कोविड-19 महामारी : अब एक साल बाद एक सताई हुई पीढ़ी

कोरोना विषाणु से पैदा हुई एक वैश्विक महामारी ने कई अनदेखी महामारियों को जन्म दे दिया है। इसके प्रभाव हमें कई दशकों तक दिखाई देंगे। इस महामारी की सताई हुई पीढ़ी का भविष्य बेहद दुर्गम जान पड़ता है और जिसके बदले हमें भी आंसू बहाने होंगे

By Richard Mahapatra, Anil Ashwani Sharma, Vivek Mishra

On: Friday 01 January 2021
 
फोटो : पारुल शर्मा

भारत ने 1 जनवरी, 2020 को उम्मीदों और आकांक्षाओं के अलावा एक अन्य वजह के साथ नए साल का स्वागत किया था। इसने इस दिन दुनिया में सबसे अधिक जन्म लेने वाले बच्चों का वैश्विक खिताब अपने नाम किया। इस दिन दुनिया में जन्मे कुल 400,000 बच्चों में से 67,385 भारत में पैदा हुए थे। बच्चों और स्वास्थ्य की तरफ ध्यान खींचने के लिए संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) हर साल इस दिन का यह औपचारिक आंकड़ा जारी करता है। उस दिन यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक, हेनरीएटा फोर ने मीडिया को बताया “एक नए साल और एक नए दशक की शुरुआत न केवल हमारे भविष्य के लिए हमारी उम्मीदों और आकांक्षाओं को, बल्कि हमारे बाद आने वालों के भविष्य को प्रतिबिंबित करने का भी मौका होती हैं।” किसी घटना के होने के बाद उपजी समझदारी में यह सामान्य सा संदेश भविष्य में घटने वाली चीजों की पूर्व चेतावनी के रूप में पढ़ा जा सकता है।

अतीत में झांके तो 31 दिसंबर, 2019 से ठीक एक दिन पहले चीन ने वुहान प्रांत में कोरोनो वायरस संक्रमण का पहला मामला दर्ज किया था। इसका कोई औपचारिक नाम नहीं था और ज्यादातर लोगों ने इसे नोवेल कोरोना वायरस या 2019-एनओसीवी नाम दिया था। चीन की अति संरक्षित शासन के बीच से छिट-पुट मामले ही रिसकर बाहर आ पाए थे। 30 जनवरी, 2020 को भारत ने इस बीमारी का पहला मामला सामने आया। 11 फरवरी, 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे नोवेल कोरोना वायरस से होने वाली बीमारी का औपचारिक नाम दिया, जो कुछ ही हफ्ते में तेजी से फैलने वाली महामारी बन गई। हमने पहली बार इसका डरावना नाम सुना : कोविड-19– जिसमें ‘को’का मतलब कोरोना, ‘वि’का मतलब वायरस और ‘डी’का आशय बीमारी के लिए व ‘19’ का प्रयोग 2019 के लिए है।

भारत में दिसंबर 31, 2020 तक 2.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे जन्म ले चुके होंगे। यानी एक पूरी पीढ़ी ने सदी की सबसे लंबी महामारी के दौरान जन्म ले लिया। जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इनकी याददाश्त में महामारी एक निर्णायक मिसाल के तौर पर होगी। और महामारी का सामना करने वाली मौजूदा पीढ़ी के रूप में 0-14 वर्ष आयु वर्ग के 35 करोड़ से ज्यादा बच्चे इसके अलग-अलग तरह के असर को अपनी जिंदगी तक ढोएंगे। इस अभूतपूर्व संकट में महामारी ने हमारे अस्तित्व के सभी पहलू पर असर डाला है; हर कोई भविष्य को ज्यादा अनिश्चितता के साथ देखने लगा है। इसने अक्सर न पूछे जाने वाले असामान्य सवालों को जन्म दिया है। मसलन, महामारी के दौरान जिस नई पीढ़ी ने जन्म लिया है, वह इसे कैसे याद करेगी? प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट कहती है कि “किसी व्यक्ति की आयु उसके स्वभाव और व्यवहार में अंतर का पूर्वानुमान करने वाले सबसे आम उपायों में से एक हैं।” भले ही, 15-25 वर्षों के अंतर पर पैदा होने वाले समूह को “पीढ़ी” मानने की एक सामान्य परिभाषा है, लेकिन हम किसी बड़ी घटना या गतिविधि के संदर्भ के साथ भी किसी एक पीढ़ी की पहचान करते हैं। उदाहरण के लिए, हम भारत में 1991 के बाद जन्म लेने वालों को पीढ़ी कहते हैं, क्योंकि इस साल को “मुक्त बाजार” के लिए पहचाना जाता है, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया था।



इसलिए, हम नवजात शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों को ‘महामारी की पीढ़ी’ कह सकते हैं। जाने या अनजाने में, यह पीढ़ी महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित रही है। यूनिसेफ का अनुमान है कि 91 फीसदी बच्चों ने अपने स्कूल के समय में बदलाव का सामना किया, जिसका उनकी पढ़ाई पर असर पड़ा। भारत के मामले में इसका एक मतलब यह भी था कि अधिकांश बच्चों को स्कूल की कैंटीन में मिलने वाला मिड-डे-मील और आंगनबाड़ी का खाना नहीं मिला, जिसे सही पोषण सुनिश्चित करने के लिए सरकार की ओर से चलाया जाता है। वैश्विक स्तर पर, यूनिसेफ के आंकड़े के अनुसार, लगभग 11.9 करोड़ बच्चों को महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सुविधा और यहां तक कि जीवन-रक्षक टीकाकरण तक नहीं मिल सका। गैर-लाभकारी संगठन सेव द चिल्ड्रन के अलग-अलग सर्वेक्षणों से सामने आया कि सर्वेक्षण में शामिल 50 प्रतिशत बच्चों ने “चिंतित”,और उनमें से एक तिहाई बच्चों ने “भय” महसूस होने की जानकारी दी। ये दोनों ही बातें उलझन और सब कुछ सुखद होने में कमी का इशारा देती हैं। इस पीढ़ी का महत्व इस तथ्य से उभरता है कि 2040 तक वे भारत जैसे देश की कुल कामकाजी आबादी का लगभग 46 प्रतिशत हिस्सा होंगे।

हमारी दुनिया में फैली विकास की असमानता के बावजूद, महामारी में पैदा हुई पीढ़ी पहले से कहीं अधिक सेहतमंद और समृद्ध दुनिया आई है। हमारे विपरीत, अभी-अभी पैदा हुई नई पीढ़ी को यह याद नहीं रहेगा कि इस पैमाने की महामारी को सहने के लिए इसने हमसे क्या कुछ छीन लिया। क्या इसका यह मतलब है कि वे एक सामान्य पीढ़ी होगी, जो महामारी के बारे में इतिहास की किताबों में पढ़ेगी? हमारी तरह जिन्होंने 1918-20 के स्पैनिश फ्लू महामारी के बारे में किताबों में पढ़ा है? इस जवाब को पाने की कोशिश करने से पहले, यहां पर पुरानी महामारियों या ऐसे ही संकटों के कुछ ऐतिहासिक विवरणों को देखना चाहिए। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि 1918 की महामारी के दौरान पैदा हुए या गर्भ में रहे बच्चों को वयस्क के रूप में कम शिक्षा मिली और वे गरीब भी रहे।

