आठों उत्पाद अब पूरे देश में पीएमबीजेपी स्टोर्स के माध्यम से बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। इस अवसर पर रसायन एवं उर्वरक मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने कहा, “कोविड -19 महामारी के मद्देनजर नए न्यूट्रासयूटिकल्स (पोषक तत्वों) को लॉन्च किया जाना महत्वपूर्ण है। ये उत्पाद लोगों की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करेंगे। ”

उपभोक्ता वस्तुओं वाली कंपनी हिंदुस्तान यूनिलीवर भी वर्ष 2016 से अपने साबुन ब्रांड लाइफबॉय के तहत रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने का दावा करने वाला हैंड सैनिटाइजर बेच रही है। उत्पाद को लेकर कंपनी का दावा है कि वह एक पेटेंट वाली तकनीक का उपयोग करके इसे तैयार करती है जो कि न केवल कीटाणुओं और विषाणुओं को मारता है, बल्कि ‘सूक्ष्म पेप्टाइड्स’ (छोटे प्रोटीन जो जीवाणु से लेकर कवक जैसे वृहत प्रजाति के सूक्ष्मजीवों के खिलाफ कार्य करते हैं) को बढ़ाकर त्वचा की जन्मजात प्रतिरक्षा को भी बढ़ाता है। भारत के दवा नियंत्रक महानिदेशक ने सितंबर, 2020 में हिंदुस्तान यूनिलीवर को फटकारा है और उनके दावे को “भ्रामक” करार दिया है। हालांकि, बाजार में गोलियों और आयुर्वेदिक फॉर्मूले से लेकर सुपरफूड्स और वेलनेस उत्पादों तक जैसी हर उस चीज की भरमार बनी हुई है जो महामारी के दौरान प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने का दावा करती है।

भारत में कोविड-19 के पहले मामले का पता चलने के बमुश्किल चार महीने बाद जून में, मुंबई स्थित प्रॉन्टो कन्सल्ट ने आठ शहरों में मेडिकल बिलों का विश्लेषण किया और पाया कि 92 प्रतिशत मेडिकल बिल प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले उत्पादों के लिए थे। प्रॉन्टो का कहना है कि ऐतिहासिक रूप से यह संख्या 40 फीसदी से नीचे रही है।

उद्योग के अनुमानों से पता चलता है कि प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने वाले खाद्य पदार्थों का वैश्विक बाजार 2019 के 16.31 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2023 में 24.02 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच सकता है। हालांकि जानकार इस प्रवृत्ति से खुश नहीं हैं ।

पुणे में स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च में विजिटिंग प्रोफेसर और इम्युनोलॉजिस्ट सत्यजीत रथ कहते हैं “किसी एक चीज को ‘प्रतिरक्षा’ नहीं कहा जा सकता और इस बात की परिकल्पना करना भी बेहद मुश्किल है कि इसे बढ़ाया जा सकता है।” यहां तक कि टीके भी एक विशेष संक्रमण के खिलाफ ही असरदार होते हैं। रथ कहते हैं “किसी भी साधारण स्वस्थ व्यक्ति में पोषण के माध्यम से प्रतिरोधक क्षमता में मजबूती आई हो , इस बात के साक्ष्य मैंने आजतक नहीं देखे हैं।”

वहीं, बंग्लुरू स्थित सेंटर फॉर इंफेक्शियस डिजीज रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के सहायक प्राध्यापक शशांक त्रिपाठी कहते हैं कि इस तरह के दावे करना गैर जिम्मेदाराना है और कानूनों के जरिए इनपर निगरानी रखी जानी चाहिए। उनका कहना है कि लोग इस तरह के दावों के कारण अति आत्मविश्वास का शिकार होकर यह सोच सकते हैं कि उनका प्रतिरक्षातंत्र यानी इम्यून सिस्टम मजबूत है और वह विषाणुओं से सुरक्षित हैं। यह सप्लीमेंट अधिक से अधिक आपके शरीर रूपी इंजन के पुर्जों को हल्की चिकनाई भर ही प्रदान कर सकते हैं ।

उनकी चिंताओं का कारण यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र एक अत्यंत जटिल जैविक प्रणाली है और भले ही वैज्ञानिकों ने सौ साल पहले ही इसकी कार्यप्रणाली को समझ लिया था लेकिन अब भी हमारी जानकारी इसके बारे में बहुत सीमित है । 1908 में फिजियोलॉजी अथवा मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार इल्या इल्यीच मेचनिकोव और पॉल एर्लिच को प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया अथवा इम्यून रिस्पॉन्स की बारीकियां समझाने में उनके योगदान के लिए दिया गया था।

किसी देश के सैन्य बलों की तरह प्रतिरोधक तंत्र का कार्य “अपने” और “पराए” के बीच पहचान करना और संक्रमण पैदा करने की संभावना रखने वाले जीवों को खत्म करके शरीर की रक्षा करना है। इस काम के लिए यह तंत्र पूरे शरीर में फैले विभिन्न अंगों, ऊतकों, कोशिकाओं और प्रोटीन पर निर्भर करता है और लगातार क्रियाशील रहता है। मोटे तौर पर प्रतिरोधक तंत्र अपनी दो शाखाओं के माध्यम से काम करता है: जन्मजात और अनुकूली।

जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली किसी भी आने वाले खतरे से बचाव की पहली पंक्ति है और यह त्वचा, वायुमार्ग और पाचन तंत्र की श्लेष्म परत जैसी शारीरिक बाधाओं के साथ मौजूद होते हैं। इसके अलावा श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक समूह भी एक निगरानी बल की तरह पूरे शरीर में पहरेदारी करता रहता है। वे लगातार बाहरी एंटीजेन की तलाश में रहते हैं, जो आमतौर पर हमलावर बैक्टीरिया या वायरस की सतह पर प्रोटीन के रूप में पाए जाते हैं। इन वीर सेनानियों की पंक्ति में फेगोसाइट्स भी शामिल हैं जो घुसपैठ की जानकारी मिलने के चंद मिनटों के अंदर ही रोगाणुओं को निगल लेते हैं ।

