भारत का लॉकडाउन से सबसे अधिक प्रभावित होंगे प्रवासी मजदूर और महिलाएं

लॉकडाउन होने के बाद प्रवासी मजदूरों और महिलाओं के ऊपर समस्याओं का पहाड़ टूट पड़ा है और उनके लिए खाद्य और स्वास्थ्य सुरक्षा का संकट खड़ा हो गया है

On: Tuesday 31 March 2020
 
लॉकडाउन की वजह से राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 24 पर पैदल ही चलती महिलाएं। फोटो: विकास चौधरी

 नित्या राव

तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में मैं दो दिन पहले एक भयानक सन्नाटे वाले सुबह में जगी। इससे एक दिन पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिन के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन मध्यरात्रि के बाद करने की घोषणा की थी।

अगली सुबह सड़क पर कोई भी नहीं था, वो चाय की दुकान जहां कारखानों के मजदूर और सुरक्षाकर्मी और ऑटो रिक्शा चलाने वाले इकट्ठा होते थे, वो भी बंद थी। कारखाने से कई गाड़ियों में लादकर वहां काम कर रहे मजदूरों को लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही बाहर भेज दिया गया था। सड़क किनारे फल बेचते ठेले वाले, चाय और पकौड़े बेचने वाले छोटे दुकानदार सड़क छोड़ चुके थे। मैं सिर्फ पुलिस के बैरिकेड्स और वहां आने-जाने वाले लोगों से पुलिस वालों को सवाल करते देख पा रही थी।

जबकि, स्कूल और दूसरे शैक्षनिक संस्थान और मनोरंजन से संबंधिक संस्थान पिछले सप्ताह ही बंद किए जा चुके थे, इस पैमाने पर कोरोना वायरस की वजह से हुई देशव्यापी बंदी से 130 करोड़ लोगों पर अप्रत्याशित प्रभाव पड़ने वाला है।

भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस लॉकडाउन के दौरान स्वयंसेवी महिला समूहों को अगले तीन महीने तक पांच सौ रुपए प्रतिमाह नकद भुगतान और मनरेगा के मजदूरों की मजदूरी में इजाफा लाने जैसे कई बड़ी घोषणाएं की हैं।

तमिलनाडु के राज्य सरकार के साथ केरल, दिल्ली, राजस्थान और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अपने सामाजिक सुरक्षा संबंधी उपायों को इस कठिन वक्त में अपनाया है। तमिलनाडु में कारखानों में काम करने वाले मजदूर जिनमें से कई दूसरे राज्य से विशेषकर उत्तर भारत से हैं को चावल, दाल, तेल और चीनी मुफ्त में देने की घोषणा की है। साथ ही,  इन्हें एक हजार रुपए अगले दो महीने के लिए दिया गया है जिससे वो कोई आकास्मिक जरूरत पूरा कर सके। रिक्शाचालक और टैक्सी के चालकों के साथ निर्माण कार्यों में लगे मजदूर भी ये लाभ ले सकते हैं।

भारत की जनसंख्या 130 करोड़ है जिसमें से तकरीबन आधे लोग खाद्य असुरक्षा की श्रेणी में आते हैं जिसका मतलब यह हुआ कि उन्हें समुचित पोषक आहार खाने में नहीं मिल पाता है।  

भारत की 60 फीसदी आबादी अनुसुचित जनजाति या अनुसुचित जाति की श्रेणी में है जो कि एनीमिया जैसी परेशानी से जुझते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि लॉकडाउन कोरोना वायरस से हमारी लड़ाई में मददगार होगा और इसे फैलने से रोकेगा लेकिन भोजन और पोषण पर भी इसका बड़ा असर होने वाला है। शुरुआती समय में लॉकडाउन की रिपोर्टिंग शहरी उलाकों से हो है, गांव से जानकारियां कम ही सामने आ रही है।

लॉकडाउन से पहली कतार में निपटती महिलाएं

नेचर फूड में आने वाले एक शोध पत्र में मैंने यह बात रखी है कि महिलाएं दक्षिणी एशिया में कृषि कार्यों में एक महत्वपूर्ण भूमिका में होती हैं, और अक्सर कृषि कार्य में लगे कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा होती है, उन्हें कईयों बार कम मेहनताना या न के बराबर मेहनताना मिलता है। इस वजह से वे परिवार की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती हैं।