2008 की आर्थिक मंदी के दौरान गर्भवती माताओं, खास तौर पर गरीब परिवारों में, ने कम वजन के शिशुओं को जन्म दिया। 1998 में, एल नीनो के चलते इक्वाडोर में विनाशकारी बाढ़ आई । इस दौरान यहां पैदा हुए बच्चे कम वजन वाले थे और उनमें बौनेपन की समस्या 5-7 साल तक जारी रही। संकट जैसी इन सभी घटनाओं के बाद पड़े प्रभावों में एक बात आम है कि माली हालत खराब होने से विभिन्न तरह के दुष्प्रभाव बढ़ जाते हैं। इसलिए, उपरोक्त प्रश्न का जबाव डराने वाला है। और हमारे पास इसके शुरुआती संकेत मौजूद हैं कि इस सदी की महामारी में जन्मी पीढ़ी की हालत पिछली महामारी में जन्मी पीढ़ी के मुकाबले अलग नहीं होगी। हाल ही में जारी विश्व बैंक की ओर से तैयार किया गया दुनिया का मानव पूंजी सूचकांक (एचसीआई) बताता है कि महामारी में जन्म लेने वाली पीढ़ी इससे सबसे ज्यादा पीड़ित होगी। 2040 में वयस्क होने वाली पीढ़ी कम लंबाई की होगी; मानव पूंजी के मामले में पीछे रहेगी और दुनिया के लिए सबसे कठिन विकास चुनौती भी हो सकती है। एचसीआई में “मानव पूंजी का आकलन होता है जो आज जन्म लेने वाला एक बच्चा अपने 18वें जन्मदिन तक पाने की उम्मीद कर सकता है।” इसमें अब नवजात शिशु के स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार और इससे उसकी भविष्य की उत्पादकता कैसे प्रभावित होगी यह शामिल है।

कोविड-19 पिछली महामारियों की तरह किसी बच्चे या गर्भवती मां की सेहत को प्रभावित नहीं करेगी। लेकिन, महामारी के आर्थिक प्रभाव इस पीढ़ी को तबाह करने वाले होंगे, जिनमें मां के गर्भ में मौजूद बच्चे भी शामिल हैं। इसकी सबसे सरल वजह है कि एक गरीब परिवार स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा पर ज्यादा खर्च नहीं कर पाएगा। बाल मृत्यु दर ऊंची होगी और जो जीवित बच जाएंगे, उनमें बौनेपन की समस्या होगी। इसके अलावा, व्यवस्था बिगड़ने से लाखों बच्चों और गर्भवती माताओं को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल रहीं। एचसीआई के अनुमानों के मुताबिक, कम और मध्यम आय वाले 118 देशों में बाल मृत्यु दर 45 फीसदी बढ़ जाएगी। विश्लेषण से साफ है कि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फीसदी बढ़ोतरी बाल मृत्यु दर में 4.5 फीसदी गिरावट लाती है। अलग-अलग अनुमानों को देखते हुए साफ है कि अधिकांश देश महामारी की वजह से जीडीपी में बड़ी गिरावट का सामना करने जा रहे हैं। यह इशारा करता है कि बाल मृत्यु दर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

अक्टूबर, 2020 में संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों ने दुनिया भर में मृत बच्चों का जन्म (स्टिलबर्थ्स) - ऐसे बच्चे का जन्म, जिसमें 28 सप्ताह या इससे ज्यादा की गर्भावस्था पर जीवन का कोई संकेत नहीं है- का संयुक्त अनुमान जारी किया। 2019 में दुनिया भर में कुल 19 लाख मृत बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से 3.4 लाख बच्चे भारत में जन्मे थे, जो इस तरह के बोझ के मामले में भारत को सबसे बड़ा देश बना देता है। भारत ने ऊंची संख्या के बावजूद मृत बच्चों के जन्म में कमी लाने में महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है। लेकिन साझा रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि कोविड-19 महामारी भारत समेत पूरी दुनिया में मृत बच्चों के जन्म की संख्या बढ़ा सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में आई दिक्कतों के कारण महामारी महज 12 महीनों के भीतर (2020-21 के दौरान) निम्न और मध्यम आय वाले 117 देशों में 200,000 से ज्यादा मृत बच्चों के जन्म का कारण बन जाएगी।

यह ऐसे वक्त में है, जब दुनिया ने कुपोषण और गरीबी को घटाने के लिए बहुत कुछ किया है। नये सूचकांक ने स्पष्ट रूप से इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि भले ही महामारी एक अस्थायी झटका हो, फिर भी यह अपने पीछे नई पीढ़ी के बच्चों पर कमजोर करने वाले प्रभावों को छोड़ने जा रही है।

जुलाई, 2020 में ग्लोबल हेल्थ साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि कोविड-19 को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से पैदा खाद्य के झटके भारत में कुपोषण का बोझ बढ़ा सकते हैं। यह अध्ययन भरपूर आहार नहीं मिलने के कारण वजन घटने के नतीजों पर आधारित है। वजन में पांच फीसदी का नुकसान होने की स्थिति में, भारत कम वजन के 4,393,178 और अति दुर्बलता (वास्टिंग) के 5,140,396 अतिरिक्त मामलों का सामना करेगा। अध्ययन के मुताबिक, गंभीर रूप से कम वजन और अति दुर्बलता के मामले भी बढ़ने का अनुमान है। अध्ययन में कहा गया है कि बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे और कम वजन और अतिदुर्बलता के अतिरिक्त मामलों में गरीब परिवारों की हिस्सा सबसे ज्यादा होगा।

जिसने अभी-अभी जन्म लिया है, इस पीढ़ी के लिए दुनिया के गंभीर होने का यही वक्त है। हम पहले से ही विकास की कमी से जूझ रही अपनी वंचित पीढ़ियों में और इजाफा नहीं कर सकते।

सौजन्य : वर्ल्ड फूड प्रोग्राम

गैर-बराबरी और महामारी

हर सभ्यताओं ने अपनी बीमारियों और महामारियों को जन्म दिया है, यह चर्चित कथन दिवंगत माइक्रोबायोलॉजिस्ट और पर्यावरणविद् रेने डुबोस का है। जो शायद कोरोना विषाणु की इस वैश्विक महामारी के वक्त ज्यादा ध्यान देने लायक बन गया है। यह महामारी हमारे लिए क्या लेकर आएगी, एक शब्द में कहें तो गैर-बराबरी, जिसे अब चर्चित तौर पर “असमानता की महामारी” के रूप में उल्लेख किया जा रहा है। महामारी पर वैश्विक बातचीत दरअसल भूख, गरीबी और असमानता के प्रभावों के इर्द-गिर्द ही घूमती है, जिसने इस दुनिया को फिसलाकर एक बार फिर उसी जगह पर पहुंचा दिया है, जहां से इसने विभिन्न वैश्विक लक्ष्यों जैसे कि सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स ) और सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के बारे में बातें करनी शुरू की थी। अनुमान और विश्लेषण बताता है कि महामारी ने चाहे विकसित हों या फिर विकासशील देश दोनों ही जगह पहले से ही गरीब लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। 2020 नेल्सन मंडेला वार्षिक व्याख्यान में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा “कोविड-19 महामारी ने बढ़ती असमानताओं को उजागर करने में अहम भूमिका निभाई है। इसने इस मिथक की कलई खोल दी है कि सभी लोग एक ही कश्ती में सवार हैं। जब हम सभी एक ही समुद्र में तैर रहे हैं, तो यह भी स्पष्ट है कि कुछ लोग सुविधा संपन्न पाल नौकाओं में हैं, जबकि अन्य समुद्र में तैरते मलबे से चिपके हैं।” उन्होंने जोर देकर कहा कि दुनिया ने बहुत लंबे समय तक गैर-बराबरी को नजरअंदाज किया है, महामारी के दौरान गरीबों को आगे और अधिक जोखिम में डाल दिया है।