प्रतिरक्षा तंत्र और रोगाणुओं के बीच होने वाले इस युद्ध का सबसे आम लक्षण बुखार है। लेकिन मनुष्यों को होने वाले खतरनाक संक्रमणों के लिए जिम्मेदार अधिकांश रोगाणु खासकर म्यूटेट करने वाले और सूक्ष्म वायरसों ने जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचकर निकलने या उसके असर को कम करने के लिए नए तरीके विकसित कर लिए हैं । इसके अलावा कमजोर जन्मजात प्रतिक्रिया अक्सर बुजुर्गों या उन लोगों में देखी जाती है जो पहले से किसी बीमारी से पीड़ित हैं।



जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली ऐसे सभी मौकों के लिए अनुकूली प्रतिरक्षा प्रणाली को बुलावा भेजती है जो अपने बी कोशिकाओं और टी कोशिकाओं जैसे विशेष बलों के साथ रोगाणुओं से युद्ध करने के लिए प्रतिरक्षा में शामिल होती है। अगले कुछ दिनों में बी कोशिकाएं एंटीजन के लिए विशिष्ट इम्युनोग्लोबुलिन (आईजी) या एंटीबॉडी बनाती हैं। ये एंटीबॉडी रोगाणुओं के ऐन्टिजन के साथ जुड़कर उन्हें बेअसर कर देती हैं जिसके कारण विषाणु किसी मेजबान कोशिका से जुड़ने और प्रवेश करने की क्षमता खो बैठता है।

वहीं, वैसे रोगाणु जो पहले से ही मेजबान कोशिकाओं पर आक्रमण कर चुके हैं, उनके लिए टी कोशिकाएं कारगर होती हैं। इन टी कोशिकाओं को साइटोटॉक्सिक टी लिम्फोसाइट्स (सीडी8 + टी सेल्स) कहकर भी पुकारा जाता है। यह संक्रमित कोशिकाओं के भीतर जहां रोगाणु पल रहे होते हैं उनको सीधे नष्ट कर देती हैं। जबकि सीडी4 + टी कोशिकाएं जो कि टी कोशिकाओं की सहायक होती हैं वह रोगाणुओं के आगे के हमलों को नियंत्रित करती हैं। यह युद्ध समाप्त हो जाता है लेकिन कोशिकाएं सुरक्षा प्रदान करने के लिए आगे को तैयार रहती हैं।

कुछ बी और टी कोशिकाओं में स्मृति का विकास भी होता है जो दशकों अथवा व्यक्ति के पूरे जीवनकाल तक रह सकती हैं। यह लिंफेटिक ऑर्गन और ऊतकों के भीतर यानी स्पलीन अथवा थाइमस जैसे अंगों में सुरक्षित हो जाती हैं। ये संक्रमण को दुबारा होने से रोक तो नहीं सकतीं लेकिन उनकी स्मृति में हर वह रोगाणु रहता है जिसे उन्होंने कभी खत्म किया हो। जब कोई परिचित रोगाणु अगली बार शरीर पर हमला करता है तब वे बिना किसी देरी के और पहले से अधिक संख्याबल के साथ उसका सामना करती हैं और उसे पूरे शरीर में फैलने से रोकती हैं।

आईजीजी जैसे एंटीबॉडीज जब एक बार रक्त में पहचानने वाले हो जाते हैं तो शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का पलड़ा भारी हो जाता है। वहीं , आईजीजी जैसे एंटीबॉडीज का प्रसार रोगाणु के खात्मे के हफ्ते या महीने भर बाद भी रक्तप्रवाह में जारी रहता है।

किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रतिरोधक तंत्र की सारी कोशिकाएं पायी जाती हैं। लेकिन उनका प्रशिक्षण और विकास तभी संभव होता है जब वे किसी रोगाणुओं पर प्रतिक्रिया करते हैं। टीकाकरण इसी सिद्धांत पर काम करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति को नियंत्रित तरीके से रोगाणु अथवा एंटीजन के संपर्क में लाया जाता है ताकि वे बीमार न पड़ें। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप स्मृति कोशिकाएं उत्पन्न होती हैं जो रोगों से लड़ती हैं।

अमेरिका के ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी में स्थित लाइनस पॉउलिंग इंस्टीट्यूट के जैव रसायन और जैवभौतिकी विभाग में प्रोफेसर एड्रियन गोमबार्ट, का कहना है “तमाम प्रतिरक्षा कोशिकाओं के रक्त स्तर की जांच करके प्रतिरक्षा के कमजोर होने का पता लगाया जा सकता है लेकिन कोई चिकित्सक बेसलाइन मापों के आधार पर व्यक्ति के बीमार पड़ने से पहले यह नहीं बता सकता कि संक्रमण के दौरान उससे लड़ने के लिए किसकी प्रतिक्रिया सबसे बेहतर होगी।”

कितनी भी मात्रा में लिया जाने वाला पूरक आहार (सप्लीमेंट) कोशिकाओं को रोगाणुओं से लड़ने के लिए प्रशिक्षण नहीं दे सकता है। इसके ठीक उलट यदि अंधाधुंध सप्लीमेंट्स का सेवन किया गया है तो वह आपको बहुत बीमार बना सकता है।

इस विषय पर बाकी बातें बाद के हिस्से में होंगी। आइए अब इस बात का विश्लेषण करते हैं कि रोगाणु से मुठभेड़ होने के बाद किसी व्यक्ति पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है? क्या उस व्यक्ति को लम्बी अवधि की प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त हो जाती है ? इस बात को लेकर वैज्ञानिक कहते हैं कि जरूरी नहीं है ऐसा हो।

