क्या भारतीयों में कोरोनावायरस के प्रति ज्यादा इम्यूनिटी है
भारतीय आनुवंशिक लाभ की स्थिति में तो हैं, लेकिन अभी किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी
On: Friday 10 April 2020
भारत में कोरोनावायरस (कोविड-19) के उम्मीद से कम पॉजिटिव मामलों ने कई बहसों को जन्म दे दिया है। इसमें एक बहस यह है कि क्या भारतीयों में कोरोनावायरस के प्रति अधिक इम्युनिटी है।
यह सैद्धांतिक रूप से संभव है क्योंकि भारतीयों ने उन रोगाणुओं का लगातार सामना किया जो प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाते हैं और हमलावर रोगाणुओं को नष्ट करते हैं। यही कारण है कि बहुत स्वच्छ वातावरण में बच्चे एक रोगाणु के हल्के जोखिमों से भी बीमार पड़ जाते हैं।
अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में इम्यूनोजेनेटिक्स एंड ट्रांसप्लांटेशन लेबोरेटरी के निदेशक राजलिंगम राजा के अनुसार, भारतीयों को कुछ ऐसे आनुवांशिक लाभ हैं। वे अधिक जीन हासिल करने के लिए विकसित हुए हैं, जो वायरल संक्रमण से बचाते हैं। वह कहते हैं, “ये जीन हमारे शरीर में प्राकृतिक हत्यारी कोशिकाओं को ताकतवर बनाते हैं। ये जीन श्वेत रक्त कोशिकाओं को सक्षम करते हैं जो वायरल संक्रमण के खिलाफ रक्षा की पहली पंक्ति प्रदान करते हैं।
जीन के दो परिवार- केआईआर और एचएलए इस सुरक्षात्मक कार्य में एक भूमिका निभाते हैं। भारतीयों में चीनी और काकेशियन की तुलना में अधिक केआईसी जीन है। राजा के अनुसार, यह भारतीयों को वायरस के प्रति अधिक प्रतिरोधक बना सकता है।
ऐसा ही तंत्र इबोला और सार्स जैसे वायरस से चमगादड़ को बचाता है। जींस एंड इन्यूनिटी जर्नल में 2008 में एनके कोशिकाओं के बारे में लिखने वाले राजा ने कहा कि चमगादड़ में प्रतिरक्षा हैं क्योंकि उन्होंने एनके सेल को बढ़ाने वाले जीन परिवारों का विस्तार किया है।
हालांकि, बीमारी से लड़ने के लिए भारतीयों में यह पर्याप्त है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। इसके अलावा भी सख्त उपायों की आवश्यकता है। भारत और अमेरिका के शोधकर्ताओं की एक टीम ने दोनों देशों में बच्चों के गर्भनाल रक्त का अध्ययन किया और उनमें अंतर पाया गया। इसके निष्कर्ष 2018 में प्लोस वन पत्रिका में प्रकाशित किए गए थे।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में ह्यूमन इम्यून मॉनिटरिंग सेंटर के निदेशक होल्डन मेकर के अनुसार, हमने अपने अध्ययन में बताया कि भारतीय शिशुओं में शुरुआती जीवन में संक्रमण की संभावना अधिक हो सकती है, अगर उनमें कुछ प्रतिरक्षा कोशिकाओं की फ्रीक्वेंसी कम हो।
जीवन की शुरुआत में लगातार रोगाणुओं का हमला निश्चित रूप से हानिकारक है। मेकर बताते हैं कि यह पर्यावरणीय एंटेरोपैथी की घटना में देखी गई है, जहां खराब स्वच्छता और रोगाणु बच्चों में कुपोषण और स्टंटिंग को बढ़ाते हैं। हालांकि उन्होंने माना कि रोगाणुओं के संपर्क में आने से प्रतिरक्षा प्रणाली को जीका या कोरोनावायरस जैसे नए हमलों से कुछ हद तक बचाव किया जा सकता है।
यह तपेदिक के लिए किए गए सुरक्षात्मक प्रभाव के समान था। यह निश्चित रूप से संभव था कि कुछ आनुवांशिक समूहों में कोविड-19 के लिए प्रतिरोध बढ़ रहा था। खासकर तब जब विशिष्ट प्रतिरक्षा न हो। हालांकि अलग-अलग वर्गों में बंटे सभी भारतीयों के लिए ऐसा कहना मुश्किल है।
उन्होंने कहा, यह एक तरह का संतुलन है और मेरा अनुमान है कि सभी भारतीय को तराजू में नहीं तोला जा सकता। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलोजी के सत्यजीत राठ के अनुसार, भारतीय प्रतिरक्षा प्रणााली के बारे में अधिकांश अटकलें हैं। राठ ने मेकर के अध्ययन के सह लेखक हैं।
वह बताते हैं कि यह उपमहाद्वीप में कोरोना की महामारी अभी शुरुआत चरण में है। भारत में इसका फैलाव कम होगा या उस अधिक उग्र रूप में नहीं आएगी, यह देखना अभी बाकी है।
भारतीयों में इसके कम प्रकोप का अब तक कोई अध्ययन सामने नहीं आया है। अच्छा पोषण, नियमित व्यायाम और नींद प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार जरूर कर सकते हैं।