ऐसा नहीं है कि दुनिया ने केवल महामारी के चलते आई मंदी को पहली बार देखा है, बल्कि 1870 के बाद “प्रति व्यक्ति आय में सबसे तेज गिरावट” भी देखी है। निश्चित तौर पर वैश्विक आर्थिक गिरावट का असर बहुत तेजी से रिसकर गरीबों तक पहुंचा है। दुनिया भर में फैले एक गैर-लाभकारी संगठन ऑक्सफैम ने अनुमान लगाया है कि महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, खाद्य उत्पादन और आपूर्ति बाधित होने की वजह के 12.1 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर आ गए हैं। ऑक्सफैम ने घोषित किया कि “कोविड संबंधी भूख के चलते रोजाना 12,000 लोग मर सकते हैं।” विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्लूएफपी) के कार्यकारी निदेशक डेविड बेस्ले ने कहा, “कोरोनो वायरस के खिलाफ लड़ाई का अग्रिम मोर्चा अमीर दुनिया से खिसकर गरीब दुनिया की तरफ जा रहा है।” एक संवाददाता सम्मेलन में बेस्ले ने ऐलान किया कि वैश्विक संस्था लाखों लोगों तक भोजन पहुंचाने के लिए अपना अब तक का सबसे बड़ा मानवीय अभियान चला रही है।

डब्लूएफपी ने 2019 में 9.7 करोड़ लोगों की मदद की, जो उस वक्त रिकॉर्ड था। जुलाई 2020 तक, इसने 13.8 करोड़ लोगों की मदद की। जो लोग पहले से ही किसी तरह जिंदगी गुजार करहे थे या बाहर से आने वाली मदद पर जीवित थे, उनके बीच महामारी के कारण भूख का एक गंभीर संकट पैदा हो गया है। डब्लूएफपी के अनुसार, यह कार्यक्रम जिन देशों में चलाया जाता है, उनमें 2020 तक भूख के शिकार लोगों की संख्या बढ़कर 27 करोड़ पहुंच जाएगी। यह महामारी के तुरंत पहले के स्तर की तुलना में 82 फीसदी की बढ़ोतरी होगी।

हालांकि, भूख का भूगोल पहले जैसा ही है। कोविड-19 महामारी ने उन क्षेत्रों को प्रभावित किया जो पहले से ही सख्त संकट में घिरे थे। पश्चिम और मध्य अफ्रीका में भूख में बहुत स्पष्ट उछाल देखा गया, जिन्होंने खाद्यान्न के मामले में असुरक्षित आबादी में 135 फीसदी, और दक्षिणी अफ्रीका ने 90 फीसदी का उछाल देखा । इसी भौगोलिक इलाके ने जलवायु परिवर्तन, टकराव और विकास सहायता की कमी के प्रकोपों का भी सामना किया। (कोविड-19 से पहले) पिछले चार वर्षों में, खाद्यान्न के लिहाज से गंभीर रूप से असुरक्षित आबादी में 70 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। पहले, ये लोग “खाद्य असुरक्षा के गंभीर स्तर” में गिने नहीं जाते थे या उससे बच जाते थे। लेकिन वे एक बार फिर से गैर-आनुपातिक मात्रा में पीड़ित बन गए। बेस्ले ने कहा, “जब तक हमारे पास एक चिकित्सकीय टीका नहीं आ जाता, उस दिन तक भोजन ही इस अफरा-तफरी के खिलाफ सबसे अच्छा टीका है। इसके बगैर सामाजिक अशांति और विरोध-प्रदर्शनों में बढ़ोतरी, ऊंचा प्रवासन, गहरे संघर्ष और पहले भूख से सुरक्षित रही आबादी के बीच कुपोषण में बढ़ोतरी देख सकते हैं।”

वर्ष 1990 के बाद यह पहला मौका था, जब दुनिया भर में मानव विकास आकलन की अवधारणा को अपनाया गया कि 2020 में मानव विकास का पैमाना घट जाएगा। गैर-बराबरी ने पहले से गरीब और वंचित तबके को स्थिति में किसी भी सुधार के लाभ से बाहर कर दिया है। उदाहरण के लिए, पूर्वानुमान के अनुसार, 2021 में आर्थिक सुधार गरीबों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डाल पाएंगे। समय के साथ, आर्थिक विकास की वजह से देशों के बीच आय की असमानता में घटी है। लेकिन वास्तविक तौर पर, 1990 के बाद देशों में आंतरिक स्तर पर आय की असमानता -गिनी गुणांक (संपत्ति का वितरण मापने का सांख्कीय उपाय) में चार फीसदी- तक बढ़ोतरी हुई है। वैश्विक स्तर असमानता में इस बढ़ोतरी का अगुवा चीन, भारत, इंडोनेशिया और अमेरिका में बढ़ती गैर-बराबरी थी। खाद्य और कृषि संगठन के आकलन से पता चला है कि कोविड-19 के कारण सभी देशों की गिनी में 2 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। इस मामले में, गरीबों की संख्या में 35-65 प्रतिशत की अतिरिक्त बढ़ोतरी हो जाएगी। अकेले भारत में, महामारी के प्रभावों के कारण लगभग 40 करोड़ लोग गरीबी की चपेट में आ जाएंगे। और इनमें से ज्यादातर लोग असंगठित क्षेत्रों के मजदूर हैं। यह एक बार फिर से दिखाता है कि महामारी के प्रभावों में किस कदर की विषमता मौजूद है।



कर्ज, विकासशील देश और महामारी

कोरोना महामारी से पस्त दुनिया खास तौर पर विकासशील देश कर्ज के बढ़ते बोझ और उसे समय से न चुका पाने की कमी के साथ आर्थिक मंदी जैसे खतरनाक हालातों करने की चुनौती वर्ष 2021 में खड़ी है। ऐसे असमंजस वाले आर्थिक हालात उभरे हैं जो शायद पहले कभी नहीं देखे गए। दुनिया के कई देशों पर कोविड-19 महामारी के पहले से ही कर्ज का भारी-भरकम बोझ था और तिस पर महामारी ने एक आपातस्थिति पैदा कर दी है। इस परिस्थिति ने सभी उपलब्ध अहम संसाधनों को दूसरी तरफ मोड़ दिया है। सिर्फ दो ही विकल्प बचे हैं: कर्ज को जारी रखना- जिसका मतलब है कि स्वास्थ्य की आपातकाल स्थिति से लड़ने के लिए पर्याप्त रूप से कम खर्च करना, या कर्ज न चुकाना।