सबसे पहले, सर्दी-जुकाम फैलाने वाले कुछ रोगाणु मजबूत इम्यून रेस्पोंस पैदा नहीं कर पाते हैं जिसके कारण कोशिकाओं को अधिक कुछ याद नहीं रहता। इस वजह से हमें ऐसे संक्रमण बार- बार होते हैं। यहां तक कि ऐसे वायरस के खिलाफ टीके को प्रतिरक्षा बनाए रखने के लिए नियमित बूस्टर शॉट्स की आवश्यकता होती है। वायरस काफी तेजी से म्यूटेट भी करते हैं और ऐसे में कोशिकाओं की स्मृति कुछ ज्यादा काम नहीं करती। यहां तक कि एंटीबॉडी जो केवल प्रोटीन से बने होते हैं और समय के साथ कमजोर पड़ते हैं वह भी दीर्घकालिक प्रतिरक्षा की गारंटी नहीं देते हैं।

यही कारण है कि वर्तमान महामारी के दौरान आबादी में एंटीबॉडी की उपस्थिति का आकलन करने के लिए किये जा रहे सीरोसर्वे या सर्वेक्षण का उपयोग महामारी विज्ञान को समझने के लिए ही किया जाना चाहिए न कि किसी व्यक्ति में प्रतिरक्षा विकसित होने या फिर प्रतिरक्षा पासपोर्ट देकर आश्वस्त करने के लिए किया जाना चाहिए।

यही कारण है कि थेरेपी के रूप में एंटीबॉडी का उपयोग भी विश्वसनीयता के साथ नहीं किया जा सकता है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने हाल ही में कहा है कि कोविड -19 से संक्रमित रोगियों पर किया गया प्लाज्मा थेरेपी का अध्ययन संतोषजनक नहीं रहा है। इस प्रक्रिया से ठीक हो चुके रोगियों के शरीर से एंटीबॉडी लेकर तीव्र लक्षण वाले रोगियों को दिया जाता है ताकि वे संक्रमण से बेहतर तरीके से लड़ सकें। लेकिन यह देखा गया है कि इस प्रक्रिया ने कोई मदद नहीं किया है।



तो फिर क्या मददगार है ?

कोविड-19 ने प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पर इतनी शोध परियोजनाओं को जन्म दिया है जितना इससे पहले कभी नहीं हुआ। विरोधाभासी परिणाम हमें अब भी भ्रमित कर रहे हैं

आशा का स्रोत मुख्यतः बी और टी कोशिकाएं हैं जो दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं। पहले एक अच्छी खबर पर बात करते हैं। अगस्त, 2020 में स्वीडन के कैरोलिनस्का कोविड -19 स्टडी ग्रुप के शोधकर्ताओं ने जर्नल सेल में एक अध्ययन प्रकाशित किया। इस अध्ययन में स्वस्थ्य व्यक्तियों, उनके परिवारजनों और कोविड से पीड़ित व्यक्तियों के सार्स-सीओवी-2 से सम्बंधित टी सेल रिस्पांस नापे गए। उन्होंने पाया कि ये टी कोशिकाएं सीरोनेगेटिव परिवारजनों अथवा हलके कोविड के लक्षण वाले व्यक्तियों में भी मौजूद हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये सार्स-सीओवी-2 स्मृति टी कोशिकाएं कोविड -19 के खिलाफ दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान कर सकती हैं।

यह अप्रत्याशित है क्योंकि अन्य कोरोनावायरस के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता अल्पकालिक ही होती है - कुछ अनुमानों के अनुसार केवल एक वर्ष ृ तक ही। 29 जुलाई, 2020 को नेचर रिव्यू इम्यूनोलॉजी में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार अस्पताल में भर्ती कोविड -19 रोगियों में सीडी8 + और सीडी4 + टी- कोशिकाओं का बढ़ा हुआ स्तर भी पाया गया है। लेकिन यह सार्वभौमिक नहीं लगता है, और टी कोशिकाओं पर अत्यधिक निर्भरता की सलाह नहीं दी जाती है। सर्वेक्षणों से पता चला है कि इस बीमारी के बाद टी कोशिकाएं कमजोर पड़ जाती हैं और बची हुई टी कोशिकाएं अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाती हैं जिसके फलस्वरूप रोगियों को दूसरे संक्रमणों का खतरा लगा रहता है।

फ्रंटियर्स इन इम्युनोलॉजी नामक जर्नल में 5 मई को प्रकाशित एक अध्ययन की रिपोर्ट है कि गंभीर लक्षणों वाले कोविड -19 रोगियों में टी सेल की संख्या कम पायी गयी थी।

बहरहाल, यह समझ महत्वपूर्ण है क्योंकि यह बताता है कि हमें कोविड के मामले में श्वसन क्रिया पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, टी सेल काउंट और उनके कार्य पर आधारित उपचार करना बेहतर होगा। कम टी सेल काउंट वाले रोगियों को तुरंत उपचार मिलना चाहिए। शोधकर्ताओं ने यह भी कहा है कि कोविड -19 वायरस टी कोशिकाओं पर सीधे हमला नहीं करके साइटोकाईन तूफान को ट्रिगर करता है जिसके फलस्वरूप टी कोशिकाओं की संख्या में और भी कमी आती है।

इस खोज को अमेरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में चिकित्सा और स्वास्थ्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रोफेसर शिव पिल्लई द्वारा किये अनुसंधान का समर्थन मिला है। उनकी टीम ने पाया है कि साइटोकाईन के उच्च स्तर वाले कोविड -19 रोगियों में सार्स- सीओवी-2 के खिलाफ दीर्घकालिक प्रतिरक्षा विकसित होने की संभावना कम होती है। पिल्लई की टीम ने पाया कि मृत कोविड -19 रोगियों के प्लीहा और लिम्फ नोड्स में उन जर्मिनल केंद्रों की कमी दिखाई दी, जो दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। ये जर्मिनल केंद्र संक्रमण या टीकाकरण पर सक्रिय होते हैं और बी कोशिकाओं को स्मृति कोशिकाओं में बदलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

