कोविड-19 चुनौती-2021: वैक्सीन की कमी से कैसे उबरेगा विश्व

दुनियाभर में कोविड वैक्सीन की कमी देखी जा रही है। इस चुनौती से तभी निबटा जा सकता है जब औद्योगिक घराने एक साथ आ आएंगे

By Vibha Varshney

On: Tuesday 13 April 2021
 

अमरीका के जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के मुताबिक, 12 अप्रैल तक दुनियाभर में 77.7 करोड़ कोविड-19 इंजेक्शन लगाये गये हैं। यानी कि दुनिया की बालिग आबादी के 2 प्रतिशत से कुछ अधिक हिस्से का पूरी तरह से टीकाकरण सुनिश्चित हो चुका है। 

एयरफिनिटी नाम की एक विश्लेषण कंपनी के मुताबिक, साल 2021 के अंत तक दुनियाभर में कोविड-19 टीके के 950 करोड़ डोज का उत्पादन होगा, लेकिन पूरी बालिग आबादी के टीकाकरण के लिए जल्द से जल्द 140 करोड़ टीके की जरूरत है। ये आंकड़ा, वैक्सीन एलायंस गेवी के अनुसार, कोविड-19 संकट से पहले दूसरी बीमारियों के लिए दुनियाभर में जितने वैक्सीन का निर्माण हो रहा था, उसका तीन गुना है। 

हालांकि, जब तक वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां उत्पादन बढ़ाने के उपाय ढूंढेंगी, तब तक वैक्सीन का अधिकतम फायदा नहीं लिया जा सकेगा। मौजूदा हालात से चिंतित दवा निर्माता कंपनियों ने वैक्सीन उत्पादन इसके वितरण में रही दिक्कतों का समाधान करने के लिए 8 और 9 मार्च को यूके के लंदन में आयोजित ग्लोबल कोविड-19 वैक्सीन सप्लाई चेन एंड मैन्युफैक्चरिंग सम्मेलन में मुलाकात की।

इन सम्मेलन में शिरकत करने वाले नॉर्वे के ओसलो के एक गैर सरकारी संगठन कोलिशन फॉर एपिडेमिक प्रीपर्डनेस एन्नोवेशंस (सीईपीआई) के मुख्य कार्यकारी रिचर्ड हैटचेट ने कहा, “इस महामारी को खत्म करने के लिए हमें वैक्सीन की किल्लत और इससे वैक्सीन की सप्लाई में आने वाली सुस्ती रोकने को आपातकालीन स्थिति में एकसाथ काम करना होगा।

लेकिन, दवा निर्माता कंपनियां एकसाथ काम नहीं किया करती हैं और इस महामारी ने इसे जगजाहिर कर दिया है। इस बीच, उत्पादन बढ़ाने और सुचारू सप्लाई के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दवा निर्माता कंपनियों के लिए कुछ स्पष्ट अनुशंसाएं की हैं। 

इनमें से सबसे पहला उपाय है पैटेंट और बौधिक सम्पदा अधिकार (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स यानी आईपीआरएस) को खत्म करना, ताकि वे देश जिनके पास वैक्सीन उत्पादन की क्षमता है, वे तुरंत वैक्सीन का निर्माण शुरू कर सकें। हालांकि पिछले साल अक्टूबर में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स निलंबित करने का प्रस्ताव दिया था, तो एक भी विकसित देश ने इसका समर्थन नहीं किया। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक अन्य अनुशंसा में वैक्सीन उत्पादन में तेजी लाने के लिए दवा निर्माता कंपनियों के बीच ज्यादा से ज्यादा साझेदारी और द्विपक्षीय तकनीक हस्तांतरण शामिल है। अलबत्ता, निजी कंपनियां साझेदारी तो कर रही हैं, लेकिन ये सिर्फ ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने के लिए हो रहा है। उदाहरण के लिए एस्ट्राजेनेका ने 15 देशों की 26 कंपनियों के साथ साझेदारी की है। लेकिन इस साझेदारी में बहुत पारदर्शिता नहीं है और जिन कंपनियों के साथ साझेदारी हुई है, उनमें से अधिकांश कंपनियां विकसित देशों की हैं। 