दोनों ही संभव नहीं है। लेकिन कर्ज की अदायगी को अगर अस्थायी तौर पर रोक दिया जाए तो बाद वाले में बेहतर अवसर हैं । इस बाद वाले विकल्प को लेकर खासी चर्चा है, जिसे अक्सर “वैश्विक कर्ज समझौता” कहा जाता है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसे बहुपक्षीय विकास वित्तपोषण संस्थानों से शुरू होकर संयुक्त राष्ट्र और विकसित व विकासशील दोनों देशों के मंचों तक, कर्ज चुकाने को अस्थायी रूप से रोकने की मांग जोर पकड़ रही है। विकासशील और गरीब देशों के हिस्से में दुनिया की 70 फीसदी आबादी और 33 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) आता है। महामारी के कारण, पहली बार दुनिया भर में गरीबी बढ़ रही है। ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का एक पॉलिसी पेपर बताता है दुनिया भर में आर्थिक संकट के कारण विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था के लिए 2020 में बाहरी निजी पूंजी की उपलब्धता 2019 के स्तर के मुकाबले 700 अरब डॉलर कम हो जाएगी। यह 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के तुरंत बाद दर्ज की गई कमी के मुकाबले लगभग 60 फीसदी ज्यादा है। ओईसीडी ने कहा, “इसने विकास के मोर्चे पर नुकसान होने का खतरा बढ़ा दिया है, जिसके नतीजे में यह भविष्य में महामारी, जलवायु परिवर्तन और दुनिया के अन्य सार्वजनिक खतरों के प्रति हमारा जोखिम बढ़ा देगा।”

व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (अंकटाड) और आईएमएफ ने अनुमान लगाया कि विकासशील देशों को अपनी आबादी की आर्थिक सहायता और सुविधा देते हुए महामारी और इसके उतार-चढ़ाव वाले प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल 2.5 खरब डॉलर की जरूरत है। पहले ही 100 देशों ने आईएमएफ से तत्काल आर्थिक सहायता देने की मांग की थी। अफ्रीकी वित्त मंत्रियों ने 100 अरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज देने की अपील की थी। अफ्रीकी देशों के लिए इसमें से 40 फीसदी से ज्यादा हिस्सा कर्ज राहत के रूप में था। उन्होंने अगले साल ब्याज के भुगतान पर भी रोक लगाने की मांग की थी। अंकटाड के महासचिव मुखीसा कितुयी ने कहा, “अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को कर्ज चुकाने के लिए विकासशील देशों पर बढ़ते वित्तीय दबाव को घटाने के लिए तत्काल और अधिक कदम उठाने चाहिए, क्योंकि वे कोविड-19 के आर्थिक उठा-पटक के शिकार हैं।”अंकटाड के एक अनुमान के मुताबिक, चालू वित्त वर्ष और 2021 में, विकासशील देशों को 2.6 खरब से लेकर 3.4 खरब डॉलर के बीच बाहर का सार्वजनिक कर्ज चुकाना होगा।

कोविड-19 महामारी की वजह से वित्तीय संकट एक ऐसे वक्त में आया, जब दुनिया पहले से ही भारी कर्ज में डूबी थी। 2018 में, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सार्वजनिक कर्ज उनकी सकल घरेलू उत्पाद के 51 फीसदी के बराबर था। 2016 के लिए उपलब्ध नए आंकड़ों के अनुसार, कम आय वाले देशों के पास अपने कर्ज का 55 फीसदी हिस्सा गैर-रियायती स्रोतों से था, जिसका अर्थ विश्व बैंक के लिए विशेष कर्ज विपरीत बाजार दर पर लिया गया कर्ज है। हाल के महीनों में कर्ज चुकाने को कुछ समय के लिए रोकने का एक सिलसिला बना है। 13 अप्रैल को, आईएमएफ ने 25 सबसे गरीब विकासशील देशों को अक्टूबर 2020 तक कर्ज न चुकाने की छूट दी। 15 अप्रैल को, जी 20 देशों ने सबसे गरीब देशों में से 73 को मई 2020 के अंत तक कर्ज न चुकाने की राहत दी। लेकिन ऐसी राहत – भले ही यह तत्काल मदद कर सकती है- अभी भी विकासशील देशों की महामारी से लड़ने का खर्च उठाने में मददगार नहीं होगी और इस प्रकार यह उन्हें शिक्षा और अन्य टीकाकरण कार्यक्रमों जैसे अन्य सामाजिक क्षेत्रों के वित्तीय संसाधनों को दूसरी जगहों पर लगाने के लिए मजबूर करेगा। अंकटाड के ग्लोबलाइजेशन डिवीजन, जो रिपोर्ट तैयार करती है, के निदेशक रिचर्ड कोजुल-राइट ने कहा, “अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए हालिया आवाजें सही दिशा में हैं। लेकिन यह अपील अभी तक विकासशील देशों के लिए बहुत थोड़ी मदद ही जुटा पाई है, क्योंकि वे महामारी के तत्काल प्रभावों और इसके आर्थिक नतीजों से निपटने में जुटे हुए हैं।”

अंकटाड ने भविष्य में सार्वभौमिक कर्ज के पुनर्गठन को निर्देशित करने के लिए एक ज्यादा स्थायी अंतरराष्ट्रीय ढांचे के लिए संस्थागत और नियामकीय नींव रखने और उसे लागू करने की निगरानी के लिए एक इंटरनेशनल डेवलपिंग कंट्री डेब्ट अथरिटी बनाने का सुझाव दिया था। यह ‘वैश्विक कर्ज समझौते’ का एक हिस्सा है, जिसका अब बहुत से लोग समर्थन कर रहे हैं। यूएन ने सुझाव दिया है कि “सभी विकासशील देशों के लिए सभी तरह की कर्ज सेवाओं (द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और वाणिज्यिक) पर पूरी तरह रोक होनी चाहिए। अत्यधिक कर्ज के बोझ वाले विकासशील देशों के लिए, संयुक्त राष्ट्र ने अतिरिक्त कर्ज राहत का सुझाव दिया, ताकि वे कर्ज चुकाने से न चूकें और उनके पास एसडीजी के तहत अन्य विकास आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संसाधन भी रहे। बिना अधिक कर्ज के बोझ वाले विकासशील देशों के लिए, इसने महामारी से लड़ने के लिए आपातकालीन उपायों के वित्त पोषण के लिए नये कर्ज की मांग की है।

अक्टूबर में, विश्व बैंक ने एक बार फिर खतरे की घंटी बजाई थी। बैंक की एक नई रिपोर्ट में कहा गया था कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों का ज्यादातर बाहरी कर्ज लंबे समय के लिए है और इसका बड़ा हिस्सा सरकारों और अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं पर बकाया है। गरीब देशों में लंबी अवधि के कर्ज में सरकारी और सरकार की गारंटी वाले कर्जदारों की जिम्मेदारी वाला हिस्सा 49 फीसदी तक बढ़ गया। 2019 में कम समय के कर्ज का हिस्सा गिरकर 16 फीसदी हो गया।