सेल जर्नल में 19 अगस्त, 2020 को प्रकाशित शोध से यह भी पता चलता है कि जर्मिनल केंद्रों के विकास के लिए आवश्यक सहायक टी कोशिकाएं गंभीर रूप से बीमार कोविड -19 रोगियों में अनुपस्थित हैं। पिल्लई कहते हैं “हमने जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी उसका कारण कोई ऐसा विषाणु होगा जिसे प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित नहीं किया जा सका था। हमें संदेह है कि इसी तरह की चीजें किसी भी गंभीर वायरल संक्रमण (जैसे इबोला या स्वाइन फ्लू जैसे किसी नए फ्लू ) के साथ होती हैं, लेकिन इन अन्य बीमारियों का पहले ठीक से अध्ययन नहीं किया गया है।” वे आगे कहते हैं “हमने जो भी सीखा है उसका इस्तेमाल ऐसे टीके बनाने के लिए किया जा सकता है जो बेहतर एवं दीर्घायु एंटीबाडी विकसित करें। इस दिशा में काम जारी है।” लेकिन यह सच है कि हर शोध केवल प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के आसपास के रहस्य को और ज्यादा गहरा ही करता है।

वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विज्ञान संस्थान के जैव रसायन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर राकेश सिंह कहते हैं “हम अपनी प्रतिरक्षा की कोशिकाओं और प्रणाली के बारे में बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन किसी बाहरी उद्दीपन के प्रति उनका व्यवहार कैसा होगा ये हम आज तक नहीं समझ पाए हैं। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली इस ग्रह पर की सबसे जटिल जैविक प्रणालियों में से एक है।

एक रोगाणु का मुकाबला करने के लिए लाखों कोशिकाएं एक साथ काम करती हैं। जरा सोचिए कि कितने समन्वय की आवश्यकता है। उनके समन्वय में एक छोटी सी चूक के परिणामस्वरूप आपदा हो सकती है, वह आगे कहते हैं “एक गैर-विशिष्ट प्रतिक्रिया की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि एक हमेशा बेहतरीन प्राकृतिक प्रणाली में भी सटीकता नहीं होती है।” राकेश सिंह का मतलब यह है कि किसी विशिष्ट रोगाणु या एंटीजन के लिए बनी प्रतिरक्षा कोशिका दूसरे रोगाणुओं के खिलाफ आंशिक सुरक्षा प्रदान कर सकती है। जब हमारी प्रतिरक्षा कोशिकाएं लगातार विभिन्न रोगजनकों के संपर्क में रहती हैं, तो वे “क्रॉस प्रोटेक्शन” की महत्वपूर्ण क्षमता हासिल कर सकती हैं। तपेदिक के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले बीसीजी (बेसिल कैलमेट-गुएरिन) वैक्सीन का उदाहरण लें।

इस मामले में प्रतिरक्षा कोशिकाएं विशिष्ट बैक्टीरिया अथवा एंटीजन के लिए तैयार होती हैं लेकिन उनमें अन्य रोगजनक एंटीजन से बचाने की क्षमता भी हो सकती है। इस बात के संकेत मिले हैं कि बीसीजी का टीका कोविड-19 के खिलाफ कारगर है। सिंह कहते हैं, “प्रतिरक्षा किसी रोगाणु के खिलाफ शरीर में विकसित हुई इम्यून रिस्पांस की गुणवत्ता पर निर्भर है।” वह आगे बताते हैं कि वर्तमान तकनीक की मदद से क्रॉस प्रोटेक्शन के लिए जरूरी इम्यून रिस्पांस की गुणवत्ता को निर्धारित कर पाना मुश्किल है लेकिन किसी खास रोगाणु से सम्बंधित स्मृति युक्त बी अथवा टी कोशिकाओं की संख्या नापने से कुछ मदद जरूर मिल सकती है।

यह इस तथ्य से पुष्ट होता है कि 2019 में वायरस की खोज से पहले एकत्र किए गए रक्त के नमूनों में 20 से 50 प्रतिशत में सार्स-सीओवी-2 प्रतिक्रियाशील सीडी 4 + टी कोशिकाएं पाई गई थीं। शोधकर्ताओं ने 4 अगस्त 2020 को साइंस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा कि इन नमूनों में पहले से मौजूद याद्दाश्त वाली सीडी4 + टी कोशिकाओं की एक श्रृंखला थी जो सार्स-सीओवी-2 और चार अन्य सामान्य सर्दी वाले कोरोनावायरस से प्रतिक्रिया करने में सक्षम थीं।

कुदरत बनाम परवरिश

प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पर छाई धुंध अब भी साफ नहीं है। क्या आपने कभी यह समझने की कोशिश की है कि कमजोर स्वास्थ्य प्रणाली, भीड़भाड़, गंदगी और गरीबी के बावजूद अफ्रीकी देशों में कोविड-19 के मामले कम क्यों हैं?

हाल ही में नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने इसका उत्तर खोजने की कोशिश की। उन्होंने रोगाणुओं के प्रारंभिक और व्यापक परीक्षण, लॉकडाउन की कठोरता, जनसांख्यिकी और पर्यावरणीय जोखिम के प्रभाव और बीमारी की बहुलता के बीच के सम्बन्ध का विश्लेषण किया। उनके अनुसार अफ्रीका में उम्मीद से कहीं कम संक्रमण इस वजह से है क्योंकि वहां के निवासी रोगाणुओं के संपर्क में रहते हैं।

साइंस पत्रिका के 7 अगस्त, 2020 के अंक के मुताबिक गैर-संचारी रोगों और कोविड -19 के बीच की कड़ी पर काफी बात हुई है लेकिन उसके विपरीत, इस पर बहुत कम शोध है कि संक्रामक रोग जैसे कि एचआईवी / एड्स, तपेदिक, और अन्य श्वसन संक्रमण या हेल्मिंथ के कारण होने वाले लोग संक्रमण कोविड -19 को किस प्रकार प्रभावित करते हैं।

