कोरोना काल की कविताएं

महामारी की पृष्ठभूमि में लिखी गई कविताएं इस भीषण दौर की टीस और छटपटाहट को स्वर देती हैं

By Bhagirath Srivas

On: Friday 04 September 2020
 
रितिका बोहरा / सीएसई 12jav.net

दुनियाभर में फैली महामारियां या बीमारियां हमेशा से साहित्य की विषयवस्तु रही हैं। इतिहास महामारियों का उतना बारीक और जीवंत चित्रण नहीं करता, जितना साहित्य में मिलता है। उपन्यास, कहानियों, नाटकों और कविताओं के रूप में हमें ऐसी असंख्य रचनाएं मिलती हैं। इस श्रृंखला में वाम प्रकाशन की “कोरोना में कवि” भी शामिल हो गई है। इस काव्य संग्रह में जाने-माने और नवोदित कवियों की कविताएं शामिल की गई हैं। अधिकांश कवियों ने लॉकडाउन से उपजी परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है। ज्यादातर कवियों ने प्रवासी मजदूरों का पीड़ा को स्वर दिया है।

पुस्तक की भूमिका में संपादक संजय कुंदन ने उन महत्वपूर्ण रचनाओं पर रोशनी डाली है जिनके केंद्र में बीमारियां रही हैं। वह लिखते हैं कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की काव्य रचना पुरातन भृत्य और उपन्यास चतुरंग में उन्होंने महामारी को लेकर तत्कालीन समाज में धार्मिक दृष्टिकोण की पड़ताल की तो वहीं शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने श्रीकांत में प्लेग की दारुण स्थितियों का चित्रण किया। ओड़िया साहित्य को आधुनिक स्वरूप देने वाले फकीर मोहन सेनापति की कहानी रेबती में हैजे की भयावहता का वर्णन है। निराला के उपन्यास कुल्ली भाट में 1918 में फ्लू से हुई मौतों का दिल दहला देने वाला चित्रण है। िनराला लिखते हैं, “मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था। जहां तक नजर जाती थी, गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं। मेरे ससुराल से खबर आई कि मेरी पत्नी मनोहरा देवी भी चल बसी हैं। मेरी एक साल की बेटी ने भी दम तोड़ दिया था। मेरे परिवार के और भी कई लोग हमेशा के लिए जाते रहे थे। लोगों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गई थीं। पलक झपकते ही मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया।”

संजय कुंदन आगे लिखते हैं, “हर तरह की तकनीक और उन्नत चिकित्सा प्रणाली एक वायरस के सामने फिलहाल तो असहाय दिख रही है। हालांकि ऐसी ही असहायता के बीच पहले भी रास्ते निकले हैं और निश्चय ही इस बार भी हम इससे उबर जाएंगे। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि सत्ता तंत्र का व्यवहार आज भी वैसा ही है, जैसा सौ साल पहले की किसी महामारी में रहा है।” वह आगे लिखते हैं, “महामारी के बहाने जनतांत्रिक मूल्यों व जनता के अधिकारों पर कुठाराघात की कोशिशें भी देखी जा रही हैं। इतिहास का यह खतरनाक दोहराव चिंतित करने वाला है।”

इसी दोहराव को रेखांकित करते हुए सुभाष राय ने साइकिल पर अपने पिता को बिठाकर गुड़गांव से दरभंगा पहुंचने वाली 15 साल की ज्योति पासवान को लिखी चिट्ठी में कहा है-

ज्योति बेटी! वे तुम्हें साइकिलिंग
का मौका देना चाहते हैं
लेकिन अभी उन्हें भरोसा नहीं है
तुम्हारे साहस पर, तुम्हारे इरादे पर
वे तुम्हारी परीक्षा लेंगे
वे आम बच्चियों को मौका नहीं देते
तुम भी आम होती
पिता की निरुपायता पर रोती
और रोते राेते मर जाती
तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

संजय कुंदन “जा रहे हम” शीर्षक से प्रकाशित कविता में अपने गांव लौट रहे प्रवासी मजदूरों की व्यथा और शहरों के उपेक्षित व्यवहार पर लिखते हैं-

जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं
और यह देह
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचे कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है
कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता
-यह शहर तुम्हारा भी तो है
उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं
उन्होंने भी कुछ नहीं कहा
जिनकी चूड़ियां हमने 1300 डिग्री तापमान में
कांच पिघलाकर बनाईं
किसी ने नहीं देखा एक ब्रश, एक पेचकर
एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है
जिसमें खून दौड़ता है
जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए।

मदन कश्यप ने 65 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति की पीड़ा को स्वर देते हुए लिखा है-

अपने ही घर में कुछ इस तरह छिप गया हूं
कि डरकर भी डरा हुआ नहीं हूं
हो तो गया था
पर एक साल बाद अब जाकर हुआ
65 पार होने का एहसास
जब काल की पनाह से निकलकर
कोरोना के हवाले कर दिया गया
एक ढीठ खामोशी मुझे घूरती रहती है
बंद कारखानों की उदास बत्तियां
मानों संध्या का स्वागत करना भूल गई है
अंधेरे की चुप्पी से कहीं ज्यादा भयावह होती है
रोशनी की नीरवता।

लीलाधर मंडलोई ने सारा डेटा होते हुए भी कुछ न करने पर व्यवस्था पर बेहद तीखा कटाक्ष किया है। “आपको सब मालूम है” कविता में उन्होंने मेहनतकश मजदूरों की जिजीविषा और सरकारी उपेक्षा पर लिखा है-

कितना सच समझा हमें
कितनी सटीक बात की आपने
और कौन समझ सकता है इतना सूक्ष्म
कि आपके पास सारा डेटा है
हमारी हड्डियो, मांस-मज्जा, रक्त में बहते लहू की ताकत
हमारे धैर्य, तप और बल को अकेले
आप जानते हैं
आपको मालूम है कि हम बीच सड़क में
जन सकते हैं अपना बच्चा
और चुपचाप चल सकते हैं
गर्म लू के थपेड़ों में
आपको मालूम है मऊ का रहने वाला मजूर-राहुल
अपने एक बैल को भूख से लड़ने
के लिए बेचकर
बैलगाड़ी में खुद जुतकर ढो सकता है गृहस्थी-परिवार
थकने पर उसकी भाभी जुतकर
खींच सकती है बोझ
चिलचिलाती कड़ी धूप में
आपको मालूम है हैदराबाद से 800 कि.मी.दूर
रामू हाथ से बनी एक गाड़ी में
8 माह की गर्भवती बीवी और बेटी को
बिना किसी सहायता के बाहुबल से
खींच सकता है
आपको यह भी मालूम है साहब
कि अहमदाबाद से रतलाम तक
9 माह का गर्भ लिए एक स्त्री अपने पति
और दो बच्चों के साथ पैदल
196 कि.मी. चल सकती है
आपको सब मालूम है
सिवाय इसके
कि हमें आपकी मनुष्यता के बारे में
जो मालूम न था आज तक
अब सब मालूम हुआ।

काव्य संग्रह में 15 कवियों की कुल 23 कविताओं का संकलन है। ये कविताएं कोरोना काल की पीड़ा और छटपटाहट को स्वर देती हैं। कुछ समय बाद जब देश कोरोनावायरस की जद से बाहर निकल चुका होगा, तब यह काव्य संग्रह इस भयंकर दौर की रह रहकर याद दिलाता रहेगा।

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