महामारी ने एक आपात स्थिति पैदा कर दी, जिसने सभी उपलब्ध संसाधनों की दिशा को मोड़ दिया। द लैंसेट कोविड-19 आयोग के एक बयान के मुताबिक, सरकार के सभी स्तर पर सरकारी राजस्व में भारी गिरावट देखी गई थी। आगे हालात और बिगड़ सकते हैं, खासकर विकासशील देशों के लिए क्योंकि उन्हें बढ़ती सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करना होगा और उन्हें ज्यादा मदद की जरूरत हो सकती है। यह विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड मलपास ने कहा, यहां तक कि जी-20 लेनदार देशों ने 73 सबसे कम विकसित देशों (एलडीसी) को जून 2021 के आगे कोविड-19 कर्ज राहत देने में उत्सुकता नहीं दिखाई। जी-20 लेनदारों ने अप्रैल में डेब्ट सर्विस सस्पेंशन इनिशिएटिव (डीएसएसआई) के तहत 73 सबसे कम विकसित (एलडीसी) देशों को आधिकारिक द्विपक्षीय कर्ज के भुगतान को साल 2020 के अंत तक निलंबित करने की मंजूरी दी थी। विश्व बैंक की ओर से 13 अक्टूबर को जारी अंतरराष्ट्रीय कर्ज सांख्यिकी-2021 के अनुसार, 2019 में एलडीसी पर कर्ज का बोझ 744 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।

वर्ष 2019 में डीएसएसआई योग्य देशों के कर्ज स्टॉक का 178 अरब डॉलर आधिकारिक द्विपक्षीय कर्जदाताओं, जिसमें ज्यादातर ज्यादातर जी-20 देश वाले शामिल हैं, को देय था। रिपोर्ट का कहना है कि इसका 63 फीसदी हिस्सा चीन को देय था। वहीं, कम आय वाले देशों की लंबी अवधि के कर्ज स्टॉक का 27 प्रतिशत था। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में इन देशों के लिए कर्ज जुटाने की रफ्तार अन्य निम्न और मध्यम आय वाले देशों के मुकाबले लगभग दोगुनी थी। 120 निम्न और मध्यम आय वाले देशों का कुल बाहरी कर्ज, जिसके आंकड़े अंतरराष्ट्रीय कर्ज सांख्यिकी 2021 में दिए गए थे, 2019 में 5.4 प्रतिशत बढ़कर 8.1 अरब डॉलर हो गया।

रिपोर्ट बताती है कि 2019 में उप-सहारा के अफ्रीकी देशों का बाहरी कर्ज स्टॉक का 9.4 फीसदी औसत के साथ सबसे तेजी से बढ़ा। क्षेत्र का कर्ज स्टॉक 2018 में लगभग 571 अरब डॉलर से बढ़कर 2019 में 625 अरब डॉलर से भी ज्यादा हो गया। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका समेत प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं और क्षेत्र के अन्य देनदारों के कर्ज स्टॉक में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी के चलते उप-सहारा अफ्रीका की कर्ज की स्थिति आगे और बिगड़ गई थी। दक्षिण अफ्रीका ने 2018 और 2019 के बीच कर्ज के बोझ में 8.7 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की। देश का कर्ज का बोझ 2018 में 173 अरब डॉलर से बढ़कर 2019 में 188.10 अरब डॉलर पहुंच गया। मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र में मिस्र सबसे बड़ा देनदार देश था, जहां कर्ज स्टॉक में औसतन 5.3 फीसदी की दर से वृद्धि हुई थी। दक्षिण एशिया ने कर्ज स्टॉक में 7.6 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की। इस क्षेत्र में बांग्लादेश (9.5 फीसदी) और पाकिस्तान (7.8 फीसदी) के बाद भारत ने कर्ज स्टॉक में छह फीसदी बढ़ोतरी की।

यदि जी-20 देशों मत्थे चढ़े हुए कर्ज में चीन की बढ़ती हिस्सेदारी को आंके तो 2013 में जहां इसकी हिस्सेदारी 45 फीसदी थी, वहीं 2019 के अंत में यह 63 फीसदी तक पहुंच गई।



कोविड-19 के बाद अगली महामारी

इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) ने एक असाधारण शोध पत्र में चेतावनी दी है कि नोवेल कोरोना वायरस रोग (कोविड-19) जैसी महामारी हमें बार-बार नुकसान पहुंचाएंगे और अब की तुलना में ज्यादा लोगों की जिंदगी छीनेंगे। आईपीबीईएस रिपोर्ट को दुनिया भर के 22 विशेषज्ञों ने तैयार किया है। रिपोर्ट में नई बीमारियों के उभरने के पीछे इंसानों की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भूमिका का विश्लेषण किया गया है।

अक्टूबर में जारी रिपोर्ट ने कहा, “जमीन के उपयोग में बदलाव वैश्विक स्तर पर महामारी के लिए अहम संचालक है और 1960 के बाद से 30 फीसदी से ज्यादा नए रोगों के उभरने की वजह भी है।” रिपोर्ट ने आगे कहा, “भले ही कोविड-19 की शुरुआत जानवरों पर रहने वाले रोगाणुओं से हुई है, सभी महामारियों की तरह, इसकी शुरुआत भी पूरी तरह से इंसानी गतिविधियों से प्रेरित रही है।” हम अभी तक 17 लाख विषाणुओं की ही पहचान कर सके हैं, जो स्तनधारियों और पक्षियों में मौजूद हैं। इनमें से 50 फीसदी विषाणु में इंसानों को संक्रमित करने के गुण या क्षमता मौजूद है। रिपोर्ट को जारी करने वाले इको हेल्थ एलायंस के अध्यक्ष और आईपीबीईएस वर्कशॉप के प्रमुख पीटर दासजैक ने कहा, “जो मानवीय गतिविधियां जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान को बढ़ाती हैं, वही हमारे पर्यावरण पर अपने प्रभावों के जरिए महामारी के जोखिम भी लाती हैं। जमीन को इस्तेमाल करने के हमारे तरीके में बदलाव, खेती का विस्तार और सघन होना और गैर-टिकाऊ कारोबार, उत्पादन और खपत प्रकृति में तोड़-फोड़ पैदा करते हैं और वन्य जीवों, मवेशियों, रोगाणुओं और लोगों के बीच संपर्क को बढ़ाते हैं। यह महामारियों का पथ है।”

जूनोसिस या जूनोटिक रोग एक ऐसा ही रोग है जो किसी मवेशियों के स्रोत से सीधे या किसी मध्यस्थ प्रजाति के जरिए इंसानी आबादी तक आया है। जूनोटिक संक्रमण बैक्टीरिया, वायरस या प्रकृति में पाए जाने वाले परजीवियों से हो सकता है, जानवर ऐसे संक्रमणों को बचाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जूनोसिस के उदाहरणों में एचआईवी-एड्स, इबोला, लाइम रोग, मलेरिया, रेबीज, वेस्ट नाइल बुखार और मौजूदा कोविड-19 शामिल हैं।