इस पेपर के लेखकों ने कहा कि रोगाणुओं और परजीवियों का संपर्क प्रतिरक्षा प्रणाली को शिक्षित करता है कि वह रोगाणुओं के हमले को बचाए रखने के लिए न सिर्फ खास तरीके से बल्कि प्रशिक्षित प्रतिरक्षा के आधार पर गैर खास तरीके से भी काम करें। जिसमें सहज कोशिकाओं का दोबारा संयोजन भी शामिल है। वहीं, किसी रोगाणु के साथ दुबारा मुठभेड़ की सूरत में ये कोशिकाएं पहले से अधिक सशक्त प्रतिक्रिया अथवा “आभासी स्मृति” का प्रदर्शन करती हैं। इस प्रक्रिया में आभासी टी कोशिकाएं एंटीजन के माध्यम से हमला न करके साइटोकाइन की मदद लेती हैं। संभव है भारत में भी यही हो रहा हो।

सैन फ्रांसिस्को स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में इम्यूनोजेनेटिक्स एंड ट्रांसप्लांटेशन लेबोरेटरी के निदेशक राजलिंगम राजा कहते हैं “क्षय रोग, मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और कई अन्य रोगाणुओं से लड़ते रहने के कारण भारतीय जनता की रोग प्रतिरोधक क्षमता अन्य देशों की तुलना में बेहतर है। गर्म मौसम और मसालेदार, शाकाहारी भोजन का भी भारतीयों को इस संक्रमण से बचाने में अपना योगदान है।” लेकिन हर कोई इस सिद्धांत से सहमत नहीं है।

रथ मानते हैं कि देश में कोविड के मामलों में कमी का कारण इस बीमारी का देर से आना और इलाज की सुविधा में कमी भी हो सकता है। वे कहते हैं कि किसी ऐसी घटना जिसकी सत्यता स्थापित नहीं है उसके बारे में अनुमान करना सही नहीं है। त्रिपाठी आगे विस्तार से बताते हैं “ भारतीय रोगाणुओं के संपर्क में रहते हैं और इसलिए उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है, ऐसा कहना सही नहीं है। हम संक्रामक बीमारियों के मामले में शीर्ष देश हैं। हमारे यहां डेंगू, मलेरिया और तपेदिक के सर्वादिक मामले हैं । ऐसा नहीं लगता कि बहुत सारे रोगाणुओं के साथ रहना हमें संक्रमणों से बचा रहा है।”

यह हमें बताता है कि “हाइजीन हाइपोथीसिस” रोगाणुओं से शुरुआती और लम्बा संपर्क प्रतिरोधी कोशिकाओं को जागृत करता है और एक सशक्त इम्यून रिस्पांस देता है जो संक्रमण का मुकाबला करता है। पर यह व्याख्या नहीं कर सकता कि असल जीवन में कुछ व्यक्तियों का इम्यून रिस्पांस अन्य व्यक्तियों की तुलना में सशक्त क्यों है। पूरी दुनिया में इस विषय में शोध जारी है और इसका उत्तर लोगों की आनुवंशिक बनावट , जीवनशैली अथवा उनके आसपास के वातावरण पर निर्भर हो सकता है।

अध्ययनों से पता चलता है कि भारतीयों ने क्रम -विकास के दौरान कुछ ऐसे जीन प्राप्त कर लिए हैं जो उन्हें संक्रमण से बचाते हैं . राजा कहते हैं “जीनों के दो परिवार इस सुरक्षात्मक कार्य को अंजाम देते हैं, इनमें पहला है किलर आईजी लाइक रिसेप्टर (केआईआर) जीन और दूसरा ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन (एचएलए) जीन है ।

चीनी और काकेशियनों की तुलना में भारतीयों के पास अधिक केआईआर जीन हैं। ये जीन प्राकृतिक किलर कोशिकाओं को सक्षम करते हैं। आमतौर पर केआईआर जीन जन्मजात प्रतिरक्षा के हिस्से के रूप में वर्गीकृत होते हैं लेकिन ये अनुकूली प्रतिरक्षा की कोशिकाओं की तरह भी स्मृति प्रदर्शित करते हैं। स्पष्ट तौर पर कोविड -19 महामारी के मामले में भारतीय-विशिष्ट प्रतिरक्षा जीन बीमारी के प्रसार को कम रखने में भूमिका निभा रहे हैं।

वह बताते हैं कि जैसे-जैसे मनुष्य अफ्रीका से भारत की ओर बढे, पर्यावरण बदलता रहा और स्वयं को उसके अनुकूल ढालने के क्रम में उन्होंने नए जीन प्राप्त किये। तटीय क्षेत्रों में पहुंचे लोगों में ये जीन बने रहे क्योंकि वहां का वातावरण भी परिवर्तनशील था। दूसरी ओर वैसे लोग जो स्थिर पर्यावरण वाले चीन के मैदानी इलाकों मे पहुंचे उन्होंने इस जीन को गवां दिया। इसी तरह का लाभ अफ्रीकी मूल के लोगों में भी देखा जाता है।

सितंबर 2014 में, इम्म वार प्रोजेक्ट ने साइंस जर्नल में अपने प्रारंभिक निष्कर्ष प्रकाशित किये जो बताते हैं कि वंशावली टी सेल प्रतिक्रियाओं से कैसे प्रभावित होती है। वैज्ञानिकों ने अफ्रीकी, एशियाई या यूरोपीय वंश का प्रतिनिधित्व करने वाले 348 स्वस्थ स्वयंसेवकों के रक्त के नमूनों का विश्लेषण करके उनसे सीडी 4+ टी कोशिकाओं को अलग किया और उन्हें एंटीजन के प्रति प्रतिक्रिया के लिए सेल कल्चर में सक्रिय किया। फिर उन्होंने यह मापने के लिए कि प्रत्येक व्यक्ति से ली गयी कोशिकाओं में कौन से जीन चालू या बंद थे, कंप्यूटर आधारित विश्लेषण का उपयोग किया। उन्होंने पाया कि अफ्रीकी वंश के लोगों में कुछ जीनों की अधिक सक्रियता है। यह विशेष रूप से टी “हेल्पर 17” कोशिकाओं में देखा जो वायुमार्ग या आंतों के मार्ग में प्रवेश करने वाले रोगाणुओं से रक्षा करते हैं।