जबकि उनका योगदान खाद्य और पोषण सुरक्षा में घर और समुदाय में केंद्र में होता है, फिर भी उनके काम को स्थान कम ही मामलों में मिलता है। उदाहरण के लिए बुआई या कटाई के समय महिलाओं को खेतों में काम करना पड़ता है जिससे वे अपने घर के काम में या बच्चों को पोषण दे पाने का समय नहीं निकाल पाती। इसके फलस्वरूप बच्चों में कुपोषण की समस्या उत्पन्न होती है।

इस बात को ध्यान में रखकर मैंने लॉकडाउन का भारत में महिलाओं पर होने वाले प्रभावों पर मेरी तीन चिंताएं हैं।

पहली चिंता यह कि महिलाएं अपनी मुख्य भूमिका खाने के सामान खरीदना और उसे अपने घर के लोगों के लिए बनाने का काम जारी रखेंगी। यह महिलाओं की जिम्मेदारी होगी कि वो घर में खाने की चीजों की खरीदी आसपास की राशन दुकान से करे। अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि खाने-पीने की चीजों की आपूर्ति लॉकडाउन की वजह से किस तरह प्रभावित होगी। खाने बनाने में लगने वाला इंधन की आपूर्ति या सब्जी और मसाले या फिर बिजली, घर के किरायों पर लॉकडाउन का क्या प्रभाव होगा।

देवी (बदला हुआ नाम), जो कि मेरे बुजुर्ग माता-पिता के लिए खाना बनाती है और उनकी देखभाग करती है, उसने कहा कि उसके वेतन का कुछ हिस्सा उसके बेटे के खाते में डाल दें। वह लॉकडाउन से पहले गैस का सिलिंडर और कुछ जरूरी सामान खरीदना चाहती थी। उसके दोनों बेटे ड्राइवर हैं और लॉकडाउन के बाद बिल्कुल खाली बैठ गए हैं। अब घर में सिर्फ वही अकेली कमाऊ सदस्य है और इसी बात से उसकी चिंता बढ़ती जा रही है। 

प्रवासी मजदूरों पर पड़ने वाला बोझ

दूसरी चिंता, गरीब उत्तरी राज्यों के ग्रामीण इलाकों के लोग जो कि काम की तलाश में मानसून के बाद अगस्त से लेक मई महीनों तक कारखानों, निर्माण कार्य और कई और व्यापार में काम करने आते हैं। वे विकसित प्रदेश की तरफ रुख करते हैं जिनमें केरल और महाराष्ट्र जैसे जगह प्रमुख है और ये राज्य इस महामारी के सबसे अधिक शिकार हुए हैं। यहां कमाई कर ये प्रवासी मजदूर खाने की सुरक्षा के साथ कुछ पैसे जमा भी करते हैं ताकि खेती के काम में वे इन्हें लगा सकें।

ओडिशा के कोरापुट जिले में मेरे सहकर्मी और मैंने साथ मिलकर एक शोध कर रहे हैं जिसका विषय आदिवासी समूहों में सतत भोजन की आपूर्ति और खेती है। उस प्रोजेक्ट के स्थानीय समन्वय बनाने वाले विकास (नाम परिवर्तित) ने बताया कि लोग ट्रकों में भरकर पिछले एक सप्ताह से आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और केरला से आ रहे हैं। उनमें से कई मजदूरों को इस महीने का मेहनताना भी नहीं मिला और कुछ लोग ऐसे हैं जो कुछ दिन पहले ही काम पर गए थे और उनकी इस दौरान कोई कमाई नहीं हुई। वे इस वायरस के संभावित संवाहक भी हो सकते हैं।

विकास और उनके सहयोगी मिलकर मजदूरों में जागरुकता फैलाने का काम कर रहे हैं और वापस आने वाले प्रवासी मजदूरों से एक दूसरे के बीच सामाजिक दूरी बनाने की सलाह दे रहे हैं। हालांकि, गांव में पूरा परिवार एक कमरे की झोपड़ी में रहता है और वहां सामाजिक दूरी बनाना या व्यक्ति को क्वारंटाइन करने के सीमित स्थान हैं।  