हालांकि, महामारी की आर्थिक कीमत के मुकाबले इसकी रोकथाम के उपाय बहुत कम खर्चीले होंगे। मौजूदा महामारी ने वैश्विक स्तर पर जुलाई 2020 तक लगभग 16 ट्रिलियन डॉलर का बोझ डाला है। रिपोर्ट के लेखकों का कहना है कि भविष्य में आने वाली महामारियों के खतरे को कम करने का खर्च इन महामारियों से निपटने में आने वाले खर्च से कम से कम 100 गुना कम होगा। दासज़ैक ने कहा, “वैज्ञानिक सबूत बहुत सकारात्मक परिणामों की तरफ इशारा करते हैं।” “हमारे पास महामारी को रोकने की बढ़ती हुई क्षमता है - लेकिन अभी हम जिस तरह से उनसे निपट रहे हैं, वह काफी हद तक उस क्षमता की अनदेखी करने वाला है। हमारा नजरिया प्रभावी रूप से स्थिर हो गया है - हम अभी भी रोगों के पैदा होने के बाद टीके और चिकित्सीय उपायों से उन्हें नियंत्रित करने पर भरोसा करते हैं। हम महामारी के युग से बच सकते हैं, लेकिन इसके लिए प्रतिक्रिया के अलावा इनके रोकथाम पर भी अधिक ध्यान देने की जरूरत है।” यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में इकोलॉजी एंड बायोडायवर्सिटी के चेयर केट जोन्स ने कहा: “ये खर्चे काल्पनिक जरूर हैं, लेकिन दुनिया भर में हमारी जिंदगी की मौजूदा परेशानियों को देखते हुए उचित लगते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पता है कि संक्रामक रोग के प्रकोप कितने खर्चीले हैं। और आप कैसे समझते हैं कि वे अपने जोखिम की सूची में महामारी फ्लू जैसी चीजों को सबसे ऊपर क्यों रखते हैं? हमें अब काम करने वाले वैश्विक नेताओं की जरूरत है।”

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की जलवायु परिवर्तन और भूमि रिपोर्ट के मुताबिक, जमीन के उपयोग में बदलाव के पीछे भोजन, पशुओं के चारे और रेशे के लिए इस्तेमाल होने वाली कृषि भूमि है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, 2050 तक दुनिया की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती के लिए 50 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा नई जमीन की जरूरत होगी। द इकोनॉमिक्स ऑफ लैंड डिग्रेडेशन इनिशिएटिव के 2015 में आए अध्ययन के मुताबिक, सालाना भूक्षरण के 10.6 खरब डॉलर के पारिस्थितिकीय तंत्र की सेवाएं नष्ट हो जाती हैं। इसने आगे कहा था, इसके विपरीत टिकाऊ भूमि प्रबंधन को अपनाकर फसल उत्पादन की बढ़ोतरी में 1.4 खरब डॉलर जोड़े जा सकते हैं. दुनिया की सबसे बड़ी वैश्विक पुनर्स्थापना प्रयास में, बीते पांच वर्षों में, लगभग 100 देशों में 2030 तक सुधारने और दोबारा पहले की स्थिति में लाने के लिए क्षेत्रों की पहचान की गई है। एक शुरुआती आकलन बताता है कि इस के तहत 40 करोड़ हेक्टेयर जमीन चिन्हित की गई है, जो कि 2050 तक वैश्विक खाद्य की जरूरत पूरी करने के लिए आवश्यक कृषि भूमि का लगभग 80 फीसदी है। भविष्य में जूनोसिस से बचने के लिए नए सिरे से निर्माण की व्यापक परियोजना के हिस्से के तौर पर इन इलाकों की पहले जैसा बनाने के कई अन्य प्रमुख लाभ, खास तौर पर जलवायु परिवर्तन पर लगाम, सामने आएंगे।



जुलाई के शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और अंतरराष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान (आईएलआरआई) ने “अगली महामारी की रोकथाम: जूनोटिक रोगों और संक्रमण फैलाव की श्रृंखला को कैसे तोड़ें” शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की । इस रिपोर्ट के अनुसार मनुष्यों में मौजूद जिन संक्रामक रोगों की जानकारी है, उनमें लगभग 60 फीसदी और सभी नए संक्रामक रोगों में 75 फीसदी जूनोटिक हैं। यूएनईपी के कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा था, “कोविड-19 महामारी सबसे खराब हो सकती है, लेकिन यह पहली नहीं है।”रिपोर्ट ने कोविड-19 महामारी के दौरान भविष्य के संभावित जूनोटिक रोग के प्रकोप के संदर्भ और प्रकृति पर चर्चा की थी।

इसने जूनोटिक रोग के जन्म को बढ़ावा देने वाले मानव विकास से प्रेरित सात कारकों को पहचाना – पशुओं के प्रोटीन की बढ़ती मांग; गहन और गैर-टिकाऊ खेती में बढ़ोतरी; वन्यजीवों का बढ़ता उपयोग और शोषण; प्राकृतिक संसाधनों का गैर-टिकाऊ इस्तेमाल; यात्रा और परिवहन, खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं में बदलाव और जलवायु परिवर्तन संकट। पशुओं से मिलने वाले भोजन की बढ़ती मांग ने पशु उत्पादन में अधिकता और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया है, जिसमें ऊंची उत्पादकता और रोगों से सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में आनुवंशिक तौर पर एक जैसे जानवर पाले जाते हैं।

सीमित जैव-सुरक्षा और पशुपालन, खराब कचरा प्रबंधन और इन परिस्थितियों के विकल्प के तौर रोगाणुरोधकों के इस्तेमाल की विशेषताओं के साथ कम आदर्श स्थिति में फॉर्म की सघन बनावट के कारण उन्हें एक-दूसरे के बहुत नजदीक रखकर पाला जा सकता है। यह उन्हें संक्रमण के लिहाज से असुरक्षित बना देता है, जो आगे जूनोटिक रोगों को बढ़ावा दे सकते हैं। फॉर्म की ऐसी व्यवस्था में रोगाणुरोधकों का अंधाधुंध इस्तेमाल रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) का बोझ बढ़ा रहा है, जो अपने आप में ऊंचे नुकसान के साथ वैश्विक जनस्वास्थ्य को खतरे में डालने वाली एक गंभीर महामारी है। इसके अलावा, कृषि उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्र का नुकसान, पशुओं के चारे में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले सोया की खेती, भी इंसानों की वन्यजीवों तक पहुंच बढ़ाकर जूनोटिक रोगों के उभार को भी प्रभावित कर रहा है।

रिपोर्ट ने इस बात से पर्दा उठाया कि पर्यावरण-वन्यजीव मिलन बिंदु (इंटरफेस) पर रोगों के पैदा होने में मानव गतिविधियों ने कैसे सक्रिय योगदान दिया। वन्यजीवों का बढ़ता उपयोग और शोषण इंसानों को जंगली जानवरों के बहुत नजदीकी संपर्क में ला सकता है, इसलिए जूनोटिक रोग के उभरने का खतरा बढ़ जाता है। इसमें मांस के लिए जंगली जीवों को पकड़ना, मनोरंजन के लिए वन्यजीवों का शिकार और इस्तेमाल, मनोरंजन के लिए जीवित जानवरों का कारोबार, या सजावट, चिकित्सा या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए जानवरों के अंगों का इस्तेमाल जैसी गतिविधियां शामिल हैं।