लेकिन अफ्रीका एवं अमेरिका में कोविड के प्रसार से यह साफ होता है कि केवल जीन इस बीमारी का सामना करने में सक्षम नहीं हैं। अमरीका में रहनेवाले अफ्रीकी इस बीमारी की चपेट में आये है जबकि अफ्रीकी इससे बचे हुए हैं। इस तरह के परिणामों से युक्त कोविड ह्यूमन जेनेटिक एफर्ट जोकि एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है जिसका उद्देश्य प्रतिरक्षा की जन्मजात त्रुटियों की खोज करना है, इस बीमारी में जीन की भूमिका को समझने के लिए दुनिया भर के सैकड़ों कोविड -19 रोगियों का अध्ययन करने की योजना बना रहा है।

यह काफी कठिनाई भरा हो सकता है क्योंकि कुछ निश्चित जीन्स के व्यवहार और पर्यावरणीय कारक व आहार रोगों को जाहिर करने में अहम भूमिका निभाते हैं। हालांकि आहार, जहरीले पदार्थों से संपर्क, नींद की कमी, तनाव, शारीरिक श्रम की कमी जैसे कारक इस तरह के व्यवहार को रेग्युलेट भी कर सकते हैं। मसलन जनवरी 2018 में सेल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार यह गौर किया गया है कि लंबी अवधि तक जंक फूड का सेवन चूहों की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के वंशानुगत रुप को बदल देता है। साथ ही आगे जाने वाले जीन्स में भी यह दिखाई देता है।

वहीं, ऐसे चूहे जिन्हें नमक, चीनी और वसा की अधिकता वाला पश्चिमी आहार खाने के लिए खानेवाले चूहों में जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली का हिस्सा माने जाने वाले ग्रैन्यूलोसाइट्स और मोनोसाइट्स जैसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या अधिक थी। जब चूहों ने फिर से कम वसा वाला आहार खाना शुरू किया तब उनकी सूजन का स्तर तो कम हो गया, लेकिन उनकी प्रतिरक्षा कोशिकाओं की आनुवंशिक मरम्मत जारी रही। इसे प्रशिक्षित जन्मजात प्रतिरक्षा कहा जाता है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पश्चिमी खान-पान वंशानुगत जानकारियों में बदलाव पैदा कर देता है। यानी वंशानुगत जानकारी वैसी नहीं रह जाती जैसी वह थी। आनुवंशिक सामग्री आम तौर पर प्रोटीन के चारों ओर लिपटी रहती है और कई जीन पहुंच के बिलकुल बाहर होते हैं। लेकिन खराब भोजन आनुवंशिक सामग्री के इन छिपे हुए टुकड़ों को खोल देता है और ये जीन उजागर हो जाते हैं, इसे एपिजेनेटिक परिवर्तन कहा जाता है। पिल्लई कहते हैं “सामान्य तौर पर, बहुत अधिक रिफाइंड और प्रोसेस्ड कार्बोहाइड्रेट व कुछ असंतृप्त वसा सूजन को बढ़ाने वाले( प्रो-इंफ्लेमेटरी) होते हैं और मोटापे का कारण बन सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जिनमें बीमारी की शुरुआत में साइटोकाइन के उच्च स्तर पाए गए हैं, उन्हें बीमारी से अधिक खतरा होता है। यह संभव है कि वायरस के उग्र हमले की सूरत में साइटोकाइन स्तर अत्यधिक बढ़ जाता हो।”

यह माना जाता है कि जीवनशैली से जुडी कई बीमारियों का मुख्य कारण कमजोर इम्यून सिस्टम होता है। यूके में कार्डियोलॉजिस्ट असीम मल्होत्रा अपनी हालिया पुस्तक “द 21-डे इम्यूनिटी प्लान” में लिखते हैं कि पेट में जमा अतिरिक्त वसा जिगर, अग्न्याशय और यहां तक कि त्वचा के चारों ओर फैली होती है और संक्रमण की दशा में सूजन के लिए जिम्मेदार साइटोकाईन छोडती है। वह कहते हैं कि अच्छे भोजन के सेवन से प्रतिरक्षा में सुधार करके चयापचय संबंधी विकारों का इलाज किया जा सकता है।

रेशों से समृद्ध आहार आंतों की माइक्रोबायोटा यानी सूक्ष्मजीवों के घर में पैदा होने वाले विकार में सुधार लाकर प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत कर सकता है। क्योंकि उच्च फाइबर वाला आहार छोटी श्रृंखला फैटी एसिड्स के उत्पादन को बढ़ाता है जो जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को उत्साहहीन बना सकता है और ऐसा देखा गया है कि बढ़ी हुई जन्मजात प्रतिरक्षा कई बार ऊतकों को नुकसान पहुंचा सकती है। जबकि यह भी पाया गया कि चूहों में अनुकूलित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को यह बढ़ाकर रोगाणुओं को खत्म करने में मददगार है।

यह अध्ययन 2019 में इम्युनिटी जर्नल में प्रकाशित हुआ था। जैविक प्रक्रिया पर आधारित अध्ययन बताता है कि प्रोसेस्ड साधारण चीनी सफेद रक्त कोशिकाओं को कम कर देती हैं और संभवतः रक्त में सूजन वाले साइटोकाइन मार्कर्स को बढ़ा देती हैं। जबकि फलों और सब्जियों में पाया जाने वाला जटिल कॉर्बोहाइड्रेट्स फाइबर न सिर्फ चूहों में बल्कि मनुष्यों में भी सूजन को कम कर देता है।