पिछले साल मई 2020 में वैक्सीन पर काम चल रहा था, तभी विश्व स्वास्थ्य संगठन को इसका एहसास हो गया था। उस वक्त डब्ल्यूएचओ ने न्यूनतम आय वाले देशों के उत्पादकों के साथ वैक्सीन की तकनीक साझा करने के लिए कोविड-19 टेक्नोलॉजी एक्सेस पूल (सी-टैप) तैयार किया  था, लेकिन एक भी कंपनी ने तकनीक साझा करने में दिलचस्पी नहीं ली। 

सच तो ये है कि सी-टैप के लांच होने से दो दिन पहले 28 मई को पीफाइजर, एस्ट्राजेनेका और ग्लैक्सोस्मिथलिन जैसी बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों ने सार्वजनिक तौर पर इस पहल का माखौल उड़ाया था। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ फार्मास्यूटिकल मैन्युफैक्चरर्स एंड एसोसिएट्स की तरफ से आयोजित एक ऑनलाइन कार्यक्रम में पीफाइजर के चीफ एग्जिक्यूटिव अलबर्ट बौरला ने कहा था, “मुझे लगता है कि इस वक्त ये पहल बकवास और खतरनाक है।एस्ट्राजेनेका के चीफ एग्जिक्यूटिव पास्कल सोरियोट ने तर्क दिया था कि इंटिलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स उनके कारोबार का बुनियादी हिस्सा है और अगर आप इसकी रक्षा नहीं करते हैं, तो निश्चित तौर पर किसी को भी नवाचार के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। 

कारोबारियों की तरफ से इस तरह के दावे हास्यास्पद हैं क्योंकि कोविड-19 के जो 13 वैक्सीन अभी बाजार में उपलब्ध हैं, उनकी तकनीक तैयार करने में जनता का पैसा लगा है। मॉडर्ना वैक्सीन एमआरएनए-1273 का निर्माण जिस तकनीक से हुआ है, उसे जनता के पैसे से चलने वाले यूनिवर्सिटी लैब में तैयार किया गया है। कंपनी ने कहा है कि इस वैक्सीन से कंपनी इस साल 18.5 बिलियन अमरीकी डॉलर की कमाई करेगी। 

यहां तक कि एजेडडी1222, जो अभी बाजार में सबसे ज्यादा लोकप्रिय है, को यूके की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी मेंसबसे के लिए मुफ्तके विचार के साथ विकसित किया गया है। बाद में बिल मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की अनुशंसा पर यूनिवर्सिटी ने ब्रिटिश-स्वीडन की कंपनी एस्ट्राजेनेका को इसका विशेष अधिकार देने के लिए उसके साथ अनुबंध कर लिया। एक निजी कंपनी ने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ एक अनुबंध किया, जो अभी कोविशील्ड नाम से वैक्सीन बना रही है। 

इस मामले में अमीर देशों का रवैया भी बहुत अच्छा नहीं रहा है। सब-सहारा अफ्रीका के 50 देशों में अब तक कोविड-19 वैक्सीन की पहली डोज तक नहीं लगी है, लेकिन मार्च में प्रकाशित सीईपीआई की रिपोर्ट बताती है कि इस साल के अंत तक उत्पादित होने वाले वैक्सीन का दो-तिहाई से अधिक हिस्सा अमीर और मध्य-कमाई वाले देशों ने अपने लिए बुक कर लिया है। बाकी बचा डोज दुनिया के सबसे पिछड़े 92 देशों की आबादी के महज 28 प्रतिशत हिस्से को मिल पायेगा। सच बात तो ये है कि अमीर देश जान बूझकर अपने हिस्से  की वैक्सीन दबाकर बैठे हैं, ये जानते हुए कि केवल वायरस के फैलाव को दबाकर इसका संक्रमण सभी जगह एकसाथ रोका जा सकता है।

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