यूएनईपी और आईएलआरआई ने इंसान, पशु और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के मिलन स्थलों पर पैदा होने वाले जूनोटिक रोगों के प्रकोप और महामारियों के प्रबंधन और रोकथाम के लिए ‘वन-हेल्थ’ (एकल स्वास्थ्य) दृष्टिकोण के महत्व पर जोर दिया। रिपोर्ट ने एकल स्वास्थ्य दृष्टिकोण के आधार पर दस सिफारिशें कीं जो भविष्य की महामारियों के लिए तालमेल आधारित बहु-क्षेत्रीय प्रतिक्रिया बनाने में मदद कर सकती है। इनमें शामिल था: जूनोटिक बीमारियों के बारे में जागरूकता बढ़ाना; एकल स्वास्थ्य सहित अंतर-विषयी दृष्टिकोण में निवेश करना; जूनोटिक रोगों को लेकर वैज्ञानिक शोधों को विस्तार देना; रोग के सामाजिक प्रभावों के पूर्ण आकलन के साथ हस्तक्षेपों के लागत-लाभ विश्लेषण में सुधार करना; खाद्य प्रणालियों सहित जूनोटिक रोगों से जुड़ी निगरानी और नियंत्रण के व्यवहारों को मजबूत बनाना; टिकाऊ भूमि प्रबंधन व्यवहारों को बढ़ावा देना और खाद्य सुरक्षा व आजीविका के विकल्प विकसित करना जो आवासीय क्षेत्रों और जैव विविधता को नुकसान न पहुंचाते हों; जैव-सुरक्षा और नियंत्रण में सुधार, पशुपालन में उभरते रोगों के प्रमुख कारणों की पहचान करना और साबित हो चुके प्रबंधन व जूनोटिक रोग नियंत्रण उपायों को प्रोत्साहित करना; कृषि और वन्यजीवों के स्थायी सह-अस्तित्व को बढ़ाने वाले भू क्षेत्रों और समुद्री क्षेत्रों के टिकाऊ प्रबंधन की मदद करना; सभी देशों में स्वास्थ्य से जुड़े सभी हितधारकों की क्षमता को मजबूत करना; और अन्य क्षेत्रों में भूमि-उपयोग और सतत विकास योजनाएं बनाने, लागू करने और निगरानी में एकल स्वास्थ्य दृष्टिकोण को लागू करना।

यह पहला दस्तावेज है, जिसमें कोविड-19 महामारी के दौरान रोग उभरने के जूनोटिक आयाम के पर्यावरण पक्ष पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसने एकल स्वास्थ्य दृष्टिकोण के पर्यावरणीय पक्षों को मजबूत करने की जरूरत को उभारा, क्योंकि यह जूनेसिस का जोखिम घटाने और उसके नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण था। यह एएमआर रोकथाम के प्रयासों का भी एक महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि रोगागुरोधकों के अत्यधिक इस्तेमाल वाले कचरे से पर्यावरण में एएमआर निर्धारकों (उदाहरण के लिए, एंटीबायोटिक अवशेषों, प्रतिरोधी बैक्टीरिया) के लिए रास्ते खोल दिए हैं। जूनोटिक रोगों के साथ पर्यावरणीय से जुड़ी गहरी समझ में निवेश करने, इंसानी वर्चुस्व वाले क्षेत्रों में ऐसे रोगों की निगरानी करने, पर्यावरणीय परिवर्तन या गिरावट का जूनोटिक रोग के उभार पर आने वाले प्रभावों का बता लगाने, जैसे कदम तत्काल उठाने की जरूरत है।

हमें भोजन के साथ अपने संबंधों पर नए सिरे से विचार करने की शुरुआत जरूर करें, यह कैसे तैयार होता है और इसका हमारे ऊपर और हमारे पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है। यही समय है जब हम खाद्य उत्पादन की टिकाऊ पद्धतियों को चुनें और स्वास्थ्य व पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गहन व्यवस्थाओं पर निर्भरता घटाएं। एंडरसन ने रिपोर्ट जारी करने वाली प्रेस रिलीज में कहा, “महामारियां हमारे जीवन और हमारी अर्थव्यवस्थाओं के लिए विनाशकारी है, और जैसा कि हमने बीते कुछ महीनों में देखा है, जो सबसे गरीब और सबसे कमजोर हैं, वही सबसे अधिक पीड़ित है। भविष्य में प्रकोप को रोकने के लिए, हमें अपने प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा के लिए और अधिक सतर्क होना चाहिए।”

पारिस्थितिकी और वायरस का विकास

वैश्वीकरण ने महामारियों का प्रसार बढ़ाया है, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता की सुरक्षा और रोगों से लड़ने की क्षमता को मजबूत करना ही भविष्य का रास्ता है

केतकी घाटे

सौजन्य: आईपीबीईएस

प्रकृति में सभी जीवित प्राणियों के पास एक या एक से अधिक प्राकृतिक शिकारी होते हैं; कुछ खुद ‘शीर्ष’ शिकारी होते हैं। लेकिन हम, मानव जाति, ने ऐसे बहुत से शिकारियों पर अपने वर्चस्व का ऐलान कर दिया है। औद्योगिकीकरण के दौरान संसाधनों की खपत के स्तर में कई गुना इजाफा हुआ। अत्यधिक खपत ने पर्यावरण में जहरीले तत्वों को छोड़ा, जिससे स्थानीय स्तर (उदाहरण के लिए, नदी प्रदूषण) से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक संकट तक के नकारात्मक प्रभावों को पैदा किया।

बीमारियों, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं, अपराध और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वेष में ‘विकास’ हमारे हिस्से में वापस लौट आया है। क्या हम प्रकृति में एक श्रेष्ठ प्रजाति के रूप में अपनी जिम्मेदारी को पहचान सकते हैं? यहां तक कि अगर हम अपनी मानव प्रजाति को बचाने के बारे में स्वार्थी होकर भी सोचते हैं, तो भी क्या हम निरंतरता और सह-जीवन के फायदों को ध्यान में रख सकते हैं? आइए इसे नोवल कोरोनवायरस वायरस (कोविड-19) महामारी के आधार पर समझें।

पारिस्थितिकी और जैव विविधता को बचाने के महत्व को नोवल कोरोना वायरस सार्स-कोव-2 के उभार और प्रसार के आधार पर बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता है। दुनिया की लगभग 60 फीसदी बीमारियां जानवरों (जूनोसिस) से आती हैं, जिनमें से 72 फीसदी जंगली जानवरों से होती हैं।

ऐसे जानवरों को ‘रिजर्वायर’(जमाकर्ता) प्रजाति कहा जाता है। वे साथ-साथ विकसित होते हैं, और अक्सर वायरस मनुष्यों को सीधे संक्रमित नहीं करते हैं। इसमें एक अन्य जानवर मध्यस्थ होता है। इसे ‘स्पिल ओवर’ (छलकना) कहा जाता है।

नए जानवरों में जाने पर वायरस के लक्षणों में उत्परिवर्तन’(म्यूटेशन) के माध्यम से बदलाव आ जाता है, जो इसे संक्रामक बना देता है। म्यूटेशन वायरस की नई प्रतियां (कॉपी) बनने के दौरान होने वाली चूक या गलती जैसा होता है।

यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो जीन के स्तर पर होती है, और इसलिए यह टाली नहीं जा सकती है। हालांकि, यह तय करना संभव है कि इसका स्पिल ओवर न होने पाए, यानी किसी मध्यस्थ प्रजाति के माध्यम से इंसानों तक न पहुंचे। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इसे बदलते हुए पारिस्थितिक तंत्रों से जोड़ा है। स्पिल ओवर या छलकने की घटनाएं समान परिस्थितियों जैसे अनछुए वन क्षेत्रों या संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र में सीमित रहती हैं। लेकिन जमीन के उपयोग में बदलाव नई और अलग स्थितियों को जन्म देता है। उदाहरण के लिए, खनन, पशुपालन या व्यवसायिक खेती के लिए वनों की कटाई मौजूदा जैव विविधता, प्रजातियों की संख्या और जनसंख्या घनत्व में फेरबदल कर देती हैं। नई स्थिति वायरस के लिए फैलने, उत्परिवर्तित होने और विस्तार करने के लिए अवसर तैयार करती है।

यहां संख्या महत्वपूर्ण है। एक विशिष्ट प्रकार के जानवरों की संख्या जितनी बड़ी होगी, वायरस उतनी ही तेजी से फैलेंगे और उनके उत्परिवर्तन की संभावना भी ज्यादा होगी। डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के अनुसार, यह प्रक्रिया वायरस की उग्रता में योगदान करती है। यह प्रक्रिया अधिक विषाक्त और एक जैसे लक्षणों वाले संक्रामक वायरस के निर्माण को बढ़ावा देती है।

अंत में, ये संक्रामक नस्लें (स्ट्रेन्स) मनुष्यों से चिपक जाती हैं, और वायरस का प्रसार बीमारी के फैलाव में मदद करता है। संक्षेप में, जब हम प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की संपूर्णता को तोड़ते हैं या उसकी जगह पर एकल कृषि को लाते हैं, तो हम अपने लिए महामारी को बुलाने वाले हालात पैदा करते हैं।

संभावित वायरस के लिए मध्यस्थ उपलब्ध कराना प्रसार को आमंत्रित कर रहा है। बड़े पैमाने पर औद्योगिक पशुपालन में वनों की कटाई इन वायरस को हमारे भविष्य में बुलाने जैसा है। अभी मांस खाने वाले लोगों को लेकर सबसे ज्यादा चिंता जताई जा रही है, जो वायरस के प्रसार का अवसर बढ़ा सकते हैं। लेकिन इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खदानों से निकाली गई धातुओं जैसे तांबा, निकल, चांदी और कोबाल्ट से बनते हैं। इनमें से ज्यादातर खदानें जंगलों में हैं। वहां पर खनन शुरू करने के लिए पुराने जंगलों को हटाना और आवासीय क्षेत्रों को नष्ट करना होता है। इस तरह से यह वायरस को हमारे करीब लाकर खत्म होता है।

इस बारे में सवाल करना हमारी जिम्मेदारी है कि हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं और क्या इस्तेमाल करते हैं। 100 साल पहले महामारियों के दौरान मौत के मामले ज्यादा हो सकते हैं, और ऐसी महामारी के दोहराव की दर में बढ़ोतरी हुई है। इसे आसानी से हमारे औद्योगिक समाजों और बदलती जीवनशैलियों से जोड़ा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से बहुत सी चीजों को उलट पाना मुश्किल है। यह लगभग असंभव है कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल बंद कर दिया जाए। औद्योगीकरण पर कई श्रमिकों की आजीविका टिकी है। ऐसे में सीमित उपयोग और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों को दोबारा बहाल करना ही उपाय है। इसका मतलब यह होगा कि संसाधनों का जिम्मेदारी से उपयोग हो और दोहन खत्म होने के बाद क्षेत्रों को उनकी मूल चमक लौटाने का काम हो।

शहरीकरण बढ़ रहा है और जैव विविधता सिमट रही है। जीवन शैलियां भी बदल रही हैं। ये बदलाव प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करते हैं। शरीर के अंदरूनी और बाहरी दोनों वातावरण प्रतिरक्षा विकसित करने में महत्वपूर्ण होते हैं। स्वच्छता के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है, लेकिन अत्यधिक सफाई और तेजी से होने वाले उपचार हमारे शरीर के अंदरूनी वातावरण को बदल देते हैं। हमारा प्रतिरक्षा तंत्र सैकड़ों वर्षों से इन आंतरिक वातावरण के साथ-साथ विकसित हुआ है, और इसे अचानक से बदलने से हमारा शरीर रोगों के प्रति कमजोर हो जाता है।

जब तक ये बैक्टीरिया और वायरस हमारे साथ मिलकर विकसित होते हैं, तब तक वे कोई परेशानी नहीं बनते हैं। इसे ही वैज्ञानिक ‘पुराने मित्र की परिकल्पना’कहते हैं। लेकिन अगर हम अपने शरीर के वातावरण को बदलते हैं, तो वे अलग तरह से प्रतिक्रिया करेंगे। यदि बाहरी वातावरण बदलता है, तो यह हमारे स्वास्थ्य पर असर डालेगा। शोध से पता चलता है कि अगर आसपास कोई जैव विविधता नहीं है तो ठंड, दमा, त्वचा रोग जैसी चीजों से होने वाली एलर्जी बढ़ जाती है। यह ‘जैव विविधता परिकल्पना’ है।

पोलैंड की कहानी यहां पर जिक्र करने लायक अच्छा मामला है। 2004 में पोलैंड यूरोपीय संघ का सदस्य बना और उसकी कृषि नीतियां बदल गईं। कुछ शोधकर्ताओं ने 2003 और 2012 के बीच नागरिकों में अस्थमा और अन्य एलर्जी के प्रसार की जांच की। इसमें 8 से 18 फीसदी बढ़ोतरी पाई गई। इसका मुख्य कारण खेती से दूरी, गायों और अन्य जानवरों से संपर्क में कमी थी और इसके नतीजे में प्रतिरक्षा तंत्र का कमजोर पड़ा और बीमारियों में उभार आ गया। हालांकि, वायरल संक्रमण और एलर्जी दो अलग-अलग बीमारियां हैं, लेकिन दोनों में प्रतिरक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। और इसलिए, प्रतिरक्षा बनाए रखने के लिए घर के आसपास जैव विविधता होना जरूरी है।

हमें जरूर ध्यान देना चाहिए कि संक्रमण होने के बावजूद अच्छे प्रतिरक्षा तंत्र वाले बहुत से लोग बीमार नहीं पड़ते हैं। भले ही प्रतिरक्षा तंत्र आनुवंशिक है, लेकिन इसे कुछ तरीकों से बढ़ाया जा सकता है। भारत में, अलग-अलग संस्कृतियों में से हर किसी के पास स्वस्थ जीवनशैली के लिए साहित्य का अपना समूह या अलिखित आचार संहिता है। लेकिन तेजी वैश्वीकरण के कारण विविधता को एकरूप बनाया जा रहा है। खाद्य विविधता का नुकसान एक मुद्दा है। जैसे औद्योगीकरण का विस्तार हुआ, फसलें, पारंपरिक खाद्य के प्रकारों और फलस्वरूप पोषण में बदलाव आया। बाहरी वातावरण के साथ हमारे आहार में बदलाव ने हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर दिया।

कोविड-19 महामारी के चलते बनी वर्तमान स्थिति ने स्वास्थ्य और पोषण के महत्व को उभारा है। पारंपरिक और आधुनिक प्रथाओं को मिलाकर, हम अपने को भविष्य में महामारियों के लिए तैयार रख सकते हैं।

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