लेकिन सप्लीमेंट जिन्हें प्रतिरक्षा बूस्टर के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है वह अच्छे भोजन में शामिल नहीं हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि विटामिनों का अत्याधिक सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। जर्नल ऑफ ल्यूकोसाइट बायोलॉजी में 2015 में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि हालांकि विटामिन ए के सप्लीमेंट से स्वास्थ्य लाभ हो सकता है लेकिन ऐसी स्थिति में जब किसी को इसकी कमी हो। बहुत अधिक मात्रा में इसका सेवन शरीर की अनुकूली प्रतिरक्षा को कमजोर कर देता है और व्यक्ति को संक्रमणों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।

इस अध्ययन का हिस्सा रहे नीदरलैंड के निज्मेगेन में स्थित रेडबौड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मिहाई जी. नेटिया लिखते हैं “विटामिन ए का सप्लिमेंटेशन केवल स्पष्ट जैविक और चिकित्सकीय तर्क के साथ किया जाना चाहिए।” उसी समय जारी किए गए एक प्रेस नोट में जर्नल ऑफ ल्यूकोसाइट बायोलॉजी के डिप्टी एडिटर जॉन व्हेर्री ने कहा “पोषण और प्रतिरक्षा का इंटरफेस काफी महत्व का क्षेत्र है, विशेष रूप से आज जब आहार में सप्लीमेंट एवं विटामिन को शामिल करना आम बात है।” लेकिन प्रतिरक्षा पर भोजन का प्रभाव भी रैखिक नहीं है।

अमेरिका में ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी में लाइनस पॉलिंग इंस्टीट्यूट के जैव रसायन और जैव भौतिकी विभाग में प्रोफेसर एड्रियन गोम्बार्ट कहते हैं “कुछ खास विटामिनों की खुराक का संतुलित उपयोग प्रतिरक्षा प्रणाली की मदद करता है।” उदाहरण के लिए, विटामिन सी जन्मजात और अनुकूली प्रतिरक्षा प्रणाली, दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। यह सामान्य प्रकार की सफेद रक्त कोशिकाएं न्यूट्रोफिल की तरह छोटी जीवाणु कोशिकाओं को निगल लेने वाली भक्षक कोशिकाओं (फैगोसाइटिक सेल) में जमा होता है। और इसके कारण रसायनिक संकेतों की तरफ हलचल करने वाली कोशिकाओं की प्रक्रिया कीमोटैक्सिस, जीवाणु कोशिकाओं को खाने की प्रक्रिया (फैगोसाइटिस), ऑक्सीजनयुक्त रोगाणुओं के खात्मे वाली गतिविधि बढ़ जाती है जो आखिरकार रोगाणुओं का खात्मा कर देता है। यह ऊतक क्षति को कम करने के लिए प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से उत्पन्न पदार्थ को साफ करने में भी मदद करता है। यह बी और टी कोशिकाओं के विभेदीकरण और प्रसार को बढ़ाता है।

विटामिन डी मैक्रोफेज द्वारा जीन व्यवहार के लिए काफी अहम है और फागोसाइटोसिस के माध्यम से रोगाणुओं के खात्मे में भी शामिल रहता है। यह जीवाणुओं को मारने वाले रोगाणुरोधी पेप्टाइड्स के व्यवहार को भी प्रेरित करता है। इसके अलावा टी सेल प्रतिक्रियाओं को रेग्यूलेट करने और सूजन को कम करने के लिए भी यह महत्वपूर्ण है।

गोम्बर्ट कहते हैं- “हम जिसकी बात कर रहे हैं दरअसल जंक फूड में सूक्ष्म पोषक तत्वों का पर्याप्त स्तर नहीं होता है,” भोजन की तरह पर्यावरण में विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने से भी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, कीटनाशक के संपर्क में आने से टी कोशिकाओं का प्रसार कम हो सकता है और कोशिका मृत्यु बढ़ सकती है जो बदले में अनुकूली प्रतिरक्षा को कम करती है।

कीटनाशक नैचुरल किलर (एन के) कोशिकाओं की आपस में जुड़ सकने की क्षमता को कम करके जन्मजात प्रतिरक्षा को भी प्रभावित कर सकते हैं। मैक्रोफेज में कीटनाशक साइटोकाईन उत्पादन और फैगोसाइटोसिस को कम कर सकते हैं। कीटनाशकों और भारी धातुओं जैसे ट्रिगर को प्रबंधित करना बहुत आसान नहीं है।

अगस्त 2019 में एनवॉयरमेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय जर्नल के एक अध्ययन में कहा गया था कि प्रतिरक्षा प्रणाली पर विषाक्त पदार्थों के प्रभाव का भी अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि बच्चों के रक्त में सीसे की सांद्रता 1 और 5 माइक्रोग्राम प्रति डेसीलीटर के बीच होने पर खसरा रोधी का एंटीबॉडी स्तर 11 प्रतिशत कम था और टीकाकारण के बाद रक्त में सीसे की सांद्रता एक माइक्रोग्राम प्रति डेसीलीटर से कम मौजूदगी वाले बच्चों की तुलना में गलसुआ रोधी प्रतिरक्षा का स्तर 6 प्रतिशत कम था।

हर जगह मौजूद वायु प्रदूषक भी प्रतिरक्षा के लिए हानिकारक होते हैं क्योंकि वे प्रतिरक्षा सेल के कई वर्गों में सूजन फैलाने वाली प्रतिक्रियाओं को उकसाते हैं और कुछ तय टी हेल्पर कोशिकाओं को बढ़ा सकते हैं, जिससे एलर्जी और अस्थमा होता है जो अंगों को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