यह कहना जल्दबाजी होगी कि संक्रमण किस हद तक फैल सकता है। हालांकि, मेरे इस इलाके में किए पिछले शोध में सामने आया था कि बेदह खराब काम के माहौल, विशेषकर ईंट भट्ठे के मजदूर या निर्माण कार्य में लगे लोग जो कि आंध्रप्रदेश से लौटकर आते हैं, वे अक्सर बीमार होकर वापस आते हैं। घर पर कुछ पैसा लाने के बावजूद घर की महिलाओं का काम मजदूरों का ख्याल रखने की वजह से बढ़ ही जाता है। यह प्रवृत्ति आने वाले समय में और गंभीर होने वाली है।

वे लोग जो शहरों में फंस गए और घर वापस नहीं आ पाए, नके लिए अपना खाना और स्वास्थ्य ठीक रखना काफी कठिन काम है। उनका राशन कार्ड उनके स्थायी गांव पर होता है और आमतौर पर महिलाओं के नाम से बना हुआ होता है। काम और आमदनी के बिना, राशन कार्ड की गैरमौजूदगी में मानवीय आधार पर सामाजिक सुविधा ही उनकी एक आखिरी उम्मीद है।

खाद्य असुरक्षा का डर

मेरी तीसरी चिंता है, गरीबी और आमदनी की गैरमौजूदगी में कई ग्रामीण महिलाओं के लिए खाने और पोषण की सुरक्षा लॉकडाउन के वक्त मुश्किल हो सकती है। विशेषकर उन महिलाओं के लिए जिनके पतियों का रोजगार हाल में ही छिना है।

केरला में राहत कार्यों के तहत खाने के पैकेट बनाने, ताजा खाना पहुंचाने के लिए स्वयं सेवी महिला समूहों को शामिल करने की बात सामने आई है।  

लेकिन भोजन के हक को सुनिश्चित करने के लिए सरकार के सामने मौजूदा प्रणाली को सुदृढ़ करना काफी जरूरी है। दुर्भाग्यवश, हमारे सहयोगियों के द्वारा किए जा रहे शोध में सामने आया कि दक्षिणी बिहार के कुछ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र कोरोना वायरस की वजह से बंद पाए गए और जिला स्तर के अस्पताल में इंतजामों की कमी पाई गई। आंगनबाड़ी और स्कूल के बंद होने की वजह से बच्चों को मिड डे मील भी नहीं मिल रहा और 25 मार्च तक की स्थिति में टेक होम राशन भी नहीं बांटा गया था।

सकारात्म पक्ष की तरफ देखें तो ओडिशा के कोरापुट जिले में हमारी टीम ने पाया कि प्रशासन की तरफ से स्कूलों में राशन दिया जा रहा था ताकि वे घर में मिड डे मील की जगह इसे खा सकें। राज्य ने विधवा महिलाओं और दिव्यांग लोगों को तीन महीने का इकट्ठा पेंशन दे रही है।

हालांकि ये छोटे उपाय हो सकते हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को अपने परिवारों की देखभाल करने में प्रशासन की मदद की जरूरत होगी। संभावित रूप से संक्रमित पुरुषों और संस्थागत लॉकडाउन द्वारा उत्पन्न नई चुनौतियों का सामना करने में सामाजिक संरक्षण के तरीकों में नयापन लाना जरूरी है। इस दौरान दिए गए राहत के उपायों को जल्द से जल्द और प्रभावी तौर पर पहुंचाना भी जरूरी है। भारत में कोरोनोवायरस महामारी के दीर्घकालिक प्रभाव और भी अधिक गंभीर हो सकते हैं और सबसे गरीब और कमजोर लोगों के लिए भोजन और पोषण की असुरक्षा को बदतर कर सकते हैं।

(नित्या राव यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंजिलिया में जेंडर एंड डेवलपमेंट विषय की प्रोफेसर है। यह लेख द कंवर्सेशन से एक अनुबंध के तहत लिया गया है। मूल लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें। )

 
 

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