मई 2020 में फ्री रेडिकल बायोलॉजी एंड मेडिसिन में प्रकाशित एक पत्र के अनुसार वायु प्रदूषक भी एंटी वायरल प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को निष्क्रिय कर सकते हैं। इन विषाक्त पदार्थों का प्रतिकूल प्रभाव पीढ़ियों तक बना रह सकता है।

जन्मपूर्व आर्सेनिक की जद में आना और बाद में बचपन के श्वसन संक्रमण के बीच एक मजबूत संबंध प्रतीत होता है, साथ ही जन्मजात प्रतिरक्षा में परिवर्तन के फलस्वरूप आगे चलकर वयस्क जीवन में यह बीमारी मृत्यु का कारण भी बन सकती है। साफ वातावरण में जाने के बाद भी यह प्रभाव बरकरार रहता है, जैस चूहों पर किये एक परीक्षण से पता चला। ये चूहे गर्भाशय में 100 पीपीबी (पार्ट्स पर बिलियन) सोडियम आर्सेनाइट के संपर्क में थे, और वयस्क होने पर इन्हें एच 1 एन 1 से संक्रमित कराया गया। संक्रमण के बाद फेफड़े के ऊतकों और तरल पदार्थ के आकलन से पता चला कि आर्सेनिक के संपर्क में आये चूहों के फेफड़ों में क्षति और सूजन अधिक थी।

इसी तरह एक आम औद्योगिक प्रदूषक डाइऑक्सिन से मातृ संपर्क, जीन व्यवहार के कोशिकीय तंत्र को बदलकर बच्चे की प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है। ये परिवर्तन भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करते हैं।

ठीक इसी तरह शोधकर्ताओं ने गर्भवती चुहियों को एक औद्योगिक प्रदूषक डाइऑक्सिन के संपर्क में लाया गया। इससे पता चला कि वह उनके बच्चों के इम्यून प्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है। इतना ही नहीं कोशिकीय प्रणाली में कांट-छांट पीढ़ियों को भी जा सकती हैं। इस शोध में खुलासा हुआ कि गर्भवती चुहिए जो डाइऑक्सिन प्रदूषक के संपर्क में आई थीं और बाद में जब उन्हें इन्फ्लूएंजा ए वायरस से संक्रमित किया गया तो उनमें साइटोटॉक्सिक टी कोशिकाओं का उत्पादन और कार्य दोनों बिगड़े हुये थे।



यह गुत्थी सुलझाने का वक्त

प्रतिरक्षा प्रणाली के बारे में हमारी समझ अभी भी एक शुरूआती अवस्था में है। यदि हम इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो गति में तेजी लाने की आवश्यकता है

विज्ञान के क्षेत्र में रोजाना नयी खोजे होती हैं। उदाहरण के लिए यह देखा गया है कि टीकाकृत बच्चे कोविड -19 के प्रति अधिक प्रतिरोधी होते हैं। लेकिन यह प्रभाव उन बच्चों में अधिक स्पष्ट था, जिन्हें एडजुवेंट्स दिए गए थे (यह टीके में मिलाया जानेवाला एक फार्माकोलॉजिकल एजेंट होता है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाने के साथ उसे लम्बे समय तक बरकरार भी रखता है )। शोधकर्ता अब यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या बुजुर्गों में भी ऐसा ही प्रभाव देखा जा सकता है।

इसी तरह, ब्रिटेन के बर्मिंघम विश्वविद्यालय में कार्यात्मक प्रतिरक्षा के प्रोफेसर एडम कनिंघम और उनकी टीम ने पाया कि गर्भावस्था से पहले किसी बीमारी के संपर्क में आने वाली माताएं अपने दूध के माध्यम से अपने बच्चों तक स्थायी प्रतिरक्षा स्थानांतरित कर सकती है। 29 मई, 2019 को साइंस एडवांसेज पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन बच्चों को दीर्घकालीन सुरक्षा प्रदान करने वाली मातृत्व वैक्सीन रणनीतियों को डिजाइन करने में मदद कर सकता है।इस समझ से इम्युनोथेरेपी के इस्तेमाल में भी सहायता होगी। उन्होंने पहले से ही कैंसर और जोड़ों की गठिया जैसे ऑटोइम्यून रोगों के उपचार में इम्यूनोथेरैपी को उपयोगी पाया है।

कैंसर के मामले में प्रतिरक्षा प्रणाली को कैंसर की कोशिकाओं पर हमला करने के उग्र किया जाता है जबकि संधिशोथ के मामले में इसका स्तर कम किया जाता है ताकि इम्यून कोशिकाएं जोड़ों के उतकों पर हमला न करें। प्रतिरक्षा कोशिकाओं की बुनियादी समझ कोविड -19 के इलाज के लिए भी उपयोगी पाई गई है। सितंबर में अमेरिका के सिएटल में संक्रामक रोग अनुसंधान संस्थान ने आठ परीक्षण स्थलों पर एक सप्ताह में मध्यम कोविड -19 के लक्षणों वाले 14 रोगियों पर प्लेसेंटा-व्युत्पन्न प्राकृतिक किलर (एनके) कोशिकाओं का इस्तेमाल किया।

इसके बाद एक दूसरा चरण भी था जिससे प्राप्त परिणामों को एक अन्य कंट्रोल ग्रुप के परिणामों से मिलाया गया। यह उपचार कोविड - 19 के टीकों से अलग है। टीके जहाँ रोग से बचाते हैं वहीँ इन एन के कोशिकाओं का प्रयोग कोविड मरीजों के इलाज के लिए होगा। यह स्पष्ट है कि रोग प्रतिरोधक प्रणाली के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है। हम संतुलित एवं पौष्टिक भोजन और व्यायाम करके प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती प्रदान कर सकते हैं। इससे कई लाभ होंगे। जैसा कि त्रिपाठी बताते हैं, संतुलित आहार और नियमित व्यायाम न केवल कोविड -19 के खिलाफ, बल्कि सभी प्रकार के संचारी और गैर-संचारी रोगों के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है।

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